रमेश कुमार ‘रिपु’
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में पुलिस ने नक्सली ठिकाने पर दबिश देकर चार वर्दीधारी नक्सलियों को मार गिराया। मुठभेड़ में कई नक्सली घायल भी हुए हैं। घटनास्थल से चार वर्दीधारी नक्सलियों के शव बरामद कर कैम्प को ध्वस्त कर दिया गया। मौके से बंदूक, गोला बारूद समेत अन्य सामग्री का जखीरा मिला। मिरतूर थाना क्षेत्र के हल्लूर एवं हकवा गांव के मध्य जंगल में नक्सलियों ने ठिकाना बना रखा था। बुरकापाल की घटना के बाद से पुलिस माओवादियों के गढ़ में घुसकर उन्हें मारने लगी है। जाहिर है कि पुलिस नक्सलवाद के खात्मे के लिए ऐसा कर रही है। वहीं पुलिस की बढ़ती आक्रामकता से बचने के लिए नक्सली अपने लिए सुरक्षित जोन की तलाश में जुट गए हैं। सवाल यह है कि नक्सली बन गए छत्तीसगढ़ के बेरोजगार आदिवासियों ने आंध्र के नक्सली लीडरों के कहने पर अपने लिए एक नया नक्सली गढ़ तलाश भी लिया तो वे सुकून से कब तक बैठ पाएंगे। क्योंकि हर माओवादी को पता है कि पुलिस की हर गोली पर उसका नाम लिखा हुआ है।
दहशत का साम्राज्य
छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और मध्य प्रदेश में कहीं भी माओवादी मरें, उससे आंध्र के नक्सली लीडरों की आंखें गीली नहीं होती। न उन्हें कोई नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ के माओवादी हर बरस करोड़ों रुपये आंध्र के नक्सली लीडरों को विभिन्न तरीके से वसूल कर पहुंचा रहे हैं। बदले में उन्हें मिलती है मौत की गोली। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 2009 में कहा था, ‘राज्य में नक्सली वन व्यापारियों, परिवहन मालिकों और लौह अयस्क खनन कंपनियों से हर वर्ष 300 करोड़ रुपये की जबरन वसूली करते हैं।’ आठ साल के बाद बस्तर के डी.आई.जी. पी सुन्दरराज का बयान आया है, ‘नक्सली हर बरस यहां से एक हजार करोड़ रुपये विभिन्न मदों से एकत्र करते हैं।’ जाहिर है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के नाम से लड़ी जा रही लड़ाई में शामिल यहां का बेरोजगार आदिवासी नहीं जानता कि लाल गलियारे में अपनी जिन्दगी और मौत की कहानियों की जो फतांसी वह गढ़ रहा है उसके पीछे कितने करोड़ रुपये का दहशत का साम्राज्य है।
दहशत की परछाइयां
बीजापुर जिले के जांगला का रहने वाला है तीन लाख का इनामी नक्सली पोयाम बोमड़ा उर्फ अनिल। अपनी पत्नी पोयाम सरिता के साथ आत्मसमर्पण पर कहा, ‘माओवादी बन तो गए लेकिन जिन्दगी का मकसद क्या है- यह नहीं पता। यदि सरिता मेरी जिन्दगी में नहीं आती तो यह भी नहीं जानता कि लड़ाई जरूरी है या फिर जीना। सुरक्षा बल के जवानों के खिलाफ लड़ना या फिर लाल सलाम की आवाज को बुलंद करना।’ यहां का आदिवासी जो माओवादी बन गया है, नहीं जानता कि वह सुरक्षा बलों से लोहा क्यों ले रहा है। उसे आंध्र के नक्सली लीडरों ने पढ़ा रखा है कि सत्ता, बंदूक की गोली से निकलती है। लेकिन अब उसे यह बात समझ में आने लगी है कि गोली से सिर्फ मौत निकलती है। नक्सली दहशत की परछाइयां आहिस्ता आहिस्ता कम हुर्इं तो महिला माओवादी फिर से शर्मीली होने लगीं और समाज की मुख्य धारा में शामिल होने लगीं।
