स्वामी चैतन्य कीर्ति।
आजकल हम अपने जन्मदिवस बहुत शौक से और तामझाम के साथ मनाने लगे हैं। आजकल की फेसबुक जेनरेशन, जिसे सेल्फी की सुविधा उपलब्ध हो गई है, वह तो नार्सिसस से भी आगे निकल गई है। यह घटना भारत के लंबे इतिहास में पहली बार घटित हुई है। इसके पहले तो हमारे देश के लोग अपने महापुरुषों के ही जन्मदिन मनाने में उत्साह दिखाते थे- विशेषकर उनके जिनके जन्म की तिथि या निर्वाण-तिथि का स्पष्ट रूप से पता भी नहीं होता था, या जिनकी तिथियों के संबंध में विवाद होता था। मेरे कहने का अभिप्राय है कि हम उन महापुरुषों या बुद्धपुरुषों के जन्मदिन या पुण्यतिथि मनाते थे, जो जन्म और मृत्यु से ऊपर उठ गए थे। हमें इतना तो मालूम है कि बुद्ध पूर्णिमा के दिन पैदा हुए, पूर्णिमा के दिन उन्हें संबोधि उपलब्ध हुई और पूर्णिमा के दिन महापरिनिर्वाण में उन्होंने प्रवेश किया। लेकिन वह दिन कौन सा था, क्या तारीख थी, किसी को पता नहीं। बुद्धपूर्णिमा हर वर्ष अलग अलग तारीख को होती है। भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को जन्मे, यह तारीख भी हर वर्ष बदल जाती है। इसलिए हमारे देश के लोग तारीखों में बहुत आस्था नहीं रखते हैं, इतिहास की बहुत फिक्र नहीं करते हैं। वे तो अपने रहस्यदर्शियों का जन्म अथवा पुण्यतिथि मनाकर उस भावदशा में प्रवेश करना चाहते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु का बहुत महत्व नहीं होता- जहां अमरत्व का महत्व है।
आज के युग के संबुद्ध रहस्यदर्शी ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को हुआ और उनके देह-त्याग की तिथि है 19 जनवरी 1990… लेकिन उनकी समाधि पर जो शब्द अंकित हैं वे हैं : नेवर बॉर्न, नेवर डाइड। ओनली विजिटेड दिस प्लेनेट अर्थ… ओशो : जो न जन्मे और न मरे, पृथ्वी ग्रह पर केवल भ्रमण किया…। ये शब्द स्वयं ओशो ने दिए और हमें स्मरण दिलाया कि जो व्यक्ति भी अपने जीवनकाल में संबोधि अथवा महापरिनिर्वाण को उपलब्ध होता है, वह सदा सदा के लिए स्मरणीय हो जाता है। उसके जन्म मृत्यु की तिथियों का स्मरण रखने की बजाय हमें उस चैतन्य का स्मरण रखना है जो जन्म मरण के पार है। भारत के ऋषि और मनीषि उन्हें अमृतस्य पुत्र: की संज्ञा देते हैं। ओशो 21 मार्च 1953 को जबलपुर में संबोधि को उपलब्ध हुए। तब उनकी उम्र केवल इक्कीस वर्ष की थी। ओशो 1957 तक जबलपुर में रहे लेकिन वहां रहते हुए एक कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। वे देश के विभिन्न शहरों में प्रवचन देने जाते और सत्य के साधकों को ध्यान सिखाते। 1970 में वे मुंबई आ गए जहां उनके प्रवचन नियमित रूप से होते थे। वहां रहते हुए उन्होंने मनाली, माऊंट आबू, माथेरान,महाबलेश्वर जैसे रमणीय स्थानों पर ध्यान शिविरों में साधकों को ध्यान सिखाकर अपने नव-संन्यास में दीक्षित किया। इस दौरान उन्होंने गीता, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान महावीर, लाओत्से, भगवान शिव के विज्ञान भैरव तंत्र तथा उपनिषदों पर प्रवचन दिए। उनके ये प्रवचन इतने क्रांतिकारी तथा जादुई थे कि समूचे भारत में प्रतिभाशाली प्रबुद्ध लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग ओशो से जुड़ गया।
मार्च 1974 में पुणे में उनके आश्रम की स्थापना हुई जहां विश्वभर से हजारों साधक आकर ध्यान से अपने जीवन को रूपांतरित करने लगे। पुणे उन दिनों विश्व की आध्यात्मिक राजधानी बन गया। 1981 में ओशो ने अमेरिका प्रस्थान किया। वहां उनके प्रेमियों ने 126 वर्गमील जमीन पर रजनीशपुरम् की स्थापना की और उन्हें 93 रॉल्स रायस गाड़ियां भेंट कीं। वहां उनके हजारों शिष्य एकत्रित होने लगे। ऐसे अभूतपूर्व दृश्य को देखकर अमेरिका की सरकार घबरा गई और ईसाइयत के दबाव में आकर ओशो के नगर को उजाड़ने के लिए सक्रिय हो गई। ओशो को बारह दिन तक बिना वारंट जेल में रखा। अंतत: 1985 के दिसंबर महीने में ओशो भारत लौट आए। ओशो के भारतीय शिष्य अत्यंत आह्लादित हुए तथा विश्वभर से लाखों शिष्य फिर भारत आने लगे। चार जनवरी 1987 को विश्व के इक्कीस देशों के भ्रमण के बाद ओशो पुन: अपनी कर्मभूमि पुणे लौट आए और उनके आश्रम का नाम बदलकर ओशो इंटरनेशनल कम्यून हो गया।
अपनी देहत्याग के पूर्व तीन वर्ष तक ओशो ने अपने ‘दस हजार बुद्धों’ के साथ कम्यून के ऊर्जा क्षेत्र को इतना अधिक जीवंत बना दिया जैसा कभी लोगों ने भगवान बुद्ध के समय अनुभव किया होगा। ऐसी अनूठी घटना ढाई हजार वर्ष बाद पृथ्वी पर पुन: घटित हुई जो चिरंतन काल तक स्मरणीय बनी रहेगी।
(लेखक ‘ओशो वर्ल्ड’ पत्रिका के संपादक हैं)