बनवारी
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के चुनाव में दलवीर भंडारी की जीत का श्रेय निश्चय ही भारतीय विदेश मंत्रालय को दिया जाना चाहिए। उसकी लगन, आत्मविश्वास और आक्रामकता के कारण ही यह विजय मिली है। हमने न केवल संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्यों से संपर्क साधे रखा, हमारे विदेश मंत्री ने स्वयं अन्य 60 देशों के विदेश मंत्रियों से फोन पर बात की। हमारे विदेश विभाग ने इतने निश्चयपूर्वक पहले कभी शायद ही कोई अभियान चलाया हो। संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के लगभग दो तिहाई सदस्यों को अपने पक्ष में कर लेना साधारण बात नहीं थी। वह भी तब जब दूसरी तरफ ब्रिटेन का उम्मीदवार हो। ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र के मूल संस्थापकों में से एक है और वह सुरक्षा परिषद का सदस्य है। सुरक्षा परिषद के अन्य सभी स्थायी सदस्य उसकी पीठ पर थे। इसलिए भारत को जैसा बहुमत संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में प्राप्त हुआ, वैसा सुरक्षा परिषद में प्राप्त नहीं हुआ। सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में 9 का समर्थन हमें प्राप्त नहीं था।
ब्रिटेन अंत तक इस कोशिश में लगा रहा कि संयुक्त बैठक के एक तकनीकी प्रावधान का उपयोग करके अपने उम्मीदवार को विजयी बना ले। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के संविधान में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज के चुनाव के लिए संयुक्त राष्ट्र आमसभा और सुरक्षा परिषद के तीन-तीन सदस्यों को लेकर संयुक्त बैठक का प्रावधान तो है पर उसकी प्रक्रिया का कोई खुलासा नहीं है। वैसे भी ऐसा करना संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के विशाल बहुमत की अवहेलना करना होता। इसके लिए सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्य तैयार नहीं हुए। उसका एक कारण यह भी है कि संयुक्त बैठक की कार्यवाही खुली होती। अब तक चुनाव गोपनीय मतदान से हुआ था और उसमें यह पता नहीं लगता था कि किसने किसके पक्ष में मतदान किया है। खुली कार्यवाही में यह स्पष्ट हो जाता कि भारत से मैत्री का दावा करने वाले कौन-कौन से देश उसके विरुद्ध मतदान कर रहे हैं। इसलिए अंतिम क्षण में ब्रिटेन को अपना उम्मीदवार हटाना पड़ा। अपनी पराजय स्वीकार करते हुए ब्रिटेन ने भी यही कहा कि उसे संतोष है कि इस चुनाव में उसके ही एक मित्र देश का उम्मीदवार अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का सदस्य बनने जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र की एक औपचारिक संस्था है, जिसे उसके सामने लाए गए अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने और संयुक्त राष्ट्र आमसभा को न्यायिक परामर्श देने के लिए बनाया गया है। पिछले दिनों जब भारत पाकिस्तान में बंदी बनाकर रखे गए कुलभूषण जाधव का मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में लेकर गया था, तब हमारे यहां उसकी विशेष चर्चा हुई थी। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में दलवीर भंडारी की उपस्थिति से हमें कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान द्वारा फांसी पर चढ़ाने से फिलहाल रोकने में सफलता मिली थी। अब तक चार भारतीय जज अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सदस्य रह चुके हैं। 1952-53 में बेनेगल राव अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज बने थे। उसके बाद 1973 में नागेन्द्र सिंह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज चुने गए। बाद में वे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष चुन लिए गए थे। 1988 में उनका निधन हो गया और उनके बचे हुए कार्यकाल के लिए आर. एस. पाठक जज चुने गए। 1991 में वे पुर्नर्निवाचित नहीं हो पाए। उसके बाद भारत ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के चुनाव में कुछ समय के लिए रुचि लेना छोड़ दिया। 2012 में हुए चुनाव में भारत ने दलवीर भंडारी को अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित करवाया। उस समय जॉर्डन के जज को उनके देश में प्रधानमंत्री चुन लिया गया था, जिससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज का पद छोड़ना पड़ा था। बची अवधि के लिए हुए चुनाव में भारत अपना प्रतिनिधि चुनवाने में सफल रहा।
