छत्तीसगढ़ में अभी से पानी का अकाल है। प्रदेश के 18 जिलों के 592 गांवों के पानी में फ्लोरोसिस और फ्लोराइड की अधिक मात्रा जीवन के लिए घातक है। 38 उद्योगों पर 12 करोड़ रुपये का जल कर बकाया है। बावजूद इसके, उन्हें पानी दिया जा रहा है, जबकि किसानों को खेतों के पानी के लिए जल आंदोलन करना पड़ रहा है। राजधानी रायपुर में भी दस करोड़ लीटर पानी कम उपलब्ध हो पा रहा है।
रमेश कुमार रिपु।
रायगढ़ जिले में मांड नदी के किनारे बसे गांव वालों के सामने अभी से पानी का अकाल है, जबकि गर्मी अभी शुरू ही हुई है। सूरज तपना शुरू हुआ है। पारा 44 डिग्री सेल्सियस ही छुआ है। मई में पारा 48-49 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है। जाहिर सी बात है कि ऐसे वक्त में डेढ़ किलोमीटर दूर बहते मांड नदी का स्रोत रहेगा भी नहीं, कोई नहीं जानता। यहां तारापुर के नजदीक पचेड़ा गांव के लोग भोर होने से पहले डेढ़ किलोमीटर दूर बहते जल के पास पहुंच जाते हैं। बालू हटाकर गड्ढा बनाते हैं, फिर उसमें जो पानी आता है उसे भरते हैं। पीने के पानी का इंतजाम करना गर्मी में बहुत कठिन हो जाता है। बच्चे और महिलाएं 800 मीटर तक सिर पर पानी से भरे बर्तन रख कर तपती रेत में चलते हैं। नदी के पानी से प्यास बुझाना इनकी विवशता है। 750 लोगों की आबादी वाले इस गांव में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं है। छह पंप हंै, जिनमें सिर्फ तीन चल रहे हैं। लेकिन इसकी धार भी पतली हो गई है। जाहिर सी बात है कि तीन हैंड पंप से पूरे गांव की प्यास और जरूरत पूरी नहीं होती। बुजुर्ग महिला रथिन बाई कहती हैं, ‘गांव में पानी की समस्या कोई नई नहीं है। यहां का 280 परिवार पूरे साल आस पास की झिरिया (गड्ढे जिसमें बरसाती पानी भरता है) के ही सहारे रहते हैं। नहाने धोने और पीने के लिए यही पानी है। पचेड़ा गांव में माझी पारा के लोग पिछले छह महीने से नदी पर ही निर्भर हैं। निस्तारी के अलावा पीने और खाना बनाने के लिए भी नदी का ही पानी इस्तेमाल कर रहे हैं।’ पीएचई के कार्यपालन यंत्री संजय सिंह कहते हैं, ‘नदी के किनारे वाटर रिचार्ज न होने से थोड़ी समस्या बनी हुई है। इन इलाकों की हम नियमित जांच कर रहे हैं। समस्या दूर करने की कोशिश जारी है।’ सच तो यह है कि सारंगढ़, बरमकेला, पुसौरा के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में पानी 170 से 190 फुट तक नीचे चला गया है। रायगढ़ जिले के दुलेपुर, ओरपुर, नंदेली, कलूकेला, रानीगुड़ा, धनसिया, धौराभांठा, कोशमपाली, सुलैनी, जतरी, पुसदा, शंकरपाली, कारीझोरा, कोतरा, ठाकुरपाली, कुमारपाली, कोशमंदा और उमरिया सहित 54 गांव प्रभावित हैं।’
पानी के लिए जल सत्याग्रह
आम धारणा है कि नदी के किनारे बसे गांवों में जलस्तर अधिक होता है। ऐसी जगहों पर कभी भी पानी की समस्या नहीं होती लेकिन भूजल विशेषज्ञों का कहना है कि जिन जगहों पर जमीन पानी नहीं सोखती, उन्हीं जगहों पर पानी का सतत बहाव रहता है। इसके नीचे चट्टान होती हैं जो पानी को भीतर जाने से रोकती हैं। ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं शहरी क्षेत्रों में भी पानी की समस्या है। निगम क्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्रों में भू जल स्तर 90 से 135 फुट तक नीचे उतर गया है। पानी की मारा मारी सिर्फ रायगढ़ जिले में ही नहीं बस्तर संभाग में भी है। यहां जलाशय की नहर में पानी न होने से किसानों ने रबी की फसल नहीं ली। बस्तर ब्लाक के कोलचूर और घाटकवाली टिकरालोहंगा, कविआसना, किजोलीपाली गांवों के बीच पहाड़ी पर सिंचाई की सुविधा देने के लिए जल संसाधन विभाग ने 90 लाख की लागत से डैम के साथ नहर बनवाई, लेकिन जल संकट की वजह से डैम का पानी नहर में नहीं छोड़ा गया। इस वजह से किसानों ने रबी की फसल नहीं ली। यही स्थिति बेमेतरा जिले की है। यहां के किसानों ने छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के नेतृत्व में शिवनाथ नदी में खड़े में होकर खेतों को पानी न मिलने पर जल सत्याग्रह किया। विधान सभा में प्रदेश के विभिन्न बांधों से सिंचाई के लिए सुरक्षित रखे पानी को उद्योगों को दिए जाने पर हंगामा हुआ। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल ने इसे किसानों के साथ छल बताया। वहीं जल संसाधन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने कहा कि 38 उद्योगों से सरकार को 11 करोड़ 52 लाख 25 हजार 311 रुपये लेने हैं। किसान सरकार की पहली प्राथमिकता है। पेयजल और सिंचाई के बाद बचे पानी को ही गैर जरूरी कार्यों के लिए दिया जा रहा है।
सिंचाई और पेयजल के लिए आंदोलन
नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंह देव का कहना है कि जितने भी बांध बन रहे हैं, उनके लिए जल नीति की व्यवस्था की जाए। सर्वे की रिपोर्ट है कि 30 साल बाद उद्योगों के लिए पानी नहीं रहेगा। अभी गर्मी आने वाली है, जब बांधों की पूर्ति नहीं होगी तो उद्योगों को पानी कहां से देंगे। 10 साल बाद भी नए जलाशय नहीं बने। यही वजह है कि प्रदेश के किसानों को सिंचाई और पेयजल के लिए आंदोलन करना पड़ता है। चौंकाने वाली बात है कि पावर प्लांट की बिजली गोवा जाती है बावजूद इसके उद्योग को पानी दिया जा रहा है। विधान सभा में विपक्ष की आपत्ति पर जलसंसाधन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल यही कहते रहे कि गैर जरूरी पानी उद्योगों को दिया जा रहा है। जरूरी समझा गया तो उद्योगों को पानी रोककर किसानों को दिया जाएगा। सरकार के लिए आम आदमी की प्यास से ज्यादा जरूरी उद्योंगो को पानी देना प्रमुख है।
भ्रष्टाचार पी गया पानी
दस साल पहले कोरबा जिले के करतला ब्लॉक के 13 गांवों के लिए शुद्ध पेयजल की एक योजना बनी। इसमें 75 फीसदी केंद्र सरकार और 25 फीसदी राज्य सरकार ने बजट जारी किया। बजट प्रारंभ में 10 करोड़ का था जो बढ़कर 15 करोड़ हो गया। 15 करोड़ खर्च भी हो गए लेकिन कौन सा गांव पानीदार हुआ, कोई भी अधिकारी नहीं बता रहा है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तीन हजार की आबादी वाले घिनारा गांव में छह में से तीन हैंडपंप खराब हैं। यानी एक हजार की आबादी के बीच एक हैंडपंप है। दस साल बीत जाने के बाद आज भी ‘पानीदार’ गांव बनाए जाने की तस्वीर में कोई सुधार नहीं हुआ। विधान सभा में मामला उठा। सदन में यह बात कही गई कि घटिया काम हुआ है। केवल फाइलों में ‘पानीदार’ गांव बने हैं। वित्तीय अधिकारों का तत्कालीन अफसरों ने पालन नहीं किया। एसके चंद्र, कार्यपालन अभियंता पीएचई कोरबा कहते हैं कि योजना की मंजूरी 2007-08 में मिली थी। करतला ब्लॉक के 13 गांवों में काम होना था। अधिकांश जगह काम नहीं हुआ। जहां हुआ वह भी गुणवत्ताहीन है।
