बनवारी।
पांच जनवरी 2017 को चुनाव आयोग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक पत्र लिखा। इस पत्र में कांग्रेस से कहा गया था कि वह 30 जून 2017 तक अपने संगठनात्मक चुनाव करवा ले। काफी दिन से कांग्रेस के संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए। उसका संगठन फौरी तौर पर ही चल रहा है। अब चुनाव आयोग ने चेतावनी दी है कि संगठनात्मक चुनाव के लिए उसे और मोहलत नहीं मिलेगी। 15 जुलाई 2017 तक संगठन के नए पदाधिकारियों के नाम चुनाव आयोग के पास पहुंच जाने चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए नेहरू-फिरोज गांधी परिवार के समर्थकों ने यह कहना आरंभ कर दिया है कि राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाकर पार्टी की कमान पूरी तरह सौंप दी जानी चाहिए। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की विशाल जीत ने देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के सामने संकट पैदा कर दिया है। यह संकट आदित्य नाथ योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद और गहरा हो गया है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आधार पर जीता था। आदित्य नाथ योगी की लोकप्रियता ने उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भाजपा की पकड़ और मजबूत कर दी है। नेहरू-फिरोज गांधी परिवार को अब तक अपने चुनाव क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली का काफी भरोसा रहा है। लेकिन इधर कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक जो भगदड़ मची हुई है, क्या अभी भी इन चुनाव क्षेत्रों पर भरोसा किया जा सकता है? 2014 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से सोनिया गांधी और अमेठी से राहुल गांधी चुनाव जीत गए थे। लेकिन सोनिया गांधी को पिछली बार से छह प्रतिशत और राहुल गांधी को पच्चीस प्रतिशत वोट कम मिले हैं। इस वर्ष के विधानसभा चुनाव में अमेठी से कांग्रेस पांचों सीटें हार गई। रायबरेली में पांच में से दो सीटें जीतकर किसी तरह उसकी नाक बची।
अगर कांग्रेस की यह दुर्दशा केवल उत्तर प्रदेश में होती तो उतनी बड़ी चिंता की बात नहीं थी। उत्तर प्रदेश में दिसंबर 1989 से कांग्रेस की सरकार नहीं है। फिर भी कांग्रेस की देशव्यापी उपस्थिति के कारण उसके केंद्रीय नेतृत्व की साख बनी हुई थी। उसी साख के बल पर अब तक वे रायबरेली और अमेठी से जीतकर लोकसभा में पहुंचते रहे। लेकिन अब राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस की स्थिति डांवाडोल है। नेहरू-फिरोज गांधी परिवार का तिलिस्म टूट रहा है। सोनिया गांधी अपनी वय और स्वास्थ्य दोनों कारणों से लगभग पृष्ठभूमि में चली गई हैं। राहुल गांधी को पार्टी के बाहर कोई गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं है। किसी समय कांग्रेस का पूरे देश पर एकछत्र शासन था। फिर उसके हाथ से राज्यों की और बीच-बीच में केंद्र की सत्ता खिसकने लगी। अब उसकी केवल छह राज्यों में सरकारें हैं। उनमें कर्नाटक और पंजाब ही महत्वपूर्ण हैं। हिमाचल में इसी वर्ष चुनाव होने हैं और वहां कांग्रेस की हार सुनिश्चित मानी जा रही है। मेघालय, मिजोरम और पुद्दुचेरी का देश की राजनीति में अधिक महत्व नहीं है। जो पार्टी राष्ट्रीय राजनीति से खिसककर प्रांतीय स्तर पर आ गई हो, क्या उसे कोई वैकल्पिक पार्टी के रूप में देख सकता है? उत्तर प्रदेश ने अब तक देश को आठ प्रधानमंत्री दिए हैं। 25 करोड़ आबादी वाला उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक राजनैतिक प्रदेश माना जाता है। क्या नेहरू-फिरोज गांधी परिवार की सत्ता का तिलिस्म टूटने के बाद वह उनके लिए पलक पथ पर पांवड़े बिछाए बैठा रहेगा? अगर अगले चुनाव में राहुल गांधी सांसद भी न बन पाए तो उनका राजनैतिक भविष्य चौपट हो जाएगा।
