सुनील वर्मा
देश में चल रही मोदी लहर के बीच हुए दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) चुनाव में पहली बार दिल्लीवासियों ने किसी एक दल को लगातार तीसरी बार सत्ता सौंपी है। भाजपा ने 270 सीटों में से 181 सीटों पर जीत दर्ज की है जबकि दिल्ली सरकार पर काबिज आम आदमी पार्टी (आप) 48 सीटें हासिल कर दूसरे नंबर पर रही। वहीं पिछले नगर निगम चुनाव में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस खिसक कर तीसरे नंबर पर पहुंच गई और उसे महज 30 सीटें मिलीं। अन्य को महज 11 सीटें हासिल हो पार्इं।
दो साल पहले प्रचंड बहुमत से दिल्ली में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी ने पहली बार एमसीडी की सभी सीटों पर सबसे पहले उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ा था। मगर चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि ‘आप’ का वजूद संकट में है। हालांकि, आप को इस तरह का झटका लगने की उम्मीद पहले से ही जताई जा रही थी। एक महीने पहले ही राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव में भी आप को अपनी सीट गंवानी पड़ी थी। दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी को लग रहे इन झटकों को अरविंद केजरीवाल सरकार के प्रति लोगों के गुस्से के तौर पर देखा जा रहा है। चुनाव नतीजे आने के बाद आप की ओर से जिस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद थी पार्टी नेताओं ने वैसा ही किया। पार्टी ने अपने खराब प्रदर्शन का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ दिया। गोपाल राय और आशुतोष जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने ईवीएम को हार की वजह बताई और सड़क पर संघर्ष के संकेत दिए। वैसे हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आप के दिल्ली प्रभारी दिलीप पांडे व अलका लांबा ने इस्तीफा दे दिया है।
एमसीडी में भाजपा की प्रचंड जीत ने अगले विधानसभा चुनाव में दिल्ली से कांग्रेस की विदाई लगभग तय कर दी है। ऐसा लगता है कि गुटों में बंटी कांग्रेस खुद को फिर से खड़ा करने का माद्दा खो चुकी है। तीनों निगमों पर कब्जा जमाने का दावा करने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने पहले से भी ज्यादा खराब प्रदर्शन के चलते अपने पद से इस्तीफा जरूर दे दिया है लेकिन कांग्रेस आलाकमान पर ये सवाल जस का तस बन हुआ है कि चुनाव से पहले ही जब एक के बाद एक माकन पर पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करने से लेकर टिकट बेचने तक के आरोप लग रहे थे तो इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया गया।
एमसीडी चुनाव से दिल्ली में पांव जमाने का सपना पाले बैठी योगेंद्र यादव की पार्टी स्वराज इंडिया और दूसरे क्षेत्रीय दलों के सपने भी नतीजों से चकनाचूर हो गए। बसपा, सपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व अन्य दलों ने चुनाव में सिर्फ वोट कटवा की भूमिका निभाई।
मोदी लहर में गुम हुई सत्ता विरोधी लहर
एमसीडी चुनाव के नतीजे आने के बाद भाजपा के स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय नेता इसे केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति की जीत बता रहे हैं। इस कथन में काफी हद तक सच्चाई भी है क्योंकि एमसीडी का पूरा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ा गया। भाजपा नेता चाहे जो दावा करें लेकिन दिल्ली की जनता से बातचीत में यही पता चला कि भाजपा ने अपने सभी निगम पार्षदों का टिकट केवल इसलिए काटा क्योंकि वे निगम चलाने में नाकारा साबित हुए थे। ज्यादातर पार्षदों पर भ्रष्टाचार और अपने क्षेत्र की उपेक्षा करने के आरोप थे। टिकट काटने को पार्टी की रणनीति और नए लोगों को मौका देने का लबादा पहनाया गया। जिन पार्षदों के खिलाफ जनता में आक्र्रोश था, बदले हुए चेहरों के बीच लोग नाराजगी को भूल गए।
