सत्यदेव त्रिपाठी।
कालिदास अकादमी, उज्जैन के निदेशक भाई आनन्द सिन्हा का जब बाणभट्ट-महोत्सव के अवसर पर ‘कादम्बरी में आधुनिक परिदृश्य’ पर बोलने का बुलावा आया, तो किशोरावस्था में पढ़ी अपनी पसन्दीदा और कालजयी तथा प्रथम गद्यकृति के रूप में युग-प्रवर्त्तक इस रचना को आज के सन्दर्भ में देखने-सोचने की समीक्षात्मक चुनौती के अलावा एक सामान्य सेमिनार से विलग कुछ और का कोई ख्याल न आया था।
लेकिन धीरे-धीरे यह आयोजन अपने स्थल की एक-एक परत खोलते हुए ‘उज्जैन’ से खिसककर ‘सीधी’ से होते हुए अंत में ‘भ्रमरसेन’ पहुंच गया, जो बाणभट्ट की जन्मस्थली है। वहां पहुंचने के लिए रींवा शहर से आनन्दजी व बन्धुवर संगम पाण्डेय के साथ जब विन्ध्याटवी के उन रास्तों से गुजरने लगे, तो आयोजन की रूटीन औपचारिकता धीरे-धीरे छीजनी शुरू हुई… और सोन (शोणभद्र) नदी के किनारे लगे उस शामियाने में पहुंचने तक तो हमेशा वाला सेमिनारिया अकैडेमिक माहौल एकदम तिरोहित ही हो चुका था। उसकी जगह साकार होने लगा था एक महान साहित्यकार के सम्मान में हो रहे किसी पावन-पर्व का परिदृश्य। और यह सब साज-सज्जा यानी साधन से नहीं, बल्कि रहिवासियों की सच्ची साधना के बल हो रहा था।
फिर तो तुष्ट होने लगी अरसे से मन में पलती वो तड़प, जो रूसी-अंग्रेजी आदि सर्जकों के लिए उनके देश में मिलते स्नेह-श्रेय को पढ़-पढ़ कर (कि आते-जाते आमजन भी उनकी मूर्त्तियों के समक्ष श्रद्धा से सर नवाकर ही आगे बढ़ते हैं…और जन्मदिन जैसे पावन अवसरों पर पूरे दिन ढेरों दर्शनार्थी प्रियतों के तांते लग जाते हैं आदि) सालती रही। क्योंकि ऐसे हर उल्लेख के वक़्त याद आने लगते अपने जन्म-स्थल (आजमगढ़) में गुमनाम अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध और ‘हरिऔध कला भवन’ की दुर्गतियां। फिर इधर आकर उपेक्षा की गर्त में पड़ते जाते ‘हल्दीघाटी’ व ‘जौहर’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता स्व. श्यामनारायण पाण्डेय और अपनी ‘कैफियतों में उलझे आजमी साहेब’। और अभी काशी में रहते हुए पांच छह सालों पहले प्रेमचन्द की रचनाओं के शिलालेखों से समृद्ध लमही चौराहे का क्रूर विस्थापन, शुक्ल संस्थान की सनातन उजाड़वाटिका और गन्दगी से भरी आचार्य की मूर्त्ति, बिल्कुल ही विस्मृत होते जाते जयशंकरजी प्रसाद और रस्मी तौर पर साल में एकाध दिन याद कर लिए जाते भारतेन्दु बाबू आदि-आदि।
ऐसे में इसी देश में स्थित विन्ध्याटवी में लगभग 1100 साल पहले हुए तथा आज के लिए प्राय: अजान भाषा (संस्कृत) के रचनाकार के प्रति ऐसी गहन निष्ठा और ऐसा उफनता अनुराग व अपनत्व! असम्भव न सही, पर निश्चय ही विरल रूप में अतीव सराहनीय तो अवश्य है। लेकिन इस सोने पर सुहागा जैसा मर्म यह कि मंच से बोलते हुए कयास हुआ कि वे स्थानीय आमलोग भी बाणभट्ट की रचनाओं से, कथामात्र ही सही, परिचित हैं- न कि अपने प्रदेश जैसा कि प्रेमचन्द का ही नाम न जानें, ‘गोदान’ की तो बात ही क्या! मंच के बाद की बातचीत में मेरे उस कयास की प्रत्यक्ष पुष्टि भी हुई- महिमा उस रचनाकार की या विन्ध्याटवी-वासियों की लगन की?