बिन पानी के तालाब
अंबिकापुर में मनरेगा के तहत सौ करोड़ रुपये खर्च कर 2006 में एकीकृत सरगुजा में करीब दो हजार तालाब बनाए गए थे। आधे से अधिक फेल हो गए। तालाब ऐसे बनाए गए कि बारिश में भी नहीं भरे। अंबिकापुर से सात किलोमीटर दूर सूरजपुर जिले के ग्राम पंचायत अजिरमा के अशोकनगर का तालाब दो बार बनवाया गया। इस समय पानी की एक बूंद नहीं है। गांव के बच्चे अब यहां क्रिकेट खेलते हैं। जनपद सदस्य मोतीलाल सिंह कहते हैं, ‘पानी की व्यवस्था हो जाती तो सिंचाई के साथ निस्तारी में भी तालाब का पानी काम आता। तालाब को भरने के लिए बोर की भी व्यवस्था की गई लेकिन वह भी फेल हो गया।’
सूरजपुर और बलराम एक ही जिला है। यहां पांच सालों में करीब दो हजार तालाब खुदे लेकिन पानी एक चौथाई तालाबों में भी नहीं है। विभाजित सरगुजा जिले में छह सौ तालाब के लिए 35 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। मछली पालन के लिए पंचायत को तालाब सौंपने के लिए सर्वे से पता चला कि दो सौ से अधिक तालाबों में पानी नहीं है।
गहरीकरण के नाम पर करोड़ों खर्च
राजधानी रायपुर में तालाबोें के गहरीकरण और सौंदर्यीकरण की योजनाएं हर साल बनती हैं और पानी की तरह रुपये बहाए जाते हंै। बावजूद इसके तालाब घटते गए। इस समय रायपुर में 110 तालाब हैं। तीन साल से सरोवर धरोहर के तहत करीब 12 करोड़ रुपये फूंक गए लेकिन तालाब में पानी नहीं भरा। 2014 में नरैया तालाब के गहरीकरण और सौंदर्यीकरण में नगर निगम ने नौ करोड़ रुपये खर्च किए थे। एक बार फिर इसी तालाब के लिए निविदा आमंत्रित की गई है। तालाब की स्थिति को देखकर सवाल उठता है कि नौ करोड़ क्या सिर्फ लोहे की जाली में खर्च हुए हैं? तालाब अब भी गंदा है। बावजूद इसके लोग इसमें नहाते हैं। आयुक्त रजत बंसल कहते हैं, ‘खनिज मद की राशि से 32 तालाबों का गहरीकरण और सौंदर्यीकरण कराया जा रहा है। इस साल पांच तालाबों के लिए निविदा भी जारी की गई है। छठवां तालाब 3 लाख 99 हजार, लिमाही तालाब 8 लाख 12 हजार, हल्का तालाब 3 लाख 80 हजार, शीतला तालाब 3 लाख 99 हजार और करबला तालाब के लिए 18 लाख 18 हजार रुपये की निविदा जारी की गई है।’
18 जिलों के जल का ये हाल
पानी की विकट स्थिति का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि प्रदेश के 18 जिलों के 592 गांवों के पानी में फ्लोरोसिस और फ्लोराइड की मात्रा बहुत अधिक है। सबसे बुरी स्थिति रायपुर संभाग की है। रायपुर संभाग के 246 गांवों का पानी पीने योग्य नहीं है। इन गांवों का पानी लोगों की हड्डियां कमजोर कर रहा है। यह खुलासा राज्य स्वास्थ्य यांत्रिकी (पीएचई) विभाग ने किया है। प्रभावित गांवों में दंतरोग और हड्डियों से संबंधित मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। बस्तर और बीजापुर के 9-9 गांव, बिलासपुर 2, धमतरी 41, जशपुर 23, कांकेर 54, कवर्धा 01, कोरबा 84, कोरिया 4, महासमुंद 02, रायगढ़ 4, रायपुर 246, राजनांदगांव 2, सरगुजा 75, दुर्ग, 6, बालोद 28 और बेमेतरा के दो गांवों के पानी में फ्लोरोसिस और फ्लोराइड की मात्रा बहुत अधिक है। और गांवों का भी सर्वे करें तो संख्या बढ़ सकती है। प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार से दूषित पानी से होने वाली बीमारी पर नियंत्रण के लिए बजट मांगने की तैयारी की है।
