उमेश सिंह
इतना कुछ था/ दुनिया में लड़ने झगड़ने को/ पर ऐसा मन मिला/ कि जरा से प्यार में डूबा रहा/ और जीवन बीत गया। नब्बे बरस की उम्र में पद्मभूषण कवि कुंवर नारायण का दिल्ली में जीवन बीत गया। भविष्य के गर्भ में पल-पुस रहे कवित्व चेतना के गौरीशंकर का वह नन्हा दीया जो फैजाबाद शहर के मोतीबाग स्थित सुचेता सदन में जला था, विचारों की चिंगारियों को बिखेरता, चिब्द्रहमांडीय संवेदनाओं का तार झंकृत करता हुआ, मनुष्यता की रोशनी प्रकाशित करता हुआ आखिरकार बुझ गया। शब्दवंशियों का सिर्फ शरीर पूरा होता है, उनकी कलम से निकले शब्द उन्हें अमरत्व का घूंट पिला देते हैं। वह धारदार आवाज शांत हो गई। आत्मजयी ने देह भले त्याग दी लेकिन वह कालजयी बने रहेंगे। उनके शब्द सदियों तक मानस में गूंजते रहेंगे, मानस को मथते रहेंगे। जिस सुचेता सदन में वे जन्मे थे, र्इंट पाथर का वह घर अब भी मौजूद है लेकिन उसमें रहने वाले लोग स्मृति ध्वंस के शिकार हैं। इस बूढ़ी इमारत के शानदार स्वर्णिम इतिहास से नई पीढ़ी अनजान है।
फैजाबाद शहर के मोतीबाग में पिता विष्णु नारायण अग्रवाल के जिस घर में 19 सितंबर को कुंवर नारायण पैदा हुए उसमें फिलहाल उनसे जुड़ी कोई भी स्मृति मौके पर नहीं है। बाजार की शगल में तब्दील हुआ यह भवन खुद में स्वर्णिम इतिहास समेटे हुए है। कुंवर के पिता का स्पीड मोटर्स के नाम से वाहनों का कारोबार था। यह कोठी बहुत पहले ही बिक चुकी है। उनका परिवार व व्यवसाय भी 45 साल पहले लखनऊ शिफ्ट हो गया और वहां से होते हुए दिल्ली चला गया। डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी और सुचेता कृपलानी फैजाबाद प्रवास के दौरान यहीं रुकते थे, गुनते-मथते थे। कुंवर नारायण के पिता ने घर का ही नाम सुचेता सदन रख दिया था। कुंवर नारायण आचार्य नरेंद्र देव से गहरे स्तर पर प्रभावित थे। समाजवादियों से उनके घने रिश्ते रहे फिर भी उनका समाजवाद लोहिया और नेहरू से भिन्न था। उनका सुचेता सदन समाजवादियों के घर-आंगन जैसा था लेकिन कवि कुंवर के मानस का समाजवाद घर-आंगन का समाजवाद था। शब्दों और किताबों के पन्नों से दूर और जिंदगी के ताप से सर्वाधिक करीब। उनके पास वृहत्तर संसार को देख लेने की दृष्टि थी, वर्तमान के साथ ही भविष्य को सूंघ लेने की क्षमता थी। भाषा के मिजाज से विनम्र थे लेकिन जरूरत पड़ने पर कबीर की तरह हथौड़े जैसे प्रहार करने से तनिक भी नहीं चूकते थे। नई उम्र में ही पाब्लो नेरुदा जैसे क्रांतिकारी कवियों से उनका सानिध्य हुआ जिसका प्रभाव उनकी कविताओं में दिखता है।
कुंवर नारायण की काव्य यात्रा ‘चक्रव्यूह’ से शुरू हुई। उनकी मूल विधा कविता ही रही लेकिन इसके इतर उन्होंने कहानी, लेख, समीक्षा, सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी अपनी कलम चलाई। उनकी रचनाओं का अनुवाद विदेशी भाषाओं में भी हुआ। उन्होंने कवाफी और ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में चक्रव्यूह, परिवेश-हम तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने, आकारों के आसपास, आज और आज से पहले, मेरे साक्षात्कार, साहित्य के कुछ अंतर्विषयक संदर्भ, कुंवर नारायण का संसार, कुंवर नारायण उपस्थित (चुने हुए लेखों का संग्रह), कुंवर नारायण चुनी हुई कविताएं तथा कुंवर नारायण- प्रतिनिधि कविताएं आदि हैं। उन्होंने चक्रव्यूह के माध्यम से काव्य रसिकों में एक नई समझ, एक नई दृष्टि पैदा की। परिवेश-हम तुम के जरिये उन्होंने मानवीय संबंधों की विरल व अद्भुत व्याख्या की। प्रबंध काव्य आत्मजयी में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद् के जरिये अद्भुत विचार व्यक्त किया। इसमें नाचिकेता अपने पिता की आज्ञा ‘मृत्यु वे त्वा ददामीति’ अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूं, को स्वीकार करके यम के द्वार पर चला जाता है जहां वह तीन दिन तक भूखा प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से खुश हो यमराज उसे तीन वरदान मांगने की अनुमति देते हैं।
