राकेश चंद्र श्रीवास्तव/यशोदा श्रीवास्तव
हिमालय की गोद में बसे नेपाल की प्राकृतिक व सांस्कृतिक विशिष्टता पूरी दुनिया के लिए मनमोहक है। मगर पिछले डेढ़ साल से ज्यादा समय से मधेसी आंदोलन से जूझ रहा नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा की ओर बढ़ रहा है। 14 मई को स्थानीय निकाय चुनाव कराने की प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल प्रचंड की घोषणा से राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है। संविधान संशोधन कर मधेसियों को बराबरी का हक देने के अपने वादे को पूरा न करने के कारण मधेसी दलों ने प्रचंड सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। संविधान संशोधन का मसला पीछे छोड़ स्थानीय निकाय चुनाव कराने की प्रचंड की घोषणा मधेसी दलों को मंजूर नहीं है। वे पहले संविधान में अपना हक चाहते हैं उसके बाद स्थानीय चुनाव। इस बारे में सरकार का तर्क है कि दो दशकों से ठप पड़े स्थानीय चुनाव को अब और रोका जाना संभव नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. बाबूराम भट्टाराई ने भी संविधान संशोधन के बगैर स्थानीय चुनाव को मधेसियों के साथ धोखा करार दिया है। वे कहते हैं कि सरकार संविधान संशोधन कर मधेसियों के हक को समाहित करे तो वे स्थानीय चुनाव का विरोध नहीं करेंगे। भट्टाराई ने गेंद प्रचंड के पाले में डाल कर मधेसियों के साथ होने की चाल चल दी है।
वहीं स्थानीय चुनाव का विरोध कर रहे मधेसियों के विरोध में एमाले ने मेची से महाकाली तक इसके पक्ष में अभियान चला रखा था। इस अभियान में पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली की सभा के दौरान सप्तरी में आमने सामने आए मधेसी कार्यकर्ताओं और एमाले कार्यकर्ताओं के बीच हुई हिंसक झड़प और उसके बाद पुलिस की फायरिंग में सात मधेसी कार्यकर्ता मारे गए। जबकि नेपालगंज कारकादौ में ओली की सभा के दौरान 14 मार्च को मधेसी मोर्चा की बाजारबंदी और विरोध प्रदर्शन के दौरान फायरिंग में दर्जनों लोग घायल हुए। यहां की सभा में ओली ने कहा, ‘संयुक्त लोकतांत्रिक मधेस मोर्चा राजनीति को अपराध की ओर मोड़ रहा है। मधेसियों ने संविधान जारी करने से रोकने का काम किया है और नेपालियों की एकता को खत्म किया है।’ इन घटनाओं के बाद फिलहाल एमाले ने अपने अभियान को स्थगित कर दिया है।
यही नहीं, 9 व 10 मार्च को इंडो-नेपाल बार्डर पर यूपी के लखीमपुर से सटे नोमेंस लैंड पर नेपालियों ने विवादित पुल के निर्माण के चलते भारतीय सीमा में घुसकर अपना झंडा गाड़ दिया। उनकी ओर से पथराव और गुलेल से हमला करने से एसएसबी के नौ जवान और 27 आम नागरिक घायल हो गए। इस दौरान एक नेपाली और एक भारतीय नागरिक की मौत हो गई जिसके बाद अघोषित कर्फ्यू लगने से तनाव बना रहा। नेपाली उपद्रवियों ने 11 मार्च की रात एसएसबी के एक चेकपोस्ट को भी जलाकर राख कर दिया। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा कि भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को नेपाली पीएम से बात कर भारत के पीएम की ओर से घटना पर दुख व्यक्त करने के साथ पूरे घटनाक्रम की जांच में सहयोग देने का वादा करना पड़ा। प्रचंड सरकार ने मारे गए युवक को शहीद का दर्जा देने के साथ दस लाख नेपाली रुपये की सरकारी इमदाद की घोषणा पहले ही कर दी है।