पिछले तीन दशक से कांग्रेस का जनाधार निरंतर सिकुड़ता जा रहा है। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण 1984 में कांग्रेस को सर्वाधिक वोट मिले थे। 1951 के पहले आम चुनाव में उसका मत प्रतिशत 45 था। अगले आम चुनाव में उसे 47.78 प्रतिशत मत मिले। लेकिन उसके बाद उसका जनाधार सिकुड़ता ही रहा। पर 1984 में उसे 49 प्रतिशत वोट मिले। उसके बाद वह फिर ढलान पर आ गई। 1989 के चुनाव में वह केवल 197 सांसदों को ही जिता पाई। अगर आपात स्थिति के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दें तो यह तब तक उसके सांसदों की सबसे कम संख्या थी। 1991 में उसका वोट प्रतिशत कम हुआ, लेकिन वह संसद में 244 सदस्य भेजने में सफल हो गई। उसके बाद से उसका जनाधार भी सिकुड़ता रहा है और लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या भी। 1991 के बाद अब तक वह कभी 150 सीटें भी नहीं जीत पाई। इसका अपवाद 2009 की 15वीं लोकसभा भर है, जब उसके 206 सदस्य जीतकर आए थे। कांग्रेस को 2004 और 2009 में अपनी सरकार बनाने का अवसर अवश्य मिल गया था। लेकिन यह जोड़-बटोरकर बनाई गई सरकारें थीं। उसका वोट प्रतिशत 1996 से अब तक 30 प्रतिशत से नीचे ही रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में तो वह घटकर 20 प्रतिशत से भी नीचे पहुंच गया। उसके बाद से पार्टी दबाव में ही है। उसके सांसदों की संख्या घटकर केवल 44 रह गई है। संसद में अब उसका ऐसा कोई नेता नहीं बचा, जो मोदी सरकार के लिए चुनौती पैदा कर सके।
1996 के आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस के सांसदों की संख्या 150 के नीचे गई थी। वह केवल 140 सीटों पर विजय प्राप्त कर सकी थी। इससे चिंतित होकर सोनिया गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की मांग उठने लगी। सोनिया गांधी इसके लिए उत्सुक नहीं थीं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी और 1991 में राजीव गांधी की। राजीव गांधी की स्वयं राजनीति में कोई रुचि नहीं थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्हें अनायास सत्ता संभालनी पड़ी थी। उनकी हत्या का सोनिया गांधी पर क्या प्रभाव हुआ होगा, यह समझा जा सकता है। 1991 में लोगों की सहानुभूति पाकर फिर कांग्रेस सत्ता में आ गई, लेकिन सोनिया गांधी राजनीति से अलग रहीं। विदेशी मूल की होने के कारण उनकी यह हिचकिचाहट और भी स्वाभाविक थी। लेकिन 1998 में कांग्रेस के भविष्य की दुहाई देकर उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए मना लिया गया। अध्यक्ष पद उन्हें सौंपने के लिए परिवार के भक्त कांग्रेसियों ने वयोवृद्ध सीताराम केसरी को अपमानपूर्वक अध्यक्ष पद से हटा दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी की असफलता के कारण 2004 में कांग्रेस को सत्ता मिली। सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष और सत्ता की सूत्रधार बनी रहीं। लेकिन व्यक्तिगत हिचक कहें या राजनैतिक समझदारी, वे प्रधानमंत्री नहीं बनीं। 2004 में उन्होंने परिवार के एक और सदस्य राहुल गांधी को विधिवत राजनीति में उतार दिया। वे अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते। तीन वर्ष बाद 2007 में उन्हें पार्टी का महासचिव बना दिया गया। यह स्पष्ट था कि मनमोहन सिंह इस परिवार की खड़ाऊं लिए हुए ही गद्दी पर बैठे हैं। उन्हें इस आशा में प्रधानमंत्री बनाए रखा गया कि जब राहुल गांधी सत्ता संभालने की स्थिति में होंगे तो सत्ता उन्हें सौंप दी जाएगी। यह दिखाया गया कि राहुल गांधी महासचिव के रूप में राजनीति के गुर सीख रहे हैं। दिग्विजय सिंह अपने आपको उनके राजनैतिक गुरु के रूप में प्रचारित करते रहे। मनमोहन सिंह के शासन के दस वर्ष बीत गए। लेकिन राहुल गांधी का प्रशिक्षण पूरा नहीं हुआ।
