संध्या द्विवेदी
जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं, मौजूदा हलाला की व्यवस्था औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ है, बहुविवाह के जरिए यह बताया जाता है कि मर्द के लिए औरत कितनी मामूली सी चीज है’, उत्तराखंड की शायरा बानो का यह बयान न केवल उनका बल्कि तिहरे तलाक या हलाला का सामना कर चुकी सभी मुस्लिम औरतों का दर्द बयां करता है। मुस्लिम औरतों को और उनकी तकलीफों को मुस्लिम धर्मगुरु और इस समुदाय के जिम्मेदार व्यक्ति क्या दर्जा देते हैं इसका अंदाजा उत्तर प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य मुफ्ती जुल्फिकार के इस बयान से लगाया जा सकता है। मुफ्ती जुल्फिकार से जब इस मसले पर बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि मुस्लिम समुदाय में इन मसलों के अलावा कई अहम मसले हैं जिन पर बहस करने की जरूरत है। पहले शाहबानो के जरिए और अब शायरा बानो के जरिए शरीयत कानून में दखल देने की कोशिश हो रही है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मोहम्मद कासिम रसूल ने इतने कड़े अंदाज में न सही मगर यह तो जरूर कहा कि शायरा बानो को सुप्रीम कोर्ट की जगह शरीयत अदालत में जाना चाहिए था। उन्होंने भी शाह बानो मामले का जिक्र करते हुए कहा कि अगर शाह बानो शरीयत अदालत का दरवाजा खटखटातीं तो इतना हंगामा नहीं होता जितना हुआ था। आपको पता ही है कि शाह बानो के मामले में क्या हुआ था। शाह बानो इस पूरे मसले को शांति से अपने ही समुदाय के भीतर निपटा सकतीं थीं। यानी यह साफ है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या फिर मुस्लिम धर्मगुरु इन सबको शायरा का सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना खटक गया है।
शायरा बानो ने इन सब की परवाह किए बगैर सुप्रीम कोर्ट में 23 फरवरी, 2016 को याचिका दाखिल कर गुहार लगाई है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत दिए जाने वाले तलाक-ए-बिद्दत यानी तिहरे तलाक, हलाला और बहुविवाह को गैर कानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाए। शरीयत कानून में तिहरे तलाक को मान्यता दी गई है। इसमें एक ही बार में शौहर अपनी पत्नी को तलाक, तलाक, तलाक कहकर तलाक दे देता है। तिहरे तलाक के कई उदाहरण सामने हैं जिनमें पत्र के जरिए, एसएमएस के जरिए, ई-मेल के जरिए, स्काइप के जरिए तलाक देने का प्रचलन है।
शायरा बानो को उनके शौहर ने एक पत्र के जरिए सूचित किया कि उसने उन्हें तलाक दे दिया है। यह पत्र 10 अक्टूबर, 2015 को लिखा गया था। शायरा बानो उस वक्त अपने मायके में थीं। उन्हें उनके पति ने फोन पर बताया कि कुछ जरूरी कागज भेज रहा हूं ले लेना। मगर जब शायरा ने इन कागजात को खोलकर देखा तो यह तलाकनामा था। इस दो पन्ने के पत्र में कई बातों के अलावा यह साफ साफ लिखा था- ‘मैं शरीयत की रोशनी में यह कहते हुए कि मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, इस तरह तिहरा तलाक देते हुए मैं मुकिर आपको अपनी जैजियत से खारिज करता हूं। आज से आप और मेरे दरम्यान बीवी और शौहर का रिश्ता खत्म। आज के बाद आप मेरे लिए हराम और मैं आपके लिए नामहरम हो चुका हूं।’
शायरा ने इस पत्र को पाकर कई बार अपने पति रिजवान को फोन करने की कोशिश की लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं मिला। शायरा ने अपने भाई और पिता की मदद से अपने पति पर केस कर दिया। लेकिन शायरा ने केवल इस तरह से दिए जाने वाले तिहरे तलाक ही नहीं बल्कि हलाला और बहुविवाह जैसी व्यवस्था को भी चुनौती दी है।
क्या है हलाला