भाजपा की इस जीत के पीछे दो ऐसी वजह भी रही जिनके चलते भाजपा के खिलाफ दस साल में बना सत्ता विरोधी माहौल आक्रोश में तब्दील नहीं हो सका। पहला ये कि नेतृत्वविहीन और गुटों में बंटी कांग्रेस लोगों के दिलों से अपने अतीत के भ्रष्टाचार की स्याही को साफ नहीं कर सकी। दूसरा,दिल्ली में दो साल पहले प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाले अरविंद केजरीवाल की छवि एक झूठे और छलिया नेता की बन गई। इसके चलते अधिकांश दिल्लीवासियों ने हाउस टैक्स माफ करने के उनके चुनावी वादे पर भरोसा नहीं किया। लोगों का मानना रहा कि केजरीवाल ऐसे नेता हैं जो सरकार चलाने से ज्यादा झूठे वादे करने, केंद्र सरकार से लड़ने और खुद को मोदी की मुखालफत करने वाला नेता स्थापित करने में ज्यादा विश्वास करते हैं। यही कारण रहा कि दिल्लीवासियों के पास एक मात्र विकल्प के रूप में भाजपा ही थी। भाजपा भी दिल्ली के लोगों को यह बात समझाने में कामयाब रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीन साल के कार्यकाल में कोई बड़ा घोटाला या भ्रष्टाचार सामने नहीं आया है। साथ ही केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद देश में सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक बदलाव आया है जिसे चुनाव प्रचार के दौरान प्रचारित भी किया गया।
पार्टी लोगों को यह भी यकीन दिलाने में कामयाब रही कि केंद्र के साथ अगर एमसीडी में भी भाजपा राज कायम रहा तो विकास की रफ्तार में कोई रोड़ा नहीं आएगा। केंद्र से केजरीवाल के टकराव के चलते दिल्लीवासियों को इस बात की आशंका भी सता रही थी कि एमसीडी में अगर ‘आप’ की जीत हुई तो दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच विवाद और बढेंगे। इससे एमसीडी का हाल और बुरा होगा। भाजपा की दिल्ली इकाई के एक नेता का कहना है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले से ही भाजपा नेतृत्व नगर निगम चुनाव के मुकाबले में बने रहने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहा था। उस समय यह मान लिया गया था कि अगर आप पंजाब विधानसभा चुनाव जीत लेगी तो उसे निगम में जीतने से कोई रोक नहीं पाएगा। लेकिन पांच राज्यों के परिणाम आने के बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने जिस सूझबूझ से रणनीति बनाई वह उनकी सांगठनिक क्षमताओं को बताती है। सत्ता विरोधी डर से आशंकित पार्टी के रणनीतिकारों ने लोगों से कार्यकर्ताओं को जोड़ने के लिए एक बूथ पर पांच कार्यकर्ता यानी पंच परमेश्वर तैयार किए। इससे करीब 16 हजार बूथों पर 80 हजार से ज्यादा कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई। इसका नतीजा यह रहा कि भाजपा ने मोदी के बेदाग चेहरे और अमित शाह की रणनीति के कौशल से एमसीडी में हैट्रिक लगा दी।
हाशिये पर क्यों पहुंची कांग्रेस
एक वक्त था जब शीला दीक्षित दिल्ली में कांग्रेस के विकास का चेहरा हुआ करती थीं। यह उनका जादू ही था कि डेढ़ दशक तक उन्होंने दिल्ली की कमान संभाली। यहां तक कि हाल के यूपी चुनाव में भी पार्टी की ओर से शुरुआत में उन्हें ही चेहरा बनाया गया लेकिन एमसीडी चुनाव में उन्हें पूरी तरह बेगाना कर दिया गया। प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन के शीला विरोध का ही नतीजा रहा कि दिल्ली के स्टार प्रचारकों में भी इस बार शीला दीक्षित को जगह नहीं मिली। उनके ज्यादातर समर्थकों के टिकट काट दिए गए। यही वजह रही कि अरविंदर सिंह लवली, अमित मलिक, अमरीश गौतम जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए। मतदान से ठीक एक दिन पहले दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष रहीं बरखा सिंह ने भी भगवा चोला ओढ़ कर माकन से लेकर राहुल गांधी तक पर आरोपों की झड़ी लगा दी। इनके अलावा संदीप दीक्षित, एके वालिया, परवेज हाशमी और हारून यूसुफ जैसे पार्टी के बड़े नेताओं ने उपेक्षा के कारण चुनाव प्र्रचार से ज्यादा घर बैठने में ही भलाई समझी।
