बनवारी ।
अखिलेश यादव ने अपने परिवार के उत्तराधिकार की लड़ाई लगभग जीत ली है। लंबे समय तक मुलायम सिंह यादव के साथ रहे पार्टी के अधिकांश नेता भी उनके साथ हैं और परिवार के अधिकांश सदस्य भी। दुविधा में पड़े मुलायम सिंह अपने राजनीतिक अवसान की ओर हैं। यह लड़ाई अखिलेश यादव ने आरंभ नहीं की थी। यह लड़ाई उनके चाचा और उनकी सरकार के शक्तिशाली सदस्य शिवपाल सिंह यादव ने शुरू की थी। उन्होंने मुलायम सिंह को आड़ बनाकर सत्ता पलटने की कोशिश की। उन्होंने मुलायम सिंह को भरमाकर राज्य पार्टी का अध्यक्ष पद हस्तगत किया और फिर विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी के टिकट बांटते हुए अखिलेश यादव को किनारे करने की कोशिश की। अखिलेश यादव के पास पलटवार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। एक पुत्र की विनय के साथ उन्होंने मुलायम सिंह यादव को इस षड्यंत्र से अलग करने की कोशिश की। जब मुलायम सिंह अपने भ्रमों और दुविधाओं से मुक्त नहीं हो सके तो अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से मुक्त करते हुए पार्टी की पूरी सत्ता अपने हाथ में ले ली। पार्टी के भीतर और बाहर अपनी एक कार्यशील और लोकप्रिय मुख्यमंत्री की छवि के सहारे वे यह लड़ाई जीत गए हैं। पार्टी के लगभग 90 प्रतिशत विधायकों ने उनका साथ दिया है। इन विधायकों को लगता है कि वे मुलायम सिंह के नेतृत्व के सहारे चुनाव नहीं जीत सकते, अखिलेश के नेतृत्व के सहारे ही जीत सकते हैं। उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिए यह छोटी लड़ाई थी। बड़ी लड़ाई अभी बाकी है। अगले कुछ सप्ताह में यह निर्णय होना है कि चुनाव के बाद अखिलेश यादव फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं।
सत्ता के लिए परिवार में संघर्ष होना कोई नई बात नहीं है। इससे कहीं अधिक भीषण और हिंसक संघर्ष होते रहे हैं। समाजवादी पार्टी नाम से भले आधुनिक दिखती हो, अपने नेतृत्व और राजनीतिक शैली से वह भारतीय समाज की एक बहुजातीय पार्टी ही है। मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में एक ओर राम मनोहर लोहिया की वैचारिक और राजनीतिक विरासत पाने में सफल हुए थे और दूसरी ओर चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत पाने में। लेकिन इन दोनों धाराओं के अलावा वे उत्तर प्रदेश के यादवों के एक छत्र नेता भी बन गए। उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में यादव और फिर मुसलमान उनकी राजनीति की धुरी हो गए। राजतंत्र की तरह लोकतंत्र में भी स्थायित्व के नाम पर परिवार राजनीति की धुरी बनते रहे हैं। कांग्रेस का नेहरू-गांधी परिवार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जातीय राजनीति में तो परिवार सहज ही राजनीतिक धुरी हो जाता है। मुलायम सिंह यादव का परिवार ही नहीं, कुटुंब भी समाजवादी पार्टी की राजनीति की धुरी हो गया। मुलायम सिंह यादव की पहली पत्नी का देहांत हो जाने के बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया। वरीयता, रुचि और योग्यता के आधार पर अपनी पहली पत्नी के पुत्र अखिलेश यादव को उन्होंने 2012 में मुख्यमंत्री बनाकर उत्तराधिकार सौंपा। इससे भीतर ही भीतर कुछ तनाव उभरे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से अधिक सीटें जीतकर भारत का प्रधानमंत्री बनने की उनकी साध पूरी नहीं हुई। मुलायम सिंह यादव की छाया बने रहे उनके भाई शिवपाल सिंह यादव ने पारिवारिक तनावों और राजनीतिक कुंठाओं का लाभ उठाते हुए वे सब परिस्थितियां पैदा कीं जिनमें पार्टी पिछले कई सप्ताह से फंसी रही है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में अखिलेश यादव ने जो विनय और शिष्टाचार दिखाया है, वह राजनीतिक चतुराई नहीं था, वह भारतीय समाज का संस्कार था जो अपनी आधुनिक अभिरुचियों के बावजूद अखिलेश यादव ने खोया नहीं है।