उधर, संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा ने प्रचंड सरकार से समर्थन वापस ले लिया। हालांकि इससे सरकार पर कोई संकट नहीं आया क्योंकि इस खतरे से पहले से वाकिफ प्रचंड ने राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (राप्रपा) को अपने पाले में मिला लिया था। इसकी एवज में राप्रपा के अध्यक्ष कमल थापा को उप प्रधानमंत्री पद से नवाजा गया और दो सांसदों को मंत्री बनाया गया है। इस तरह मधेसी मोर्चा के 39 सदस्यों का समर्थन गंवाकर उन्होंने राप्रपा के 37 सदस्यों का समर्थन हासिल कर लिया। मगर संविधान में संशोधन न होने और मधेसियों की मांगें पूरी न होने पर स्थानीय चुनाव कराना टेढ़ी खीर साबित होगा। स्थानीय चुनाव यदि मधेसियों की मांगें पूरी किए बगैर सरकार कराती है तो मधेसी बहुल 22 जिलों में व्यापक हिंसा से इनकार नहीं किया जा सकता है।
नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने तीन स्तरों पर होने वाले चुनाव यानी स्थानीय निकाय, राज्यों की विधानसभाओं व संसदीय चुनाव किसी भी सूरत में 21 जनवरी, 2018 तक करा लेने का आदेश दिया है। इसी दिन वर्तमान संसद का कार्यकाल भी पूरा हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दो बातें खासी जरूरी हैं। एक तो यह कि सारे चुनाव एक निश्चित क्रम में कराए जाने हैं। यानी पहले स्थानीय निकाय, फिर राज्यों की विधानसभाओं और अंत में संसदीय चुनाव। दूसरी यह कि राजनीतिक दलों को यह छूट नहीं होगी कि वे ज्यादा समय लेने के लिए आपसी सहमति से संसद का कार्यकाल बढ़ा सकें। राजनीतिक दल चुनाव प्रक्रिया इतनी तेजी से निपटाने के पक्ष में नहीं हैं लेकिन मुश्किल यह भी है कि यह सब समय पर नहीं हुआ तो संसद भंग हो जाएगी और नेपाल 2012 वाली स्थिति में लौट जाएगा। उस समय नए संविधान पर आम सहमति न बन पाने के कारण एक बड़ा संकट उत्पन्न हो गया था।
नेपाल में संविधान संशोधन कर मधेसियों को हक दिलाने की उनकी मांग स्व. सुशील कोइराला से लेकर प्रचंड सरकार तक में अनसुनी होती रही। इसे लेकर वे लगातार आंदोलन कर रहे हैं। भारत की सहमति से दूसरी बार प्रधानमंत्री बने प्रचंड से मधेसियों को बड़ी उम्मीद थी। प्रचंड को समर्थन देने के लिए मधेसी दलों और सरकार के बीच तीन सूत्री समझौता हुआ था जिसमें संविधान संशोधन कर उनको बराबर का हक देने का मामला प्रमुख था। प्रचंड ने भारत सरकार को भी ऐसा ही भरोसा दिया था। सत्ता संभालने के शुरुआती दिनों में तो सब ठीक ठाक चला। यहां तक कि संविधान संशोधन का प्रस्ताव संसद पटल तक भी पहुंचा लेकिन उसके बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया। एमाले संविधान संशोधन के खिलाफ शुरू से है। संविधान संशोधन पर मधेसियों के साथ अब तक कोई रास्ता नहीं निकला है। मधेसी पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार और विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी है। मधेसियों का आंदोलन फिर से तेज होता जा रहा है। मधेसी इलाके की 22 जिलों की सड़कें सूनी हैं। लोगों का आवागमन ठप है। जन जीवन प्रभावित है।