यह लगन यूं साकार हो रही है कि उस अंचल के विकास की तमाम योजनाएं बाणभट्ट के नाम से जोड़ दी गई हैं। गोया अंचल का विकास बाणभट्ट का अभिप्रेत रहा हो या बाणभट्ट के करते ही अंचल का विकास सुनिश्चित होने का विश्वास हो। सबका प्रतिफलन बाण-रचित साहित्य के आलोक में ही देखा जाता है। ‘शोण-बाण-बाणसागर’ के रूप में चल रही योजनाओं को ‘त्रि-आयामी मिलन’ कहा-माना जाता है, जिससे विन्ध्याटवी का बहुआयामी विकास सम्भव हुआ है। सरकारी योजना में नामित ‘डिम्बा डेम बांध’ को ‘बाण सागर बांध’ कर दिया गया। ‘बाणभट्ट समारोह’ एवं ‘सोन महोत्सव’ से बाण-शोण के माहात्म्य, शोणजल शुद्धीकरण आदि से सांस्कृतिक साहित्यिक लोकशैली का संरक्षण-संवर्धन होगा तथा पर्यटन के साथ पर्यावरण भी प्रदूषण-मुक्त होगा। इन योजनाओं से बाणभट्ट की कृतियों में चित्रित ‘शोण-बालुका जल की महत्ता पुन: स्थापित होगी’। ‘कादम्बरी’ की विन्ध्याटवी अपने आधुनिक स्वरूप में विन्ध्य की उसी हरीतिमा शस्य श्यामला स्वरूप को प्राप्त हो रही है। बाण सागर ने ‘कादम्बरी’ के नायक-नायिकाओं के मुख्य मिलन-स्थल अच्छोद सरोवर को चरितार्थ कर दिया है। इस भावमयता को देखते हुए पूरे राष्ट्र के सन्दर्भ में तुलसी के लोकमय असर को बाद कर दिया जाए, तो भारतीय किसान के सन्दर्भ में प्रेमचन्द ही शायद इस स्तर की ओर कुछ उन्मुख मिलेंगे। वरना किसी रचनाकार के साथ उसके समाज की ऐसी संसक्ति- वह भी 1100 सालों बाद, शायद ही दूसरी मिले। इस प्रांतर की भाषा बघेली के वरिष्ठ कवि अमाल बटरोही ने इसी को यूं बाणभट्टमय करके व्यक्त किया है-
विन्ध्याटवी वर्णन चारु रूपम्, शोणाम्बुपूरम् हृदयं गंभीरम्।
कादम्बरी प्रेमसुधा रसालम् वत्सं भजेहम् विभु बाणभट्टम्।।
वैसे तो आयोजन-स्थल पर नदी का मनोरम किनारा था, किंतु निचण्ट के उस पहाड़ी-पठारी भूतल में मार्च अंत की दोपहरी की तपन भी सुकर तो बिल्कुल न थी। लेकिन उस प्रांतर के जनसमूह की ‘अपने बाणभट्ट’ के प्रति समर्पण व अनुराग की लौ ही इस साहित्यिक अनुष्ठान को लोकोत्सव की गरिमा प्रदान कर रही थी और यही अनुपमेयता यह लिखवा भी रही है।
फिर तो धीरे-धीरे खुलता गया एक पूरा सम्भार….