लेकिन इस बार का चुनाव अब तक के चुनाव से अधिक महत्वपूर्ण है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अब तक के 71 वर्ष के इतिहास में एक अपवाद को छोड़कर सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्यों के प्रतिनिधि हमेशा न्यायालय के सदस्य रहे हैं। यह अपवाद चीन का है। चीन 1967 में हुए चुनाव में अपने प्रतिनिधि को निर्वाचित करवाने में असफल रहा था। उसके बाद के दो चुनावों में उसने रुचि नहीं ली। इस तरह 1967 से 1985 तक की 18 वर्ष की अवधि में चीन का कोई प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में नहीं रहा। सुरक्षा परिषद के अन्य स्थायी सदस्यों की तरह ब्रिटेन का प्रतिनिधि भी सदा न्यायालय का अंग रहा है। यह पहली बार है कि ब्रिटेन को अपना उम्मीदवार निश्चित हार से बचाने के लिए चुनाव से हटाना पड़ा है। उसके उम्मीदवार की वापसी तक ब्रिटेन को सुरक्षा परिषद के अन्य सभी स्थायी सदस्यों का समर्थन मिला। ब्रिटेन को दिया गया यह समर्थन इस बात का प्रमाण है कि सुरक्षा परिषद के अन्य स्थायी सदस्यों को लग रहा था कि ब्रिटेन के हारने का अर्थ होगा, दूसरे विश्व युद्ध के बाद विजेता मित्र राष्ट्रों ने मिलकर अंतरराष्ट्रीय शक्ति तंत्र का जो ढांचा बनाया था, उसका दरकने लगना। सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्य इस स्थिति को बचाने में लगे थे क्योंकि उनमें से कोई अपने विशेषाधिकार कम होते देखना नहीं चाहता।
दो महायुद्धों की विभीषिका से उबरते हुए अंतरराष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था। अब तक विश्व के 193 देश इसका अंग हो चुके हैं। लेकिन दूसरे महायुद्ध के विजयी राष्ट्रों ने इसे अपने नियंत्रण में रखने के लिए उसकी एक विशेष संस्था सुरक्षा परिषद का गठन किया। यह प्रावधान किया गया कि दूसरे महायुद्ध के विजेता मित्र राष्ट्रों का नियंत्रण संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों पर सुनिश्चित करने के लिए उसके स्थायी सदस्यों के पास वीटो का विशेषाधिकार होना चाहिए। इस तरह अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन विश्व के नए चौधरी हो गए। 1971 तक साम्यवादी चीन की जगह राष्ट्रवादी ताइवान को सुरक्षा परिषद में रखा गया था। लेकिन राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल में सोवियत रूस और चीन के बीच की खाई को चौड़ा करने के लिए 1971 में अमेरिका ने चीन से नजदीकी बनाई और उसके बाद ताइवान की जगह साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बना दिया गया। पिछले काफी समय से सुरक्षा परिषद के स्वरूप को बदलने की मांग उठ रही है। यह जानते हुए कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य अपना विशेषाधिकार छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे यह दबाव बनाया जा रहा है कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की संख्या में ही कुछ और वृद्धि कर दी जाए। इसका सबसे मुखर विरोध चीन कर रहा है। लेकिन दूसरे सदस्य भी यह नहीं चाहते कि स्थायी सदस्यों में नए जोड़े जाने वाले देशों को वीटो का विशेषाधिकार मिले।
संयुक्त राष्ट्र की पूरी व्यवस्था में सुधार की मांग धीरे-धीरे बल पकड़ रही है। किसी भी सुधार के लिए संयुक्त राष्ट्र के दो तिहाई सदस्यों का बहुमत आवश्यक है। उसके बाद भी सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य जब तक सुधारों पर सहमत नहीं होते, तब तक उन्हें लागू नहीं किया जा सकता। अब तक संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के निर्णय प्रभावित करने में पश्चिमी शक्तियों को सफलता मिलती रही है। इसलिए जो देश सुरक्षा परिषद के स्वरूप को बदलना चाहते हैं, वे धीरे-धीरे इसके लिए माहौल बनाने में लगे रहे हैं। यह पहला मौका है जब यह दिखाई दिया कि संयुक्त राष्ट्र आमसभा का बड़ा बहुमत सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों से बंधा नहीं है और वह उनके विरुद्ध भी जा सकता है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के इस चुनाव में भारत को मिली विजय का महत्व बढ़ जाता है। इस चुनाव में भारत को 221 देशों का समर्थन मिला, जो उसके दो तिहाई बहुमत से सिर्फ छह कम था। इससे यह स्पष्ट हो गया कि अगर ठीक से माहौल बनाया गया तो सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए आमसभा के दो तिहाई सदस्यों का बहुमत भी हासिल किया जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी लगभग वैसी ही नियंत्रणकारी व्यवस्था है जैसी संयुक्त राष्ट्र के मूल ढांचे में दिखाई देती है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में 15 जज होते हैं, जिनमें से एक तिहाई का चुनाव हर तीन साल बाद 9 वर्ष के लिए किया जाता है। एक सामान्य नियम यह है कि एक देश से केवल एक जज ही न्यायालय में रह सकता है। न्यायालय के जजों के बारे में यह अनौपचारिक व्यवस्था है कि विभिन्न क्षेत्रों से एक निश्चित मात्रा में प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चुने जाएंगे। इस व्यवस्था के अनुसार पश्चिमी देशों के पांच प्रतिनिधि न्यायालय में होते हैं। दो प्रतिनिधि पूर्वी यूरोप से होते हैं और एक दक्षिणी अमेरिका से। तीन प्रतिनिधि अफ्रीका से होते हैं, जिनमें एक फ्रांसीसी सिविल लॉ का, एक अंग्रेजी कॉमन लॉ का और एक अरब लॉ का जानकार होना चाहिए। तीन जज एशिया से चुने जाते हैं और एक कैरिबियन देशों से। इस तरह यूरोपीय प्रभाव वाले देशों का न्यायालय में वर्चस्व रहता है। एशिया जो विश्व का सबसे विस्तृत और संख्या बहुल क्षेत्र है, उसे केवल तीन जज चुनने का अधिकार है। इस व्यवस्था में सुरक्षा परिषद के पांचों सदस्यों का न्यायालय में अपना प्रतिनिधि भेजना आसान बना रहता है। चीन एशिया के प्रतिनिधित्व की कीमत पर अपना जज भेजता रहा है।