शरीयत कानून में हलाला एक तरह से तीन तलाक देने के बाद शौहर के लिए हराम हो चुकी उसी बीवी को दोबारा हासिल करने का तरीका है। यानी तीन तलाक देने के बाद अगर फिर शौहर अपनी बीवी को वापस अपने साथ रखना चाहे तो पहले उस औरत का निकाह किसी दूसरे मर्द से करवाया जाता है। एक रात गुजारने के बाद औरत का दूसरा शौहर उसे तलाक दे देता है और फिर वह औरत अपने पहले शौहर के साथ निकाह कर लेती है। इस पूरी प्रक्रिया को हलाला कहते हैं।
शरीयत कानून मुस्लिम पुरुष को चार विवाह की इजाजत देता है। शायरा बानो ने भारतीय संविधान में नागरिकों को दिए गए मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाए) और अनुच्छेद 21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार), अनुच्छेद 25 को आधार बनाते हुए कहा है कि भारतीय नागरिक होने के नाते मुस्लिम औरतों को भी ये अधिकार मिले हैं लेकिन उनके इन अधिकारों का लगातार हनन हो रहा है। मुस्लिम औरतें दुर्व्यवहार और लैंगिक गैरबराबरी का सामना कर रही हैं। लिहाजा गुजारिश है कि भारतीय उच्चतम न्यायालय इंसाफ करे और इस तरह की व्यवस्था को गैर कानूनी और असंवैधानिक घोषित करे। अंजाम क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा मगर शायरा बानो के इस कदम से मुस्लिम समुदाय के जिम्मेदार समझे जाने वाले लोगों के भीतर खलबली जरूर मच गई है।
शायरा की कहानी… उन्हीं की जुबानी
मेरा विवाह 2002 में इलाहाबाद में प्रापर्टी डीलिंग का काम करने वाले रिजवान से हुआ था। निकाह के वक्त मेरे अब्बू ने नकद, गहने और घर का सामान मिलाकर करीब चार- पांच लाख रुपये बतौर दहेज मेरे ससुराल वालों को दिया था। मेहर के नाम पर पंद्रह हजार रुपये की रकम तय की गई थी। कहने के लिए तो यह कहा जाता है कि मेहर की रकम दुल्हन की मर्जी से तय होती है लेकिन यह बस कहने वाली बात ही है। मेहर की रकम न मुझसे पूछी गई और न मेरे अब्बू से। बस निकाह के वक्त ही सुना दिया गया कि बतौर मेहर 15,000 रुपए तय हुए हैं। मैं अपने ससुराल पहुंची। लेकिन पहुंचते ही शिकायतें शुरू हो गर्इं कि मेरे घर वालों ने दहेज बहुत कम दिया है। मेरी सास के ताने बढ़ते ही गए। मैं ससुराल वालों को खुश रखने के लिए दिनभर काम करती। जवाब नहीं देती। मैंने एकाध बार मायके वालों से कहा तो उन्होंने भी समझाया कि अभी नया नया है धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। मगर जैसे जैसे महीने गुजरे मेरी सास के ताने भी बढ़ते गए। मेरे पति भी मुझे अक्सर ताने देते थे कि मुझे दहेज कम मिला है। मेरी तबियत भी खराब रहने लगी। दरअसल मेरी सास मेरे शौहर से भी ज्यादा खुश नहीं थीं। मां बेटे में भी नहीं पटती थी। एक दिन गुस्से में आकर मेरे शौहर ने मुझे साथ लेकर घर छोड़ दिया। हम इलाहाबाद में ही करेली नाम की जगह पर रहने लगे। कुछ महीने सब ठीक रहा। फिर पति मुझसे झगड़ने लगे। मार पीट रोजाना की बात हो गई। इस बीच 2004 तक मेरे दो बच्चे हो गए। एक बेटा और एक बेटी। मेरी तबियत और बिगड़ने लगी। मायके आने से पहले तक जबरन मेरा 6-7 बार एबार्शन करवाया गया। रिजवान घर में ही गोली लाकर जबरदस्ती मुझे खिला देते। मेरी सेहत दिनो दिन गिरती गई। मेरी शारीरिक हालत तो खराब हो ही रही थी मैं मानसिक रूप से भी अस्वस्थ रहने लगी। याददाश्त इतनी खराब हो गई कि एक घंटे पहले की बात भी मैं भूल जाती। काम करते करते मैं पता नहीं कहां खो जाती। रिजवान का डर इस कदर बढ़ता जा रहा था कि मैं उनके घर आने से पहले अल्लाह ताला से दुआ करती आज उनका मिजाज ठीक हो। मेरी खराब सेहत का ख्याल रखने के बजाय वह लगातार मुझे टार्चर करते। मेरी खराब याददाश्त को मेरी लापरवाही कहते और मुझे छोड़ने की धमकी लगातार देते।