दिल्ली की सत्ता से दूर हो चुकी कांग्रेस और माकन ने चुनाव के दौरान सिर्फ दो काम किए। पहला, दिल्ली सरकार की नाकामयाबी गिनाकर ‘आप’ पर निशाना साधा। दूसरा, दस साल तक एमसीडी पर काबिज रही भाजपा पर नाकारापन और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। लेकिन वे कभी भी दिल्लीवासियों को ये बताने में कामयाब नहीं हुए कि दिल्ली में कांग्रेस के पंद्रह साल के शासन में विकास की जो हवा चली थी उसी के कारण दिल्ली का चेहरा-मोहरा बदला है। उन्होंने कभी भी जनता के दिमाग से कांग्रेसी भ्रष्टाचार की उस छवि को धोने की कोशिश नहीं कि जिसके चलते केंद्र से लेकर दिल्ली तक में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था। दरअसल, माकन के ऐसा न करने की एक वजह ये भी रही कि वे कभी नहीं चाहते थे कि शीला दीक्षित या उनके सर्मथक नेता दिल्ली की राजनीति पर फिर से काबिज हों। शीला गुट की नाराजगी भी पार्टी की हार की एक बड़ी वजह बनी।
दरअसल, माकन ने पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी कर एक तरह से पार्टी पर कब्जा जमा लिया था। हालांकि तमाम आरोपों के बावजूद माकन बार बार यही कहते रहे कि वो पार्टी में सबको साथ लेकर चल रहे हैं। मगर विडंबना यह है कि युवा बनने की कोशिश में कांग्रेस अपनी खोई जमीन हासिल करने के लिए अपनी उन इमारतों को खंडहर समझ रही है जो कभी उसकी पहचान थे। एमसीडी के चुनावी दंगल के बीच जब माकन के खिलाफ कांग्रेसियों ने पार्टी मुख्यालय पर नारेबाजी की और राहुल गांधी तक से टिकट बेचे जाने की माकन की शिकायत की तो कांग्रेस आलाकमान की चुप्पी हैरान कर देने वाली थी। मगर प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय से जुडेÞ एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर इस सवाल का जवाब कुछ इस तरह दिया, ‘आर्थिक संकट में आ चुकी पार्टी को माकन ने अपने स्रोत से फंड जुटाने और जीत दिलाने का भरोसा दिलाया था। इसी कारण उन्हें पूरी आजादी से फैसले लेने की छूट मिली थी। इसके अलावा लगातार हार झेल रही पार्टी एमसीडी चुनाव में राहुल के चेहरे पर दांव लगाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाई। माकन को आगे करने की यही वजह रही।’
पार्टी नेता कुछ भी कहें लेकिन माकन भी ये जानते थे कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन अगर जीत उनके हिस्से में आती तो वो दिल्ली में कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का बन जाते। कांग्रेस पंजाब में मिली जीत से भी मुगालते में रही। पार्टी के रणनीतिकारों को भरोसा था कि दिल्ली में ‘आप’ के घटते जनाधार के कारण कांग्रेस का परंपरागत वोट लौट रहा है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उलटे बची खुची जमीन भी गंवा बैठी।
अब आगे क्या
एमसीडी के नतीजों से ये भी साफ हो गया है कि आप से लोगों का भरोसा टूट रहा है। उनके अपने लगातार साथ छोड़ रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभी तीन साल का वक्त है। अगले चुनाव में भाजपा का लक्ष्य होगा कि 20 साल से दिल्ली की सत्ता से बाहर रही पार्टी की फिर से वापसी हो। अमित शाह ने ये संकेत भी दिए हैं। हालांकि चर्चा इस बात की भी है कि आप के 25-30 नाराज विधायक पार्टी से बगावत कर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। ऐसे में भाजपा इन विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती है। वैसे भी ‘आप’ के 21 विधायकों के खिलाफ लाभ के दोहरे पद पर नियुक्ति की गाज कभी भी गिर सकती है। संभवत: अगले कुछ दिनों में चुनाव आयोग की तरफ से इन विधायकों की सदस्यता खत्म करने का फरमान सुना दिया जाए। ऐसा हुआ तो भी आप सरकार संकट में आ सकती है। राजनीतिक जानकारों का भी मानना है कि दिल्ली में जल्द चुनाव हुए तो भाजपा भारी बहुमत से सत्ता में आ सकती है। एमसीडी चुनाव के बाद प्रदेश भाजपा में सांगठनिक फेरबदल की उम्मीद भी बढ़ गई है। अगर पार्टी अभी से चुनाव की तैयारियों में जुटती है तो उम्मीद है कि किसी नेता को दिल्ली की कमान संभालने के लिए आगे किया जाए। ‘आप’ में टूट के साथ कुमार विश्वास और भगवंत मान जैसे नेताआें के बागी सुर अभी से सुनाई पड़ रहे हैं जो केजरीवाल की कार्यशैली पर सवाल उठा रहे हैं। कांग्रेस के सामने खुद को फिर से खड़ा करने और चमत्कारिक छवि का नेता ढूंढने की चुनौती है जो शायद निकट भविष्य में संभव नहीं है।