असल में जन्मस्थली तो वहां से डेढ़ किलोमीटर पर सोन नदी के उस पार स्थित चन्दरेह नामक गांव में है, जिसका तब का नाम प्रीतिकूट था। लेकिन वहां की योजनाओं के जागरूक कार्यकर्त्ता व चिंतक श्री शेर बहादुर सिंह परमार ने बताया, ‘वृहत् आयोजन आदि के लिए वह जगह अपेक्षाकृत संकरी व कुछ असमतल है, जिसके कारण सरकार द्वारा विकसित करने की योजना (अतिथिशाला आदि) के रूप में ‘भ्रमर शैल’ (भंवरों वाला पर्वत) से बने नाम ‘भ्रमरसेन’ (जहां आज भी जगह-जगह भ्रमरों और मधुमक्खियों के छत्ते इस नाम को साकार करते पाए जाते हैं) को चुन लिया गया है, जो कागज में शिकारगंज गांव में आता है।’ लेकिन चन्दरेह व समीपवर्ती बागड (वाक् घर (सरस्वती) का अपभ्रंश) आदि गांवों को मिलाकर तीन चार किलोमीटर का यह पूरा क्षेत्र ही उस परम यायावर व कट्टर स्वाभिमानी बाणभट्ट की कर्मस्थली था, जो उस इलाके में ‘भ्रमरसेन’ नाम से ही जाना जाता है। भारतीय मनीषा में बाणभट्ट ही ऐसे विरल रचनाकार हुए, जिन्होंने राजा हर्षवर्धन के जीवन पर लिखी अपनी रचना ‘हर्षचरित’ में अपने समय का ऐसा वांच्छित उल्लेख किया है, जिसके आधार पर गणना करके 25 मार्च, 592 ईस्वी की इतनी निश्चित जन्म-तिथि निकाली जा सकी, वरना सभी प्राचीन रचनाकारों के जीवनवृत्त अटकलों व विवादों में घिरे हैं। अब पिछले 28 सालों से इसी दिन उनकी जयंती के अवसर पर किसी न किसी तरह का साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन होता है।
यह आयोजन-शृंखला ही आमजन की अभिरुचि व सक्रियता का कारक बनी या उनकी सक्रियता के कारण ही आयोजन व बाणभट्ट के नाम पर उस अंचल के बहुमुखी विकास की योजनाएं आन्दोलन के रूप में शुरू हुर्इं, पर निश्चित रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं, पर इतना तो उस अंचल में सर्वमान्य है कि इसके मूल पुरस्कर्त्ता हैं दर्शन राही के रूप में सरनाम श्री रामदर्शन मिश्र राही। उन्हीं के अनथक परिश्रम से यह सब चल रहा है। राहीजी को विन्ध्याटवी का आधुनिक बाण कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। बाणभट्ट के समस्त साहित्य को हस्तामलक करने के अलावा वे उन्हीं की नींद सोते-जागते हैं। ऐसा दूसरा उदाहरण किसी भी कवि के जीवंत मुरीद के रूप में त्रिकाल में शायद दुर्लभ हो। और अपने अंचल में इस तरह रमा-रचा भी शायद ही कोई उदाहरण मिले।
इस आयोजन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए राहीजी बाणभट्ट से सात-आठ सौ साल पहले इसी क्षेत्र के उज्जयिनी में हुए कविकुलगुरु कालिदास और बाणभट्ट से लगभग इतने ही सौ साल बाद हुए और विन्ध्याटवी के ही सीमांत चित्रकूट में बैठकर ‘रामचरित मानस’ लिखने वाले महाकवि तुलसीदास को जोड़कर विन्ध्याटवी की महिमा का जो भावुक बखान किया, वह तथ्य से कुछ परे होने के बावजूद सलाम तो कराता ही है। इस शृंखला का पहला आयोजन 1989 में हुआ और इतने विशाल स्तर पर इतना भव्य हुआ कि बस, किंवदंती ही बन गया है, जिसे सुनाते आज भी लोग न थकते, न अघाते। राहीजी के अध्यक्षीय वक्तव्य में उस पहले आयोजन का भी एक संक्षिप्त-सा उल्लेख हुआ, जिससे मुतासिर हुए बिना न रह सके हम। उन्होंने बताया कि देश के कोने-कोने से इतने विद्वान व गण्यमान्य लोग उसमें उपस्थित हुए थे कि ‘बाणभट्ट समारोह’ राष्ट्रीय स्तर पर सरनाम हो गया था। उसकी चर्चा मानव संसाधन एवं विकास के तत्कालीन मंत्री अर्जुन सिंह के समक्ष तमिलनाडु में हुई, जिससे वे भी पुलकित हुए बिना न रह सके।