वर्ष 1997 के बाद से नेपाल में स्थानीय चुनाव नहीं हुए हैं। प्रधानमंत्री प्रचंड हर हाल में यह चुनाव करा लेना चाहते हैं ताकि उनकी पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी को अपनी ताकत का पता चल जाए। प्रचंड को सत्ता संभाले नौ महीने पूरे होने जा रहे हैं। इसके बाद वे गठबंधन के सहयोगी नेपाली कांग्रेस को सत्ता सौंप देंगे यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है। 82 सांसद होने के बावजूद प्रचंड प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हैं और 207 सांसदों वाली नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। पिछली सरकार ने राज्यों का सीमांकन जिस जल्दबाजी में किया था मधेसी मोर्चा को वह मंजूर नहीं है । 20 सितंबर, 2015 को नेपाल को सात प्रांतों में बांटा गया था। हालांकि सरकार ने संविधान संशोधन विधेयक पेश कर रखा है लेकिन नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) सहित नौ विपक्षी दलों के विरोध के नाते यह विधेयक पास नहीं हो सका है। संविधान संशोधन में प्रांत नंबर पांच का बंटवारा इस तरह होगा कि इसमें पहाड़ी जिलों को अलग किया जाएगा और मैदानी जिलों को जोड़ते हुए नवलपरासी से लेकर बर्दिया जिले तक एक प्रांत बनाया जाएगा। प्रचंड का मानना है कि इससे थारू लोगों की अलग राज्य की मांग पूरी हो सकेगी। प्रचंड ने संविधान संशोधन बिल का समर्थन करने के लिए केपी ओली और उनकी पार्टी से अपील की है। हालांकि उन्होंने साफ कर दिया है कि सरकार स्थानीय चुनाव को किसी भी हाल में स्थगित नहीं करेगी।
स्थानीय चुनाव को लेकर भारत का नजरिया अस्पष्ट है जबकि चीन ने इसका स्वागत किया है। पिछले दिनों नेपाली कांगे्रस के नेता शेर बहादुर देउबा के आवास पर पहुंचे चीनी राजदूत ने चुनाव के पक्ष में बयान जारी कर नेपाल के साथ होने का संकेत दिया है। एमाले के एक सांसद ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्थानीय चुनाव ही तय करेगा कि संविधान संशोधन जरूरी है या नहीं। इस चुनाव में यदि प्रचंड की पार्टी को कामयाबी मिल गई तो वे संविधान संशोधन का मुद्दा किनारे कर जनवरी 2018 में होने वाले आम चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटेंगे और यदि चुनाव में सफलता नहीं मिली तो संविधान संशोधन के बारे में फिर से विचार होगा।
पिछले 10 वर्षों से नेपाली संसद सिर्फ एक सदन के सहारे चल रही है। नेपाली संसद के ऊपरी सदन राष्ट्रीय सभा को 15 जनवरी, 2007 को भंग कर दिया गया था। 60 सदस्यीय राष्ट्रीय सभा के 35 सदस्य संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा के सदस्यों द्वारा चुने जाते थे। 10 सदस्यों के नाम की अनुशंसा तब नेपाल नरेश करते थे। बाकी 15 सदस्यों के नाम की अनुशंसा गांवपालिका, नगरपालिका प्रमुख और उपप्रमुख मतदान से करते थे। राष्ट्रीय सभा को संविधान संशोधन द्वारा फिर से बहाल किया जाना एजेंडे में है।
नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने चेताया है कि अगर राजनीतिक दल संविधान संशोधन विधेयक पर जारी गतिरोध को खत्म नहीं करेंगे और इस व्यवस्था को लागू करने के लिए जनवरी 2018 तक अगर चुनाव नहीं करवाए जाएंगे तो देश के समक्ष गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। मगर सिर्फ दो महीने में चुनावी तैयारी और स्थानीय निकाय चुनाव करा पाना आसान नहीं लगता, वह भी हड़ताल, प्रदर्शन और हिंसक माहौल में।