प्रियदर्शी रंजन
इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है कि राष्ट्रीय जनता दल के दसवें अधिवेशन में लालू प्रसाद यादव को लगातार दसवीं बार राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित किया गया। इसमें भी कोई हैरानी नहीं है कि लगातार विवादों में रहने वाले लालू के खिलाफ पार्टी का कोई अन्य व्यक्ति राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर अपनी दावेदारी पेश नहीं कर पाया। क्षेत्रीय पार्टियों की अघोषित परंपरा के मुताबिक लालू निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए। लेकिन इस अधिवेशन में जो खास रहा वह है तेजस्वी यादव की आधिकरिक ताजपोशी। पिछले कुछ दिनों से राजद और सियासी गलियारों में यह विमर्श का विषय था कि लालू अपने पुत्र को पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करेंगे या नहीं। पार्टी में लालू यादव के बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेताओं ने तेजस्वी के नाम पर तत्काल मुहर लगाने को जल्दबाजी करार दे रहे थे। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद स्पष्ट कर दिया कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी प्रसाद यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल अगला विधानसभा चुनाव लड़ेगा और वे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भी होंगे। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि लालू ने तेजस्वी की उम्मीदवारी की घोषणा तो कर दी मगर चुनावी रण में फतह का क्या फॉर्मूला होगा? पिछले विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो 2005 से लालू की लालटेन टिमटिमा रही है। यादव-मुस्लिम वोट के धु्रवीकरण के बाद भी राजद सम्मानजनक स्थिति पाने में नाकामयाब ही रही। ऐसे में जब नीतीश कुमार एक बार फिर रण में एनडीए के साथ होंगे तो लालू के लाल के सियासी हाड़ में हल्दी कैसे लगेगी?
इसमें कोई शक नहीं कि बिहार की राजनीति में लालू यादव अपने सभी प्रतिद्वंद्वी नेताओं के मुकाबले बड़े जनाधार वाले नेता हैं, लेकिन बिहार विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अकेले या कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ कर बड़ी संख्या में सीट हासिल करना अब उनके बूते की बात नहीं रही। यह बात और है कि अगर वे कुछ दलों को अपने साथ जोड़ लेते हैं तो बाजी उनके हाथ में होती है, जैसा कि पिछली बार विधानसभा चुनाव में हुआ। नीतीश का साथ छूटने के बाद लालू की मजबूरी है कि वे कुछ और दलों को महागठबंधन के बैनर तले एकजुट करें। महागठबंधन में अब राजद के साथ सिर्फ कांग्रेस है। जबकि एनडीए के पाले में भारतीय जनता पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, लोकजन शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा जैसे पांच दल हैं। इन सभी दलों के साथ जातीय वोट बैंक भी जुड़ा है। इस जोड़ के चलते बड़ा जनाधार वाला नेता होने के बाद भी लालू के लिए आने वाले दिनों में अपने पुत्र के सियासी हाड़ में हल्दी लगाना संभव नहीं होगा। ऐसे में चुनाव से कुछ पहले लालू के लिए नया महागठबंधन तैयार करना मजबूरी है। इसके लिए उन्होंने एनडीए में उपेक्षित महसूस करने वाले रालोसपा और हम पर डोरे डालना शुरू कर दिया है।
