स्वामी रामानंद नारायण 1994 से कण्व आश्रम की देखरेख कर रहे हैं। इस आश्रम में एक छोटी कुटिया, एक मंदिर और बाघ से खेलते भरत की मूर्ति सहित कुछ पुराने पत्थरों पर उकेरी मूर्तियां हैं। वह अकेले इस निर्जन स्थल पर वास करते हैं। उन्हें अच्छा लगता है कि पौराणिक स्थल और धरोहर को वह संजोते आए हैं। इस आश्रम से जुड़े पहलुओं पर उनसे हुई बातचीत के अंश:-
इस स्थल को कण्व ऋषि के आश्रम की मान्यता का आपका आधार क्या है?
इस पर ज्यादा विवाद नहीं हुआ है। केवल एक बार बिजनौर के मंडावर में इसी मालिनी नदी के किनारे आश्रम होने की बात कही गई थी। लेकिन कई तथ्य सामने आए जिससे प्रतीत होता है कि भरत की जन्मस्थली यही स्थल रहा होगा। पंडित नेहरू के आदेश पर इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने इसी स्थल को अपने शोध में प्रमाणिक माना। यही नहीं यहां 1990 में भूस्खलन के दौरान कुछ मूर्तियां और अवशेष निकले। मेरा आज भी मानना है कि यहां अगर तरीके से खुदाई की जाए तो कई और चीजें सामने आएंगी। यह तय है कि यहां पहले मानवीय बस्ती थी। यह भी प्रमाणित हुआ है कि ऋषि विश्वामित्र का आश्रम भी यहीं पास में था जहां अप्सरा मेनका ने उनकी तपस्या भंग की थी। महाकवि कालीदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में जिस स्थल का वर्णन किया है वह इस स्थान से मेल खाता है।
यहां पुरातत्व महत्व की कई मूर्तियां मिलीं लेकिन यहां केवल चार ही प्रस्तर खंड हैं?
बिल्कुल, आपका कहना सही है। श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय का पुरातत्व विभाग लगभग सभी अवशेषों को ले गया। कहा जाता है कि मूर्तियां वहां रखी गई हैं। लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि मूर्तियां किस रूप में हैं और उसके बाद उनका क्या हुआ। कायदे से उन्हें यहीं रखना चाहिए था और उसका उचित प्रबंध होना चाहिए था। देखा जाए तो इस स्थल को पूरी तरह उपेक्षित रखा गया।
आप किस तरह की उपेक्षा देख रहे हैं?
सब तरह की उपेक्षा है। जिस महापुरुष के नाम पर आज इस देश का नाम है उनकी जन्मस्थली में कोई झांकने भी नहीं आता। हर साल यहां नीचे नदी किनारे मेला लगता है। बड़े लोग मेले में आकर कुछ भाषण देकर चले जाते हैं लेकिन केवल दो सौ मीटर की ऊंचाई उनसे चढ़ी नहीं जाती। यहां कुटिया भी जर्जर हो रही है। वन विभाग कहता है कि आप इसमें कोई मरम्मत कार्य नहीं कर सकते। अगर दिक्कतहै तो आप इसे छोड़कर चले जाएं। हालात ये हैं कि कभी बाघ आता है, कभी अजगर। यहां तक कि बडेÞ हाथी भी देखे गए हैं। पानी बिजली की सुविधा चाहिए। इसे पौराणिक स्थल के रूप में लाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए थे। लेकिन कुछ नहीं हुआ। जिस हाल में इसे छोड़ा गया था वही आज भी नजर आता है।
आप इस आश्रम के महत्व को किस रूप में देखते हैं और आपकी क्या अपेक्षा है?
यह मेरे लिए आस्था का केंद्र भी है और गौरव का भी। यह भरत की भूमि है लेकिन आप यह भी सोचिए कि यह नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविख्यात शिक्षा के केंद्रों से सदियों पहले एक गुरुकुल के रूप में था। इसे किसी न किसी तरह पर्यटन के केंद्र के तौर पर संजोया जा सकता है। यह स्थल विश्व भर के लोगों को अपनी ओर खींच सकता है। शकुंतला दुष्यंत की प्रेम कहानी और विश्वामित्र के तप भंग के बारे में दुनिया जानती है। हमारी यह अपेक्षा है कि सरकार इस स्थल को लेकर संजीदा हो। उत्तराखंड की स्थापना का जो मूल भाव था उसके अनुरूप ऐसी चीजें उभारी जाएं और सामने लाई जाएं।