छग के नक्सली हाशिए पर
तत्कालीन बस्तर आईजी एसआरपी कल्लूरी के समय भारी संख्या में माओवादियों ने सरेंडर किया। हजारों की संख्या में महिलाएं लाल गलियारे की जिन्दगी और आंध्र के नक्सली लीडरों की बनाई सल्तनत से ऊब कर समाज की मुख्यधारा में लौटीं। लेकिन लाल गलियारा खाली नहीं हुआ। नक्सल डीजीपी डी.एम. अवस्थी कहते हैं, ‘बारिश के तीन महीने माओवादी अपनी संख्या बढ़ाने के अभियान को अंजाम देते हैं। लेकिन इस बार बारिश में भी सुरक्षा बलों ने आॅपरेशन प्रहार को अंजाम दिया। जिससे बस्तर में इस बार एक सौ से अधिक नए नक्सली भर्ती नहीं हुए।’ दरअसल सरेंडर करने वाले नक्सलियों का कहना है, ‘अब नक्सली जीवन से लोगों का मोह भंग होने लगा है। इसकी एक नहीं कई वजहें हैं। ऊंचे पदों पर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के माओवादियों की पैठ होने से निचले स्तर पर तैनात छत्तीसगढ़ के माओवादियों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। क्योंकि माओवाद से संबंधित सभी तरह की रणनीतियों में छत्तीसगढ़ के नक्सलियों को शामिल नहीं किया जाता। न ही उनसे कोई राय ली जाती है। तेलंगाना के नक्सली लीडरों के आगे यहां के माओवादी हाशिए पर हैं।
मतभेद का दायरा बढ़ा
माओवाद के नाम पर लड़ी जा रही लड़ाई के लिए बनी 24 लोगों की टीम में छत्तीसगढ़ के लोगों का कोई स्थान नहीं है। एक मात्र हिड़मा दंडकारण्य वन समिति में है, जो कि घायल हैं। सभी बड़े पदों पर तेलंगाना या फिर आंध्र के प्रदेश के नक्सली हैं। महिला नक्सलियों के साथ इनकी बर्बरता और अमानवीय व्यवहार की वजह से मतभेद बढ़ने लगा है। महिलाएं शादी नहीं करेंगी, महिलाओं की जबरिया नसबंदी करा देना ताकि वे मां न बन सकें, उनका गर्भपात कराने, जबरिया बारूद खिलाना, महीनों नहा नहीं पाती, कई कठोर बंदिशों की वजह से मतभेद बढ़ने लगा है। हार्ड कोर नक्सलियों को शादी की मनाही है। जबकि आंध्र और तेलंगाना के उच्च लीडरों की शादी हो चुकी है। इनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यहां के माओवादी सड़क, स्कूल, बिजली जैसे विकास में बाधक नहीं बनना चाहते, लेकिन बाहर के नक्सली इसका विरोध करते हैं। इन्हीं वजहों से लाल गलियारे में मतभेद का दायरा बढ़ने लगा है।
थमी नहीं नक्सली वारदात
लाल आतंक के खिलाफ पुलिस ने नरम उपाय को दरकिनार कर दिया है। बावजूद इसके बेहद जुनूनी और हथियारों से लैस नक्सली पिछले पांच सालों से पहले की तरह हमला नहीं कर रहे हैं। माओवादियों के मरने की संख्या में कमी आई है वहीं दूसरी ओर जवानों के शहीद होने की संख्या में भी कमी आई है। लेकिन दहशत का साम्राज्य यथावत है। ठेकेदारों को नुकसान पहुंचाना, उनके वाहनों को आग के हवाले करना, ग्रामीणों पर पुलिस का मुखबिर होने का आरोप लगाकर जन अदालत में हत्या करना, बसें जलाना, डंपर जलाना जैसी वारदातें कर दहशत फैलाने का सिलसिला थमा नहीं है। नक्सली बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाले तेंदूपत्ते के ठेकेदारों, इंफ्रास्ट्रक्चर के काम में लगे ठेकेदारों, कारोबारियों और कॉरपोरेट हाउसेज से भी उगाही करते हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद, आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक है। डेढ़ दर्जन से ज्यादा सशस्त्र नक्सलियों ने 21 अक्टूबर को दंतेवाड़ा के भांसी थाना क्षेत्र के कमालूर स्टेशन मास्टर समेत तीन रेलवे स्टाफ को बंधक बनाया और उनके सामने ही रेलवे लाइन दोहरीकरण कार्य में लगी नौ मशीनों में आग लगा दी। आगजनी में 4 हाइवा, 3 एस्केवेटर मशीनें बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गर्इं। जबकि एक ग्राइंडर, एक वाइब्रो रोलर भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गए। वारदात को अंजाम देने के बाद नक्सलियों ने स्टेशन मास्टर और सहयोगियों को रिहा कर दिया। मौके पर चस्पा किये गए पोस्टरों में नक्सलियों ने आॅपरेशन ग्रीन हंट और नक्सल विरोधी संगठन अग्नि का विरोध किया और खदानों को निजी कंपनियों को लीज पर देने पर भी आपत्ति जताई। रेलवे लाइन दोहरीकरण कार्य दंतेवाड़ा जिले के हिस्से में शुरू होने के बाद यह तीसरा मौका है जब नक्सलियों ने ठेकेदार की मशीन व उपकरणों को आग के हवाले कर दिया। इसके पहले 20 मई 2015 को तुड़पारास के नजदीक हैदराबाद की कंस्ट्रक्शन कंपनी एसईडब्ल्यू के 2 टिप्पर, 1 चेन बुलडोजर, 1 पोकलेन मशीन, नक्सलियों की आगजनी में जलकर खाक हो गए थे।
डर से रुपये देते हैं
राज्य के नक्सल मामलों के पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक आर.के. विज कहते हैं, ‘ ठेकेदार, उद्योगपति, कारोबारी तथा अन्य लोग पुलिस में शिकायत करने के बजाय डर के कारण नक्सलियों को रुपये देते हैं। लगातार पुलिस की कार्रवाई की वजह से नक्सली बैकफुट में आ गए हैं। जहां नक्सलियों का प्रभाव कम हो रहा है उन क्षेत्रों में उद्योग या ठेकेदार नक्सलियों को रकम देने से मना करने लगे हैं या कम रकम दे रहे हैं। पुलिस ऐसे उद्योगों और ठेकेदारों के खिलाफ भी कार्रवाई कर रही है जिन्होंने नक्सलियों तक रुपये पहुंचाए हैं।’ माओवादी अपनी क्षेत्र में ठेकेदारों से लेवी लेते हैं। वन उपज से होने वाली आमदनी में भी वे ठेकेदारों से हिस्सा लेते हैं। नक्सलियों को सबसे ज्यादा पैसा तेंदूपत्ता से मिलता है।
पैसा कहां निवेश करते हैं नक्सली
आज नक्सल साम्राज्य एक कॉरपोरेट घराने की तरह चल रहा है। वसूल की गई राशि का एक बड़ा हिस्सा आधुनिक शस्त्र खरीदने में जाता है। इन्हें ये हथियार स्थानीय और कुछ विदेशी सरकारी और उग्रवादी संगठनों जैसे कि पाकिस्तान की खुफिया आईएसआई एजेंसी से प्राप्त होते हैं। सरेंडर करने वाले नक्सली कहते हैं, ‘जनता की लड़ाई के लिए धन तो चाहिए इसलिए वसूली की जाती है। कई ठेकेदार और व्यापारी इन नक्सलियों की वसूली के काले धन के निवेश में मदद करते हैं। नक्सलियों का यह पैसा रीयल एस्टेट, ट्रांसपोर्ट, शोरूम तथा अन्य बिजनेस में नागपुर, रायपुर, भिलाई, जगदलपुर, पटना, रांची, भुवनेश्वर, भोपाल, कोलकाता जैसे शहरों में लगा हुआ है। बस्तर में नारायणपुर के एक ट्रांसपोर्टर को कुछ वर्ष पहले नक्सलियों ने पेड़ से लटका कर फांसी दे दी थी, क्योंकि वह अपने पास जमा नक्सलियों के पैसों में गड़बड़ी करने लगा था।