10 अप्रैल 2015 को उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारे घर चलना है। मैं खुश हो गई। लेकिन मुरादाबाद जाकर उन्होंने मुझे और बच्चों को वहां छोड़ दिया। वहां मेरे अब्बू मौजूद थे। वह मुझे ले गए। उन्होंने रास्ते में ही अब्बू को फोन कर दिया था कि आकर मुझे ले जाएं। वहां पहुंचने के बाद शुरुआत में तो मेरी शौहर से फोन पर बात हुई। बाद में उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया। फोन पर भी वह मुझे झिड़कते रहते। बच्चों के स्कूल खुलने की वजह से मेरे अब्बू जुलाई में दोनों बच्चों को इलाहाबाद छोड़ने गए। उन्होंने उनसे पूछा कि वह कब आकर मुझे ले जाएंगे। अब्बू ने यह भी पूछा कि अगर उनके पास वक्त न हो तो वह खुद मुझे छोड़ जाएंगे। लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। अब्बू बच्चों को छोड़कर वापस आ गए।
निकाह के बाद पंद्रह सालों तक मुझे गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर किया गया। मैं चुप रही क्योंकि डर था कि अगर कुछ कहूंगी तो वह मुझे छोड़ देंगे। मायके वालों से अगर ज्यादा कुछ कहूंगी तो रिजवान फौरन तलाक दे देंगे। मैं डरती थी क्योंकि मुझे पता था कि बिना वजह बताए रिजवान कभी भी तलाक, तलाक, तलाक कहकर मुझसे संबंध तोड़ लेंगे।
मैं अपने आसपास ऐसे ही एक झटके में कई औरतों के रिश्ते टूटते देखे थे। मुझे लगने लगा था कि अल्लाह ताला को शायद यही कुबूल है कि मैं चुप रहकर सबकुछ सहूं। लेकिन अक्टूबर, 2015 को जब एक डाकिए ने दरवाजा खटखटाया और मेरे हाथों में एक लेटर थमाया तो दिल की धड़कन बढ़ गई क्योंकि यह लेटर रिजवान ने भेजा था। लेटर खोला तो वह तलाकनामा था। पंद्रह सालों तक मेरी चुप्पी भी इस रिश्ते को बचा नहीं पाई। शायद मैं हमेशा की तरह चुप ही रहती मगर मेरे भाई और अब्बू ने साहस बढ़ाया और इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
मैंने एम.ए. तक पढ़ाई की है। मगर इन पंद्रह सालों में लगने लगा था कि मैं गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं हूं। हर पल एक डर हावी रहता था कि रिजवान कहीं मुझे छोड़ न दें। अगर छोड़ दिया तो मैं कहां जाऊंगी, क्या करूंगी, जिंदगी कैसे कटेगी। लेकिन इस तलाक ने मुझे उस डर से आजाद कर दिया। अब मैं आजाद हूं अपने ऊपर हुए अत्याचार के कहानी सबको सुनाने के लिए। पंद्रह साल तक चुपचाप सहे गए जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिए। लेकिन अब मैं केवल खाना खर्चा या अपना दहेज वापस नहीं चाहती बल्कि मर्दवादी कानूनों में बदलाव चाहती हूं। मैं पूछती हूं कि निकाह में रजामंदी जरूरी है तो फिर तलाक में क्यों नहीं? मैं पूछती हूं कि तलाक भी शौहर दे और दोबारा उसे पाने की चाहत में हलाला जैसे शरीयत के कानून की दुहाई देकर उसे दूसरे मर्द से निकाह के लिए मजबूर कर औरत को बेइज्जत भी वही मर्द करे। दूसरा, तीसरा और चौथा विवाह कर औरत को उसके मामूली होने का एहसास कराए। मेरी गुजारिश है कि अब मुस्लिम औरतों को सम्मान के साथ जीने का हक मिले। उनके सिर से तलाक, तलाक, तलाक की तलवार हमेशा के लिए हटे ताकि वे डर में न जिएं। औरत को बराबरी मिले।
रिजवान ने भी तोड़ी चुप्पी
शायरा को तिहरा तलाक देने वाले रिजवान से जब इस मुद्दे पर बात की तो उन्होंने ऐसा दर्शाया जैसे पीड़ित शायरा नहीं बल्कि वह हैं। हालांकि जब उनसे पूछा कि लेटर के जरिए तलाकनामा भेजने की जगह वह खुद उनके मायके जाकर बात कर सकते थे या उनके लौटने का इंतजार कर सकते थे तो उन्होंने साफ कहा कि शरीयत उन्हें जुबानी तलाक की इजाजत देती है। वैसे भी तलाक के लिए औरत से मशविरा करना जरूरी नहीं है। शायरा खुद भी यही चाहती थीं तभी तो वह मेरे कई बार बुलाने पर भी वापस नहीं लौटीं। अब वह मुझे बदनाम करना चाहती हैं। जब उनसे पूछा गया कि शायरा का आरोप है कि आपने उनका छह-सात बार एबॉर्शन कराया है तो रिजवान ने कहा कि यह सरासर झूठ है।