कांग्रेस का यह बहुत विचित्र निर्णय था। अब तक नेहरू-फिरोज गांधी परिवार के तीन प्रधानमंत्री हो चुके थे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी को भी कोई विशेष प्रशासनिक अनुभव नहीं था। जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में खूब ख्याति अर्जित की थी। लेकिन वह आंदोलन उनके नहीं महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया था। जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनने से पहले कोई विशेष प्रशासनिक अनुभव नहीं था। इसी आधार पर माउंटबेटन को जून 1948 तक, भारत का गवर्नर जनरल बनाकर रखा गया था। इंदिरा गांधी को जवाहर लाल नेहरू अपने उत्तराधिकारी के रूप में ही तैयार कर रहे थे। इसी उद्देश्य से वे फिरोज गांधी से अलग होकर 1947 से 1964 तक अपने पिता की व्यक्तिगत सहायक और प्रधानमंत्री निवास की मेजबान होकर उनके घर में रहीं। 1959 में उन्हें अचानक कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी भी प्रधानमंत्री बनने से हिचकिचार्इं, लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। वे उनके मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुर्इं। 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद उन्होंने दावेदारी की और वे मोरार जी को हराकर प्रधानमंत्री बन गर्इं। बीच का दो वर्ष का अनुभव कोई बड़ा अनुभव नहीं था। उनकी मंत्रिमंडल में कोई बड़ी हैसियत नहीं थी।
इंदिरा गांधी की 1984 में हत्या के बाद जब राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया तो वे अब तक के सबसे अल्पवय प्रधानमंत्री थे। उनकी आयु केवल 40 वर्ष थी और उन्हें प्रशासन का तो क्या, राजनीति का भी कोई अनुभव नहीं था। इसके बाद भी उन्हें भारी जनसमर्थन मिला। यह माना गया कि वे बिना किसी राजनीतिक दुराग्रह के व्यावहारिक बुद्धि से शासन करेंगे। लेकिन राजनैतिक परिपक्वता के अभाव में वे भी अपनी सरकार की साख नहीं बचा पाए और अगले चुनाव में उनकी पार्टी चुनाव हार गई। राजीव गांधी के शासनकाल में जो भ्रष्टाचार के मामले सामने आए उनसे कांग्रेस की प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगा। यह सही समय था जब नेहरू-फिरोज गांधी परिवार देश की राजनीति में अपना समय पूरा मान राजनीति से अलग हट जाता। आखिर इंदिरा गांधी के सत्ता में रहते न राजीव गांधी ने राजनीति में कोई रुचि ली थी न सोनिया गांधी ने। लेकिन कांग्रेस में यह मिथ बना रहा कि नेहरू-फिरोज गांधी परिवार का कोई सदस्य ही पार्टी की सत्ता संभाल सकता है। इसलिए 2004 में न सही 2009 में राहुल गांधी का सत्तारोहण करवाया जा सकता था। मनमोहन सिंह की एक अर्थशास्त्री के रूप में कुछ साख रही होगी। लेकिन एक राजनेता के रूप में उनकी कोई साख नहीं थी। उनके पूरे प्रधानमंत्रित्वकाल में सब निर्णय सत्ता का समानांतर केंद्र रहे दस जनपथ से ही होते थे। 2013 में राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से मनमोहन सिंह को अपमानित किया था। यह समझ से परे है कि अगर मनमोहन सिंह की यह दुर्गति करनी थी तो उन्हें दोबारा प्रधानमंत्री बनाया ही क्यों गया था।
कांग्रेस ने जब मनमोहन सिंह शासन के पांच साल पूरे होने के बाद 2009 में चुनाव लड़ा तो वह अपनी जीत के बारे में आश्वस्त नहीं थी। उसे बहुमत नहीं मिला, लेकिन 206 सीट जीतने के बाद कांग्रेस के सरकार बनाने और पांच साल तक उसके स्थायी रहने में किसी को कोई आशंका नहीं रह गई थी। क्या राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का यह सबसे सही मौका नहीं था? राहुल गांधी के राजनीति में प्रवेश को पांच वर्ष हो चुके थे। दो वर्ष पहले वे पार्टी के महासचिव बना दिए गए थे। इस तरह पार्टी की सत्ता उनके पास थी। पार्टी में उस समय भी उन्हें कोई चुनौती देने वाला नहीं था। उनमें एक राजनेता की परिपक्वता न रही हो, पर एक राजनेता का अहंकार था। पार्टी उनके इशारे पर ही नाच रही थी। अगर 2009 में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो वे अधिक सुगमता से शासन का कौशल अर्जित कर सकते थे। उन्हें भारत की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों की विशेष समझ नहीं है। पर यह अवसर की कमी के कारण नहीं, योग्यता की कमी के कारण है। 