बनवारी
मार्क्सवादियों ने राजनीति को रणनीति में बदलने की कला सिद्ध कर ली है। लेकिन इस कला में माहिर माने जाने वाले खड्ग प्रसाद शर्मा ओली इस बार पुष्प कमल दहाल से मात खा गए। नेपाल के आम चुनाव के दो महीने बाद जब ओली को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला तो ऐन मौके पर पुष्प कमल दहाल और उनकी पार्टी ने उनकी सरकार में शामिल होने से मना कर दिया। आम चुनाव में ओली की पार्टी बहुमत से कुछ पीछे रह गई थी और अल्पमत सरकार चलाना कोई बुद्धिमानी नहीं थी। अंतत: उन्होंने दहाल की अधिकांश मांगें मान लीं। इससे दहाल की पार्टी माओवादी केंद्र का सरकार में शामिल होने का रास्ता खुल गया है। दोनों पार्टियों ने परस्पर विलय के द्वारा एक नई एकीकृत पार्टी बनाने का निश्चय किया है। यह तय किया गया है कि संसद में अपनी बड़ी संख्या के कारण ओली पहले तीन वर्ष के लिए प्रधानमंत्री रहेंगे। उसके बाद वे पुष्प कमल दहाल के लिए पद छोड़ देंगे और शेष दो वर्ष दहाल नेपाल के प्रधानमंत्री होंगे। नेपाल के राष्ट्रपति के पद पर ओली की पार्टी उम्मीदवार नामजद करेगी और संसद के अध्यक्ष पद के लिए पुष्प कमल दहाल की पार्टी। उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार दहाल की पार्टी का होगा और संसद के उपाध्यक्ष का पद ओली की पार्टी को जाएगा। लेकिन एकीकृत पार्टी के अध्यक्ष पद के बारे में कोई निर्णय नहीं हो पाया। अभी यह तय हुआ है कि ओली और दहाल दोनों को अध्यक्ष माना जाएगा और वे बारी-बारी से संगठन की बैठकों की अध्यक्षता करेंगे।
नेपाल में आम चुनाव से पहले नेपाली कांग्रेस और माओवादी केंद्र की मिलीजुली सरकार थी। सरकार में रहते हुए कमल पुष्प दहाल की पार्टी ने ओली की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एमाले से मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। उनका यह फैसला अवसरवादी भले रहा हो, पर एक चतुर राजनैतिक फैसला था। सब जानते थे कि नेपाल की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ेंगी तो आसानी से बहुमत प्राप्त कर लेंगी। दोनों के साथ आने से नेपाल में एक स्थाई सरकार बनने की आशा पैदा हुई। दोनों पार्टियों ने सीटों के बंटवारे का फैसला भी आसानी से कर लिया। ओली की पार्टी 60 प्रतिशत सीटों पर लड़ी और दहाल की पार्टी 40 प्रतिशत सीटों पर। लेकिन चुनाव में ओली की पार्टी को जितनी बड़ी विजय मिली, उतनी दहाल की पार्टी को नहीं मिली। सीधे चुनाव वाली 165 सीटों में से ओली की पार्टी 80 सीटों पर विजयी रही और दहाल की पार्टी केवल 36 सीटों पर। मिलकर चुनाव लड़ने के कारण सीधे चुनाव में माओवादी केंद्र को नेपाली कांग्रेस से अधिक सीटें मिल गई थीं, जबकि नेपाली कांग्रेस का जनाधार उससे बड़ा है। वह आनुपातिक चुनाव में लक्षित भी हुआ। ओली की पार्टी के सवा तैंतीस प्रतिशत वोट के मुकाबले नेपाली कांग्रेस को पौने तैंतीस प्रतिशत वोट मिले थे और माओवादी केंद्र को केवल साढ़े 13 प्रतिशत वोट मिल पाए थे। दोनों गणनाओं को मिलाकर अंतत: संसद में ओली की पार्टी को 121 सीटें मिलीं, नेपाली कांग्रेस को 63 और माओवादी केंद्र को 53। इस तरह एमाले के पास जहां 44 प्रतिशत सांसद हैं वहीं माओवादी केंद्र के पास 20 प्रतिशत से भी कम सांसद हैं। फिर भी वह सत्ता में अपनी हैसियत से अधिक पाने में सफल हो गई है।