पिछले कुछ सप्ताह छिड़े रहे पारिवारिक उत्तराधिकार के इस संघर्ष की पीठिका पुरानी है। इसकी भूमिका मुलायम सिंह यादव के इस अहसास से भी बनी थी कि अखिलेश यादव की राजनीतिक शैली उनकी अपनी राजनीतिक शैली से भिन्न दिशा में जा रही है। मुलायम सिंह यादव नीचे से संघर्ष करके ऊपर उठे थे। उनके व्यवहार में सामाजिकता रही है। उन्हें अपने समाज की समझ और उसकी कठिनाइयों की जानकारी थी। वे दूसरी बार मुख्यमंत्री बने थे तो अपनी सरकार के उन्होंने जो लक्ष्य घोषित किए थे, उनमें गांव के छोटे से छोटे व्यवसाय और किसानों की कठिनाइयों का अहसास था। लेकिन हमारे राज्य का तंत्र जिस प्रक्रिया से खड़ा हुआ है, उसमें समाज के दुर्बल वर्ग की कठिनाइयों का अहसास नहीं हो पाता। इसलिए किसान परिवारों से निकले नेताओं के राजनीतिक लक्ष्य भी राजकीय लक्ष्य नहीं बन पाते। मुलायम सिंह यादव को वैसे भी कभी पूरे पांच वर्ष शासन करने की सुविधा नहीं मिली। 2012 में जब पहली बार उनकी पार्टी अपने बलबूते सत्ता में पहुंची तो अपने बड़े पुत्र का राज्यारोहण करवाकर वे केंद्र की राजनीति में सफल होने की आकांक्षा पालने लगे थे। वे अपनी आयु के 72 वर्ष पार चुके थे। इस आयु तक आते-आते कोई भी नेता शक्तिशाली वर्गों और सत्ताकामी शक्तियों के घेरे में फंस जाता है। शिवपाल सिंह यादव को आगे करके ऐसे ही लोग मुलायम सिंह की दुविधा बन चुके थे। अखिलेश यादव ने इस बीच अपनी राजनीतिक शक्ति का एक नया आधार युवा वर्ग में खोज लिया था। इससे उनकी राजनीतिक शैली मुलायम सिंह की राजनीतिक शैली से अलग हो गई थी।
पिछले विधानसभा चुनाव की सफलता का श्रेय जितना मुलायम सिंह यादव को जाता है, उतना ही अखिलेश यादव द्वारा संगठित युवा शक्ति को जाता है। मायावती के चार वर्ष 307 दिन के दीर्घ शासन ने जिन वर्गों को असंतुष्ट किया, वे तो मुलायम सिंह यादव के वैकल्पिक नेतृत्व में संगठित हुए ही, इस बीच एक नया महत्वाकांक्षाओं से भरा युवा वर्ग राजनीति में आ गया था, जिसे सत्ता का सपना दिखाने में अखिलेश यादव सफल हुए। मुलायम सिंह यादव ने जब मुख्यमंत्री के पद पर अखिलेश यादव का अभिषेक किया तो उसका एक कारण यह भी था। मुलायम सिंह यादव जिस समय के समाजवादी संघर्ष की राजनीति की उपज थे, वह अब अतीत हो चुकी थी। अखिलेश के युवा सामाजिक न्याय का नहीं, भविष्य गढ़ने का मंसूबा लेकर राजनीति में आए हैं। अब उनके सपने में ही उनके परिवार, गांव और कस्बों के लोग अपने भविष्य की सुरक्षा देख रहे हैं। इसलिए अखिलेश यादव ने सामाजिकता के आधार पर बनी मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक शैली की जगह एक नई राजनीतिक शैली विकसित की। राज्य तंत्र के सहारे उन्होंने गांव स्तर तक सड़क-बिजली आदि सुविधाओं का विकास किया। युवाओं में कंप्यूटर बांटे। अखिलेश यादव की यह राजनीतिक शैली मुलायम सिंह यादव को प्रभावित नहीं कर पाई और वे सार्वजनिक मंचों से अखिलेश यादव को डांटते-फटकारते रहे, इससे परिवार और पार्टी के अखिलेश विरोधी नेताओं को बल मिला और एक राजनीतिक दुरभिसंधि पनपने लगी।