2009 में उनकी नेतृत्व क्षमता के बारे में उतनी आशंकाएं नहीं थीं, जितनी आज हैं।
अगर 2009 में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया तो उनसे यह आशा क्यों रखी गई कि भविष्य में अवसर आने पर उन्हें ही यह जिम्मेदारी संभालनी है। 2013 में उन्हें महासचिव से आगे बढ़ाकर पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया गया। केवल यह संदेश देने के लिए कि जल्दी ही उन्हें अध्यक्ष बना दिया जाएगा। 1998 से अब तक सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष हैं। इतने लंबे समय तक पार्टी का अध्यक्ष बने रहने का सौभाग्य कांग्रेस में अब तक किसी और को नहीं मिला। पिछले कुछ समय से वे अस्वस्थ हैं। पार्टी में जब तब राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की मांग उठती रहती है। लेकिन अपनी निष्क्रियता के बावजूद सोनिया गांधी अभी तक दलीय सत्ता का हस्तांतरण करने के लिए तैयार नहीं हुर्इं। इसका कारण कोई पारिवारिक विवाद नहीं है। इसका कारण केवल यह है कि वे राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता के बारे में आश्वस्त नहीं हैं।
कांग्रेस में कुछ दिन पहले तक नेहरू-फिरोज गांधी परिवार की स्थिति निर्द्वंद्व थी। अब यह बात मुखर होकर कही जाने लगी है कि राहुल गांधी की न राजनीति में रुचि है, न योग्यता। राहुल गांधी आए दिन कोई हास्यास्पद बात कहते रहते हैं कि पार्टी को लज्जाजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है। उनके इर्द-गिर्द जिन लोगों का जमावड़ा लगा रहता है, उन्हें देखते हुए कांग्रेस के भविष्य को लेकर कोई आशा नहीं बांधी जा सकती। एक तरफ वे दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम जैसे लोगों को महत्व देते रहते हैं जो भारतीय राजनीति में कब के खलनायक बन चुके हैं, दूसरी तरफ वे नौसिखिए नौजवानों को आगे करने में लगे रहते हैं। कांग्रेस के नेताओं से जब भी राहुल गांधी की असफलता को लेकर सवाल पूछा जाता है, उनका एक ही रटा-रटाया उत्तर होता है कि नेहरू-फिरोज गांधी परिवार को छोड़कर और कोई पार्टी को एक नहीं रख सकता। निश्चय ही यह अंधविश्वास जवाहर लाल नेहरू के रहते उपजा था और उसे फैलाने में उनकी सक्रिय भूमिका थी। उसी के चलते 1959 में अचानक इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था। यह अंधविश्वास कब और कैसे पैदा हुआ और इसे अब तक कैसे बनाए रखा गया है, इस पर गंभीरतापूर्वक शोध होना चाहिए। इस अंधविश्वास के बनाए रखने में राजनीति के बाहर राज्याश्रय से फले-फूले बौद्धिक प्रतिष्ठान की भी बड़ी भूमिका है। इस बौद्धिक प्रतिष्ठान ने ही जवाहर लाल नेहरू की महानता का मिथक गढ़ा और आज तक कभी उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं होने दिया गया। आज की अधिकांश समस्याएं जवाहर लाल नेहरू की ही देन हैं। उनका ठीक से पुनर्मूल्यांकन हो तो हम यह जान पाएंगे कि अब तक हम किन गलत दिशाओं में भटकते रहे हैं और इस भटकन को कैसे दूर किया जा सकता है। मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती इस सत्ता प्रतिष्ठान को बेदखल करना है। परिस्थितियों के दबाव से कांग्रेस राहुल गांधी को समूची सत्ता सौंपने में सफल हो जाती है तो यह अच्छा ही होगा। इस अंधविश्वास की यह अंतिम परीक्षा होगी।