लोग नाले का पानी पीने को विवश
कांकेर, भानुप्रतापपुर के ग्राम पंचायत बरहेली के आश्रित ग्राम कोड़ोखुर्री के ग्रामीण नाले के पानी से निस्तारी करने को मजबूर हैं। ग्रामीण पेयजल की व्यवस्था तो जैसे तैसे कर लेते हैं, निस्तारी के लिए नाले के गंदे पानी का उपयोग कर रहे हैं। गांव में कोई कार्यक्रम होता है तो ग्रामीण एक किलोमीटर दूर नाले से ट्रैक्टर में पानी लाते हैं। गांव की आबादी लगभग 300 है। यहां छह हैंडपंप हैं। गर्मी के चलते हैंडपंपों से पानी की धार पतली हो गई है। इसके चलते ग्रामीण इसका उपयोग केवल पेयजल के लिए करते हैं। गांव में दो तालाब हैं जो पूरी तरह से सूख चुके हैं। जुगरू कोंदल गांव के लोग खेत के किनारे गढ्डे कर लेते हैं। उसमें रात भर में रिस रिस कर जो पानी एकत्र होता है उसे पीने के काम में लाते हैं। इसी तरह कोंडरी नदी जो कि सूख गई है, उसे खोद कर जीने के लिए ग्रामीण पानी निकाल रहे हैं।
दो किलोमीटर बाद मिलता है पानी
बालोद जिले के वनक्षेत्रों के गांव नगझर, कोसमी, पोड़, कोचवाही, पेटेचुवा, नाहंदा, जंगलीभेजा, भैसमुंडी मंगचुवा, कपरमेटा, करियाटोला, गोटाटोला और नगबेलडीह वगैरह में हैंडपंप सूख गए हैं, जो अब तक सूखे नहीं लाल पानी या फिर मटमैला पानी उगल रहे हैं। हजारों लोगों के लिए यही पानी अमृत है। गोटाटोला के पुरुष दो किलोमीटर दूर कुएं और झरने तक जाकर निस्तारी कर रहे हैं। इसमें भी मई के बाद पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा। 270 की आबादी वाले गोटाटोला में 12 हैंडपंपों में आठ सूख गए। तालाब सूख गए हैं। कवर्धा जिले के बोड़ला ब्लॉक में चिल्फीघाटी से लगे सरोदादादर, मांदीभांटा, खितराही, बरहापानी, दुलदुला और माचापानी समेत करीब एक दर्जन गांव ऐसे हैं जहां लोगों को पानी लाने के लिए कम से कम दो किलोमीटर जाना पड़ रहा है। पहाड़ों पर बसे गांवों के लोगों खासकर महिलाओं को रोजाना एक-एक गुंडी पानी के लिए जान जोखिम में डालकर खाई तक जाना पड़ता है।
सूख गए तालाब
दुर्ग जिले के गांवों में पेयजल व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने एक साल में 14 करोड़ से भी अधिक खर्च कर दिए हैं, लेकिन स्थिति नियंत्रण में नहीं है। कई गांवों में नल जल योजना के तहत भी पानी नहीं मिल रहा है। पानी दो सौ फुट नीचे चला गया है। दुर्ग जिले के चंदखुरी, धनोरा, खम्हरिया, पुरई, हनोदा, पतोरा, अंडा, रिसामा, कोटनी, नगपुरा, मचांदुर, बोरई, रसमड़ा, खुरसुल, अंजोरा, मालूद, बेलौदी सहित जिले दर्जनों गांवों में पानी की समस्या बढ़ गई है। इन गांवों में निस्तारी के लिए तालाब का पानी सूख गया है। दुर्भाग्य की बात है कि प्रदेश के कई जिलों में भूजल का सर्वेक्षण करने के लिए पीजोमीटर नहीं है। इससे भूजल की स्थिति की सटीक जानकारी नहीं मिल पाती। बस्तर संभाग में एक भी पीजोमीटर नहीं लगा है। जाहिर सी बात है कि जल संपदा के दोहन के साथ ही जल संचय के संदर्भ में जनता और राज्य सरकार दोनों को सोचना होगा। अन्यथा आने वाले कुछ सालों में शुद्ध जल मिलना दूभर हो जाएगा और जल संकट भयावह रूप ले लेगा।