आज राजनीतिक मीमांसा के जो मुहावरे प्रचलित हो गए हैं, उनसे न हम अपनी राजनीति की गति-नियति को समझ सकते हैं और न समाज में होने वाले परिवर्तनों को। परिवार, जाति और क्षेत्र हमेशा राजनीति की धुरी रहे हैं। पश्चिम की दलीय राजनीति जिस तरह की व्यक्तिवादिता और विखंडन की ओर ले जाती है, उसकी प्रतिक्रियास्वरूप पश्चिम में भी परिवार, धर्म संप्रदाय और क्षेत्र राजनीति की धुरी बनते रहे हैं। फिर भी हम अपने यहां की राजनीति की गति-नियति को समझने के बजाय उसे परिवारवाद, जातिवाद या सांप्रदायिकता जैसे मुहावरों का उपयोग करते हुए तिरस्कृत करते रहते हैं। अपने यहां की अब तक की राजनीति की दिशा को समझने के लिए इस तरह की सरलीकृत टिप्पणियों से आगे देखने की आवश्यकता है। भारतीय समाज की स्वशासी इकाइयों पर आज का राजनीतिक तंत्र एक तरह का आरोपण है। इस तंत्र में और सामाजिक इकाइयों में राजनीतिक सत्ता के बंटवारे की लड़ाई चलती रहती है और उसी से हमारी राजनीति की दिशा अब तक बनती-बदलती रही है। इस संघर्ष को समझे बिना आप भारतीय राजनीति में होते रहे परिवर्तनों का ठीक से आकलन नहीं कर सकते।
उत्तर प्रदेश को आरंभ में गोविंद बल्लभ पंत और संपूर्णानंद जैसे मुख्यमंत्री मिले थे। उनकी गिनती राष्ट्रीय राजनीति के शिखर नेताओं के समकक्ष होती थी। 1967 तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चार मुख्यमंत्री हुए- पंत और संपूणार्नंद के अलावा चंद्रभानु गुप्त और सुचेता कृपलानी। चंद्रभानु गुप्त की छवि औरों से अलग थी और वे जोड़-तोड़ में माहिर समझे जाते थे। फिर भी ये सभी कांग्रेस की राजनीति के तपे-तपाए लोग थे। पर वे समाज के भद्र लोक से ही आए थे। इसलिए उत्तर प्रदेश के साधारण लोगों को उनमें अपनी छवि दिखाई नहीं दी और धीरे-धीरे प्रदेश के लोगों का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। कांग्रेस से उनके इस मोहभंग ने एक तरफ समाजवादी नेताओं और शक्तियों को उभरने का अवसर दिया, दूसरी तरफ किसानों के नेता के रूप में चरण सिंह का उदय हुआ। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संख्या बहुल जाट जाति के भी नेता थे। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में 3 अप्रैल 1967 को मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें दो पारियों में एक वर्ष 188 दिन ही मुख्यमंत्री रहने का अवसर मिला। लेकिन 1967 से उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ आ गया। अब तक के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले चरण सिंह को ग्राम समाज की अधिक गहरी समझ थी और वह राज्य की राजनीति में भी प्रतिफलित हुई।
उत्तर प्रदेश की राजनीति 1967 से 1977 तक उथल-पुथल से भरी रही। चरण सिंह के अपवाद को छोड़कर अधिकांश समय कांग्रेस का ही शासन रहा। पर इस पूरे दौर में एक बार भी कांगे्रस पांच वर्ष की स्थायी सरकार नहीं दे सकी। इस उथल-पुथल के दौर में दलीय राजनीति जनोन्मुखी हुई। इस पूरे दौर में दो ऐसे बड़े नेता शासन में पहुंचे, जिनका व्यापक जनसंपर्क था। एक तो चरण सिंह थे ही, दूसरे हेमवतीनंदन बहुगुणा थे, जो कांग्रेस में थे लेकिन उनका व्यापक जनसंपर्क था। कहा जाता है कि हेमवतीनंदन बहुगुणा एक बार जिसको देख लेते थे, भूलते नहीं थे। बाद में कांग्रेस के राज परिवार को उनमें एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नजर आने लगा और उन्हें किनारे करने की कोशिश शुरू हो