दरअसल, जब से महागठबंधन छोड़ नीतीश ने भाजपा से हाथ मिलाया है बिहार में नई राजनीतिक बिसात बिछाई जा रही है। पीएम नरेंद्र मोदी ने नीतीश को अपने खेमे में लाकर जो राजनीतिक मात दी है, लालू उसी अंदाज में हिसाब चुकता करना चाहते हैं। दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज पर लालू ने रालोसपा और हम पर डोरे डालने का आगाज कर दिया जो धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगा है। पिछले दिनों मोदी मंत्रिमंडल के मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने लालू से गुप्त मुलाकात की। दोनों नेताओं की मुलाकात पर सार्वजनिक रूप से कोई कुछ नहीं कह रहा लेकिन इस मुलाकात के दो दिन पहले ही रालोसपा नेता नागमणि ने बिहार की सियासत में सरगर्मी तेज करते हुए कहा था कि उपेंद्र कुशवाहा के हाथ में बिहार का मान होना चाहिए। वहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने से सार्वजनिक तौर पर एनडीए को आडेÞ हाथ ले रखा है। बकौल मांझी, ‘वो अपनी बात को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के अलावा दूसरे नेताओं को भी बता चुके हैं। हमारी पार्टी के लोगों को भी पद मिलना चाहिए। बार-बार एक ही बात को कहना अच्छा नहीं लगता। आजकल की राजनीति अलग तरह की हो गई है। लोग पैरवी लगाकर पद हासिल कर लेते हैं लेकिन हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा की ये फितरत नहीं है कि वे एक ही बात को बार-बार कहें।’ मांझी यह भी मानते हैं कि केंद्र और राज्य में एनडीए सत्ता में है तो उनकी पार्टी के लोगों को राज्यपाल, राज्यसभा सदस्य, मंत्री, बोर्ड मेंबर आदि के रूप में एडजस्ट किया जा सकता है। उनका कहना है, ‘हमलोग पूरी तरह एनडीए के साथ हैं लेकिन हमलोग मजबूत रहेंगे तभी 2019 में नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने में मदद कर सकते हैं।’ मोदी के मंत्री की लालू से मुलाकात और उसके कुछ ही दिनों बाद पूर्व मुख्यमंत्री का बयान, दोनों को मिलाकर देखें तो लालू की आंच पर सियासी खिचड़ी पकती दिख रही है।
हालांकि रालोसपा और ‘हम’ की ओर से कोई आधिकारिक तौर पर यह माानने को तैयार नहीं है कि लालू के साथ उनके नेता पींगें बढ़ा रहे हैं। मगर दोनों दलों के नेता इस बात से भी इनकार नहीं करते कि लालू के साथ उनके दल के नेताओं की कोई मुलाकात नहीं हुई होगी। राजनीतिक जानकार सुरेंद्र किशोर के मुताबिक नीतीश कुमार का एनडीए में आना रालोसपा और ‘हम’ को रास नहीं आ रहा है। इसके पीछे की बड़ी वजह यह है कि दोनों दलों के सुप्रीमो ने नीतीश की छत्रछाया से निकलकर अपने-अपने दलों का गठन किया। अब एनडीए की छतरी के तले नीतीश कुमार के साथ कुशवाहा और मांझी रहना नहीं चाहते। राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हिमांशु प्रसाद का मानना है कि एनडीए में दोबारा शामिल होते वक्त जदयू और भाजपा ने रेवड़ियां आपस में बांट ली। कुछ हिस्सा रामविलास पासवान को भी मिला। लेकिन हम और रालोसपा को सूखा छोड़ दिया गया। भविष्य में इनके साथ भाजपा-जदयू-लोजपा की तिकड़ी यही खेल दोहरा सकती है। भविष्य के डर से ही उपेंद्र कुशवाहा और ‘हम’ ने महागठबंधन में अपने लिए जगह बनाने की कवायद शुरू कर दी है। जबकि ‘हम’ से जुडेÞ सूत्रों की मानें तो मांझी अपने पुत्र संतोष कुमार सुमन या महाचंद्र सिंह के लिए बिहार सरकार में मंत्री पद चाहते हैं। नीतीश मंत्रिमंडल के गठन के समय संतोष कुमार का नाम अंतिम समय में काट दिया गया और उनकी जगह रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को पशुपालन मंत्री बना दिया गया। मांझी ने इसे अपनी आन-बान से जोड़ लिया है। ऐसे में लालू के साथ जाने में उन्हें कोई गुरेज नहीं होगा।
लालू अपने गठबंधन में राजद के बर्खास्त सांसद पप्पू यादव को भी अपने पाले में लाने को रजामंद हैं। लालू यादव के करीबी राजीव रंजन चौबे की मानें तो शरद यादव के महागठबंधन मेंं आ जाने से यादव वोट बैंक अभेद्य हो चुका है। पप्पू यादव भी अब लालू के साथ आने को तैयार हैं मगर वे शरद यादव की पार्टी से जुड़कर। ऐसा नहीं लगता कि इसमें लालू यादव को कोई परेशानी होगी। वहीं लालू के खिलाफ अब तक बेबाकी से बोलेने वाले पप्पू यादव का सधे सुर में लालू पर बयान देना इशारों में यह साफ कर रहा है कि लालू की आंच पर पप्पू की भी खिचड़ी पक रही है।