असल में राहीजी के साक्ष्य पर ‘उस शुरुआत के कर्णधार ही रहे अर्जुन सिंह, लेकिन योजना का दुर्दैव ही था कि उसी दौरान वे उस बहुचर्चित विवाद में आ गए, वरना वह शुरुआत अपने प्राप्तव्य पर कब की पहुंच चुकी होती, जहां अब न जाने कब पहुंचेगी’। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि यह जिस मुकाम पर आज खड़ी है, उस पर अर्जुन सिंह जैसे किसी कर्णधार के सहारे पहुंच पाती भी, इसमें मुझे सन्देह है। तब शायद ज्यादा सफलकामी हो जाती, पर क्या ऐसी सार्थकता को पाती? तब सब कुछ इतनी आसानी से हो जाता कि जिस आमजन में आज जीते-जागते हैं बाणभट्ट, उसे इनका पता भी न होता। और सर्जक के रूप में बाणभट्ट एक सरकारी संस्थान बनकर रह जाते। उनकी स्मृति इस लोकमयता के लोकोत्तर सुख के लिए तरस जाती, जिसके लिए बच्चनजी ने क्या ही सुन्दर कहा है-
‘पांव मेरे नाचने को हैं नहीं तैयार
तब तक, जब तक
गीत अपना मैं नहीं सुनता किसी
गंगो-जमुन की तीर फिरते बावले से’।
यहीं यह भी कह दूं कि उस क्षेत्र के सम्मान्य विधायक श्री केदारनाथ शुक्ल विशिष्ट अतिथि के रूप में हमारे बीच मंच पर उपस्थित रहे, पर उनका होना किसी राजनीतिक हस्ती के रूप में न होकर एक वरिष्ठ, सुशिक्षित, बाणभट्ट-साहित्य के अध्येता व संस्कृतिचेता नागरिक के रूप की छाप छोड़ता रहा। उन्होंने उस अंचल के विकास के लिए बाणभट्ट के नाम से जुड़ी सारी परियोजनाओं के लिए पूर्ण प्रयत्न की सहर्ष हामी यूं भरी कि वहां मौजूद समुदाय आश्वस्त भी हुआ। लेकिन शुक्लजी के प्रति यथोचित सम्मान के साथ मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि यह पूरी मुहिम यदि राजनीति व प्रशासन के बल परिचालित हो गई होती, तो ये बल कुछ और भी होते। इस लोकशक्ति को पुन: सलाम। अत: भले यह समारोह हर साल न हो पाया, या उतने बडेÞ पैमाने पर न हो सका, परंतु आज यह जहां खड़ा है, वही इसकी व मनस्वी बाणभट्ट की गरिमा के अनुकूल है।
इस बार पहली बार ऐसा हुआ है कि ‘कालिदास अकादमी’ जैसे प्रतिष्ठित संस्थान ने इस आयोजन में यथेष्ट योगदान किया है। इस तरह हिरण्यवाह महोत्सव, रींवा एवं प्राणालोक संस्था, धनेसर (सीधी) को मिलाकर तीन आयोजकों ने अंजाम दिया इस समारोह को। अकादमी के आलोक रस्तोगी के संचालन में सामूहिक लोक-वन्दना व रोशन मिश्र के नेत्तृत्व में इन्द्रावती नाट्य समिति के कलाकारों ने सजे परिधानों में क्या ही खूबसूरत गणेश-वन्दना प्रस्तुत की। इसके बाद बीज वक्तव्य के रूप में अपना प्रपत्र प्रस्तुत किया मोहनलाल सुखाडिया विवि के संस्कृत विभाग की पूर्व अध्यक्ष प्रो. हेमलता बोलिया ने। डॉ. बोलिया ने बाणभट्ट-साहित्य पर पीएच.डी. के दो शोध-कार्य भी कराए हैं। ‘कादम्बरी में लोकतत्त्व’ विषय पर उन्होंने ‘कादम्बरी’ में जनसामान्य की उपस्थिति के प्रसंगों को रेखांकित करते हुए कृति में आए लोक-व्यवहार व रीति-नीति आदि को सामने रखा। यदि दर्शक समुदाय को देखते हुए बोलियाजी ने शब्दों की व्युत्पत्ति आदि तकनीकी पक्षों पर जाने वाली संस्कृत-कक्षा की मर्यादा को रोक लिया होता और संस्कृत के रसिक विद्वानों की तरह बारम्बार शृंगार व उसके शास्त्र सिद्ध प्रसाधनी तामझाम से बचकर व्यावहारिक हो जातीं, तो बात ज्यादा बनती।