गई। चरण सिंह और हेमवतीनंदन बहुगुणा अलग-अलग वर्ग से आए थे। दोनों का जनसंपर्क बड़ा था, पर दोनों ही स्वभाव से नागर थे। जाट होते हुए भी चरण सिंह जातीय तंत्र से अपने को अलग किए रहे। इस उथल-पुथल भरे दौर का पर्यावसान 1977 में जनता पार्टी की सरकार में हुआ। जनता पार्टी का शासन मुश्किल से पौने तीन वर्ष चला, उसके दो मुख्यमंत्री, राम नरेश यादव और बनारसी दास सत्तासीन हुए। इस अल्पजीवी दौर के बाद सत्ता फिर से कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई और 1989 तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकारें रहीं। इस दौर के सभी मुख्यमंत्री कांग्रेस की भीतरी लड़ाई की उपज थे। कमलापति त्रिपाठी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और नारायण दत्त तिवारी को इस दौर में मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। इन सबका क्षेत्रीय आधार था। वे कांग्रेस की नागर राजनीति की उपज थे और वही उनकी राजनीतिक सीमा भी थी।
इस पूरे दौर में जो सामाजिक शक्तियां मजबूत होती रहीं, उनकी राजनीतिक शक्ति की अभिव्यक्ति अगले दौर में हुई। 1989 से अब तक का दौर इन्हीं राजनीतिक शक्तियों द्वारा उभारे गए नेताओं का दौर रहा है। इस दौर के सूत्रधार मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह और मायावती रहे हैं। तीनों के बारे में यह कहा जाता है कि उन्हें तहसील तक के अपने नेताओं की पूरी जानकारी रही है। ये तीनों नेता राजनीति को गांव समाज के साधारण लोगों से जोड़ने में सफल रहे। इनमें सबसे अधिक लगभग सात वर्ष मायावती ने शासन किया, उनसे कुछ ही कम मुलायम सिंह यादव ने और लगभग साढ़े तीन वर्ष कल्याण सिंह ने। तीनों अलग-अलग राजनीतिक धाराओं से आए थे। लेकिन तीनों में ही उत्तर प्रदेश के सबसे साधारण लोगों ने अपना आत्मभाव देखा। तीनों के द्वारा अदलते-बदलते हुए राजनीतिक शक्ति समाज की विभिन्न इकाइयों तक फैलती रही। इस रूप में इस दौर को अब तक के सबसे राजनीतिक दौर के रूप में देखा जा सकता है। 17 वर्ष चले इस दौर का अब अवसान दिखाई देने लगा है। सत्ता में पहुंचकर तीनों ही नेताओं की कुछ कमजोरियां भी प्रकट हुर्इं। इन नेताओं में कल्याण सिंह उनकी पार्टी द्वारा ही किनारे कर दिए गए थे। मुलायम सिंह अपने बेटे से सत्ता की बाजी हारते दिखाई दे रहे हैं। मायावती अभी मैदान में हैं, वे अभी 60 वर्ष की हैं और उनका काफी राजनीतिक जीवन शेष है। लेकिन पिछले दिनों उनके बड़े सिपहसालार जिस तरह उनका साथ छोड़कर भागे हैं, उसने उनके व्यक्तित्व और राजनीतिक शैली की सीमाएं प्रकट कर दी हैं।
राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी से जो नया दौर आरंभ हुआ है, उसी की प्रतिछवि उत्तर प्रदेश में देखी जा सकती है। नरेंद्र मोदी की ही तरह अखिलेश यादव भी विकास को अपनी राजनीति का केंद्र बना रहे हैं। उत्तर प्रदेश के लोग इस नए दौर की कमान अखिलेश यादव को सौंपते हैं या भारतीय जनता पार्टी को, या फिर मायावती की पुरानी राजनीति ही इस प्रतिस्पर्धा में औरों को पछाड़कर आगे निकल जाएगी, यह अगले कुछ सप्ताह में स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह नया दौर जिस तरह कांग्रेसी शासन से विच्छेद के आधार पर प्रकट हुआ है, उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश के संघर्ष के बावजूद वह 1989 के बाद के दौर की निरंतरता में ही है। इस दौर को विच्छेदक साबित होने में अभी उसे समय लगेगा।