‘वाजश्रवा के बहाने’ कुंवर नारायण ने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा, उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस कृति ने अमूर्त को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साहपरक जिजीविषा को स्वर दिया है। आत्मजयी में उन्होंने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है। वहीं इसके ठीक विपरीत ‘वाजश्रवा के बहाने’ कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। अयोध्या-1992, अजीब वक्त है, यह चित्र झूठा नहीं है, जैसी समय पार रचनाएं उन्होंने दी। वे साधक कवि थे, विचारक कवि थे, दार्शनिकता और ऐतिहासिकता से भरे पूरे कवि थे। वे ताउम्र पेट के भूगोल में नहीं उलझे। कवित्व सृजन का पेट से रिश्ता, रोजी-रोटी से संबंध नहीं बनाया। अज्ञेय के तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवि थे, सशक्त हस्ताक्षर थे। उन्होंने साधक जैसा जीवन जिया और साहित्य की शिला पर चटकदार इबारत दर्ज की। इसी का परिणाम रहा कि कुंवर नारायण को पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, प्रेमचंद पुरस्कार, कबीर सम्मान, शलाका सम्मान, मेडल आॅफ वारसा यूनिवर्सिटी, अंतरराष्ट्रीय प्रीमियो फेरेनिया सम्मान आदि मिला जो उनकी वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता को दर्शाता है।
कुंवर नारायण ने बीसवीं शताब्दी के समापन को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखा और उसका नीर-क्षीर विवेचन किया। उनके इस कथन पर गौर फरमाइए- ‘लगभग एक किताब की तरह समाप्ति पर है अब बीसवीं सदी। इसके अंतिम दशक को हम किसी महागाथा के अंतिम परिच्छेद की तरह पढ़ सकते हैं। उत्तर उपनिवेशवाद, उत्तर संरचनावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर मार्क्सवाद। मानो एक उत्तर कथन में पूरी सदी अपना सार संक्षेप दे रही है। पुराने अनुबंधों से छूटकर हम अब एक ऐसी जगह पर खड़े हैं, जहां से कई नई राहें फूटती हैं और हम सहसा तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमारे लिए कौन सा रास्ता ठीक होगा।’ विकास की भौतिक सीमाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा, ‘आज अगर पृथ्वी और उस पर बसे प्राणियों की सुरक्षा को लेकर हम चिंतित हैं तो इसका कारण वैज्ञानिक प्रगति नहीं, हममें उस दूरदृष्टि का अभाव है जो प्रगति को केवल भौतिक अर्थों में परिभाषित करती है। हम आपसी संबंधों को आदमी में नहीं, चीजों में ढूंढ रहे हैं।’
लता सुरगाथा पर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त करने वाले कवि यतींद्र मिश्र ने कहा कि हिंदी कविता की महान परंपरा के बीसवीं शताब्दी के सबसे उज्जवल प्रतीकों में वे एक थे। उनके निधन से नैतिकता और साहस की कविता का एक सबसे युगांतकारी समय समाप्त हो गया। वे सहजता से अपनी बात कह कर एक साथ इतिहास और मिथक में, मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन में, काफ्का और कवाफी तथा गांधी और गालिब में एक सी सार्थकता और वैचारिकता के साथ गमन कर लेते थे। भारत भूषण सम्मान व फिराक सम्मान से अलंकृत कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि वैचारिक त्वरा के स्तर पर कुंवर नारायण अज्ञेय की धारा के चिंतक कवि थे। उन्होंने साहित्य में गहरी मानवीयता और सभ्यता के प्रश्न उठाए।