श्री संगम पाण्डेय ने अच्छा किया कि बाणभट्ट के जीवन व कार्य पक्ष को उठाया, जो कुछ बहुत कही-सुनी बातों के बावजूद उनकी अपनी शैली में रोचक व सूचनापरक भी हो सकीं। ‘कादम्बरी में आधुनिक परिदृश्य’ पर अपनी बात रखते हुए मैंने तीन-तीन जन्मों तक चलते एकनिष्ठ प्रेम की मूल कथा के जरिये बताया कि जब सब के सब सीरियल पति-पत्नी के पर-प्रेम से भरे हैं और किसी संबन्ध का हर स्थायित्त्व खतरे में है, तो महाश्वेता-पुण्डरीक व चन्द्रापीड-कादम्बरी की अटूटता ही इस भयावह ह्रास का तोड़ हो सकती है। इनका प्रेम शरीर का इच्छुक है, पर उसे न पाने पर भी जन्म-जन्म तक टिका रहता है। अस्तु प्रेम में काम की अनिवार्यता और उसकी निवार्यता की समझ देती है ‘कादम्बरी’, जिसके बिना आज सरेआम बलात्कार व बदफेली आम होते जा रहे हैं। सातवीं शताब्दी में दोनों नायकों की मृत्यु के बाद नायिकाओं को सती होने से रोकने की सोद्देश्य योजना व सोदाहरण व्याख्या भी बाणभट्ट की भविष्य-दृष्टि का अनूठा परिचायक है।
इस आयोजन का दूसरा भाग दूसरे दिन यानी 26 मार्च को सीधी में हुआ, जिसमें विवेचन-विश्लेषण आदि न होकर एकदम प्रदर्शन पर आधारित रहा। लोकगीत-संगीत की प्रस्तुतियां हुर्इं और भास-लिखित नाटक ‘कर्ण्भारम्’ का मंचन भी हुआ, जिसका निर्देशन मशहूर रंगकर्मी पणिकर के पटु शिष्य नीरज कुन्देर ने किया है।
पहले दिन की संगोष्ठी में बाणभट्ट की एक आदमकद मूर्त्ति को प्रतिष्ठित किए जाने का प्रस्ताव भी आया, जिसका जिम्मा ‘कालिदास अकादमी’ की तरफ से निदेशक आनन्द सिन्हा ने यह कहते हुए सहर्ष लिया कि यह अकादमी की योजनाओं का हिस्सा है, अस्तु अवश्य हो सकेगा। इस मंजूरी का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से हुआ। बाणभट्ट अध्ययन-शोध संस्थान का प्रस्ताव भी लम्बित है, जिसकी ताईद के लिए विधायक श्री शुक्ल ने भी खुली ‘हां’ की। लोगों की मंशा है कि बाणभट्ट के मूल गांव चन्दरेह को ‘हेरिटेज विलेज’ का रूप दिया जा सके, जिसके तहत जाता-जुआ, हल-मूसल जैसी वस्तुओं के साथ भाषिक व लोकगीत-नृत्य तथा जन्म-मरण, शादी-ब्याह जैसी सांस्कृतिक स्थानीय विरासतों को संजोया जा सके। वरना तेजी से बदलते इस समय में बहुत-बहुत मूल्यवान वह सब कुछ लुप्त हो जाएगा, जिसने विन्ध्याटवी को विन्ध्याटवी बनाया और बाणभट्ट को बाणभट्ट बनाने में भी जिसकी भूमिका निर्णायक रही। असल में यह आवश्यकता तो आज पूरे देश के हर अंचल की है। जो कुछ भारतीय है, हमारी विरासत है, भारतीयता की पहचान है, सब खोती जा रही है। बाणभट्ट की सृजनशीलता की ताकत है कि उस अंचल में उनके निमित्त यह मांग उठी है, जो अन्य प्रयत्नों के साकार होने की कड़ी में सम्भवत: पूरी भी होगी और बाकियों का क्या होगा, का प्रश्न भी खड़ा करने के रूप में भी अपना योगदान देती रहेगी।
और अब पुरा काल के एक कवि के इन सब अवदानों से अभिभूत मैं विन्ध्याटवी के ही कवि रामलखन शर्मा लिखित ‘विन्ध्याटवी के बाण’ नामक खण्ड काव्य की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात पूरी करने की आज्ञा चाहता हूं-
धन्य विन्ध्य की यह धरा
विन्ध्य अटवि है धन्य,
जहां यशस्वी बाण-सा
उपजा पूत अनन्य।