‘मैं उन्हें तलाक देना कभी नहीं चाहता था। मैं तो उन्हीं की खातिर निकाह के छह महीने बाद अपने घर से अलग हो गया था। ताकि शायरा के साथ सुकून से रह सकूं। मगर शायरा बार बार मेरे ऊपर घर जमाई बनने का दबाव डालतीं थीं। वह सवाल उठाते हैं कि अगर शायरा को शुरू से ही तकलीफ थी तो फिर पंद्रह साल क्यों चुप रहीं। मैंने अप्रैल 2015 में उन्हें उनके घर भेजा था, बच्चों समेत। और एक महीने बाद ही मैं उन्हें बुलाने की कोशिश करने लगा। मगर शायरा आने को तैयार नहीं थीं। हद तो तब हो गई जब बच्चों को अचानक सात जुलाई को उनके अब्बू इलाहाबाद स्टेशन लेकर आ गए। मैंने उनसे पूछा कि शायरा कब आएंगी तो उन्होंने बस इतना कहा कि अल्ला हाफिज। मैंने फिर उन्हें फोन किया। मगर उन्होंने कहा कि अब वह नहीं आएंगी। उसके बाद तलाक देने क फैसला किया। जब उनसे पूछा गया कि शायरा की बिगड़ती तबियत के बारे में आपको पता था, तो उन्होंने कहा कि वह जानबूझकर अजीबो-गरीब व्यवहार करती थीं। न मेरी फिक्र न बच्चों की फिक्र। बच्चों को अचानक मेरे पास भेज देने का भी यही मतलब है। उन्होंने फिर कभी बच्चों की सुध नहीं ली। रिजवान ने कहा कि वह प्रापर्टी डीलर का काम नहीं करते बल्कि किसी प्रापर्टी डीलर के अंडर में पांच छह हजार रुपए प्रति माह वेतन पर काम करते हैं। उन्होंने दहेज मांगने के आरोप से भी साफ इनकार किया।
शायरा के वकील बालाजी श्रीनिवासन
बालाजी श्रीनिवासन ने बताया कि यह अपने आप में पहली ऐसी याचिका है जिसमें शरीयत के इन क्रूर कानूनों को चुनौती दी गई है। इसलिए हंगामा तो होना ही है। हमने याचिका में कुछ ठोस कानूनी मामलों का जिक्र किया है जिनसे साबित होता है कि तिहरा तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह किस तरह से मुस्लिम औरतों को गुलाम बनाए रखने के तरीके हैं। साथ ही इस तरह के मामलों में कुछ मिसाल बने फैसलों का भी जिक्र किया है जो शायरा के केस में मदगार साबित हो सकते हैं। कुछ ऐसे विशेषज्ञों की टिप्पणियों और चर्चित सर्वे को भी दर्ज किया है जो इशारा करते हैं कि इस तरह की प्रथाएं मुस्लिम औरतों पर एक तरह से हिंसा करने का जरिया हैं।
याचिका के कुछ मुख्य संदर्भ
-बहुविवाह एक ऐसी कुरीति है जो भारत में सिर्फ मुसलमानों के लिए कानूनन जायज है। दुर्भाग्य से इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी प्रथा को कानूनी मान्यता मिली हुई है, जिससे मुस्लिम महिलाओं को शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और भावनात्मक खतरा होता है। इमाम और मौलवी अपने पद का दुरुपयोग कर तलाक-ए-बिद्दत, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं को न सिर्फ समर्थन देते हैं बल्कि फैलाते भी हैं। ये प्रथाएं मुस्लिम महिलाओं की गुलाम जैसी स्थिति को दर्शाती हैं जो भारतीय संविधान में मूलाधिकारों के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन है।
-श्रीमति सरला मुद्गल बनाम केंद्र सरकार मामले में यह बात प्रकाश में आई कि ईसाइयों में दो विवाह को 1872 क्रिश्चयन मैरिज एक्ट के तहत दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था। पारसियों में पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट 1936 के तहत और हिंदू, बौद्ध, सिख व जैन धर्म में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के तहत इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया। लेकिन मुस्लिमों में इस कुप्रथा को खत्म नहीं किया गया। भारत में दूसरे धर्मों की महिलाओं के मूलाधिकार तो सुरक्षित किए गए मगर भारतीय मुस्लिम औरतें इस कुप्रथा को आज तक झेलने को मजबूर हैं।