दुनिया के अधिकांश देश आज भी अनेक तरह से पश्चिमी देशों पर निर्भर हैं और उनके अनुसार निर्णय करने को विवश होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देशों की आत्मनिर्भरता बढ़ रही है, उनमें इन नवउपनिवेशवादी व्यवस्थाओं को बदलने की इच्छा बढ़ती जा रही है। पिछले 60-70 वर्ष में विश्व में जनसंख्या के आधार पर जो परिवर्तन होते रहे हैं, उनसे पश्चिमी देशों का संकट बढ़ रहा है। उसका असर उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर भी हो रहा है। पश्चिमी देशों की आर्थिक वृद्धि दर थम गई है और उनका भविष्य संकटापन्न नजर आने लगा है। दूसरी तरफ शक्ति के नए केंद्र उभर रहे हैं और क्षेत्रीय स्तर पर नए गठबंधन बन रहे हैं। अब तक अमेरिका को अकेली महाशक्ति गिना जाता था। यह स्थिति बदलने के लिए बहुकेंद्री विश्व की बात की जाती थी। अब स्वयं अमेरिका को लग रहा है कि चीन एक चुनौती बनकर उभर रहा है, इसलिए क्षेत्रीय गठबंधनों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। ऐसा ही एक गठबंधन भारत, जापान, अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया को लेकर बनाने की पहल की जा रही है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर नियंत्रण बढ़ाने के लिए एक तरफ चीन ने वन बेल्ट-वन रोड योजना के अंतर्गत पहल की है, दूसरी तरफ भारत और जापान मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र को एक नए व्यापारिक मार्ग के रूप में विकसित करने में लगे हैं, जिससे अफ्रीकी बाजार तक पहुंच बनाई जा सके।
ये सब परिवर्तन जैसे-जैसे मूर्त स्वरूप लेते जाएंगे, अंतरराष्ट्रीय शक्ति तंत्र का स्वरूप बदलेगा। दूसरे महायुद्ध के बाद विजयी मित्र राष्ट्रों ने जो व्यवस्थाएं बनाई थीं, वे पिछले सात दशक से चल रही हैं। सबको दिखने लगा है कि ये व्यवस्थाएं मित्र राष्ट्रों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए बनाई थीं। अब वे विश्व की प्रगति की दिशा में बाधक होती जा रही हैं। अब तक इस व्यवस्था में भारत की कोई जगह नहीं थी। अब भारत एक महाशक्ति के रूप में उभरता दिखाई देने लगा है। एक उन्नत मूल्यों वाली सभ्यता के रूप में भारत को सदा सम्मान प्राप्त रहा है। लेकिन अब उसे एक सामरिक और आर्थिक महाशक्ति के रूप में भी देखा जाने लगा है। दुनिया के देशों में भारत की साख ऊंची है। उसे औरों की तुलना में अधिक विश्वसनीय माना जाता है। इसलिए पुरानी व्यवस्था को चुनौती देने का वह माध्यम बन सकता है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के चुनाव में उसके प्रतिनिधि को मिला विशाल समर्थन इसी बात का प्रतीक है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के चुनाव में इस जीत से भारत का आत्मविश्वास बढ़ा है। इसका असर उसकी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की आकांक्षा पर भी पड़ेगा और वह अधिक आक्रामक तरीके से उसके लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर सकेगा। अब तक सुरक्षा परिषद के चार स्थायी सदस्य उसे सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाए जाने के लिए अपना समर्थन देने की घोषणा कर चुके हैं। अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन ने अनेक बार घोषणा की है कि वे भारत की सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के लिए दावेदारी का समर्थन करते हैं। भारत के साथ-साथ तीन अन्य देशों की दावेदारी है। भारत के अलावा ब्राजील, जर्मनी और जापान को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने की बात होती रही है। चीन जापान को किसी कीमत पर सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने नहीं देना चाहता। इसलिए वह सुरक्षा परिषद के सुधारों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। अमेरिका भी किसी नए सदस्य को वीटो का अधिकार दिए जाने में आनाकानी दिखाता रहा है। भारत समेत ये चारों देश जी-4 के रूप में अब तक संगठित कोशिश करते रहे हैं। अब इस दिशा में और तेजी से कदम उठाने की आवश्यकता है।