दोनों पार्टियों के विलय की घोषणा पर उनके आठ नेताओं के हस्ताक्षर हैं। इनमें से पांच एमाले के हैं और तीन माओवादी केंद्र के। इससे स्पष्ट है कि दोनों पार्टियों में ओली और दहाल के अतिरिक्त भी ऐसे अनेक कद्दावर नेता है, जिनका स्वतंत्र जनाधार है और सत्ता में साझेदारी के समय उनका संतुष्ट रहना आवश्यक है। माओवादी केंद्र में ही ऐसे कई नेता हैं, जो चाहेंगे कि ओली की सरकार में उन्हें उप प्रधानमंत्री का दर्जा दिया जाए। अभी दोनों पार्टियों के साथ आने से जो अनुकूल वातावरण बना है, उसे कोई महत्वाकांक्षी नेता बिगाड़ कर खलनायक नहीं दिखना चाहेगा। लेकिन साल डेढ़ साल में कम्युनिस्ट पार्टियों की दरारें उभरने लगें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। दुनियाभर में कम्युनिस्ट आंदोलन में मिलने और बिखरने की लंबी परंपरा रही है। नेपाल में भी कम्युनिस्ट पार्टियां मिलती बिखरती रही हैं। इसलिए दोनों पार्टियों का विलय एक समरस पार्टी की ओर ले जाएगा, अभी यह आशा कोई नहीं करेगा। ओली और दहाल में प्रधानमंत्री के पद को लेकर तीन और दो वर्ष का जो फैसला हुआ है, उसी से स्पष्ट है कि एक पार्टी के भीतर दो पार्टी बनी रहेंगी। इसलिए दोनों पार्टियों की यह एकता कितने दिन चलेगी, यह सरकार की लोकप्रियता पर निर्भर करेगा। अगर सरकार के कार्यों से आम लोगों में असंतोष पैदा होना आरंभ हुआ तो भीतर की दरारें चौड़ी होने लगेंगी। तब यह एकीकृत पार्टी दो से भी अधिक दिशाओं में जाती दिख सकती है।
इस समय सदन में दोनों पार्टियों का विशाल बहुमत है। 275 के सदन में उन दोनों के कुल 174 सांसद हैं। इस तरह उनके पास दो तिहाई बहुमत से केवल दस सांसद कम हैं। दो तिहाई बहुमत न होने से संवैधानिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं से छेड़छाड़ की कोशिश पर कुछ अंकुश अवश्य लगेगा। लेकिन राष्ट्रीय और प्रांतीय परिषदों में उनके पास जो बड़ा बहुमत है, उसके आधार पर वे सत्ता के सभी क्षेत्रों में अपने लोग भरने में सफल हो जाएंगे। इस तरह पहली बार नेपाल में कम्युनिस्टों का सत्ता के सभी क्षेत्रों पर पूरा नियंत्रण रहेगा। न्यायपालिका में अब तक राजनैतिक व्यक्ति भरे जाते रहे हैं। सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टियों की पूरी पकड़ के बाद यह सिलसिला और आगे बढ़ेगा। अगर एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी में किसी एक व्यक्ति का सर्वमान्य नेतृत्व होता तो नेपाल उसी सर्वसत्तावादी रास्ते पर जा सकता था, जिस पर दूसरे कम्युनिस्ट देश गए हैं। लेकिन एक तो नेपाल की सेना में मनमाना हस्तक्षेप करना कम्युनिस्ट नेताओं के लिए आसान नहीं होगा। दूसरे सत्ता पर भले उनकी पकड़ पूरी हो, सत्ता के बाहर उनके सामने नेपाली कांग्रेस की चुनौती रहेगी। सत्ता से बाहर होने के कारण नेपाली कांग्रेस सभी लोकतंत्रवादी शक्तियों को एकजुट करने में सफल हो सकती है और अगर कम्युनिस्ट नेता देश के सांस्थानिक ढांचे से कोई खिलवाड़ करते हैं तो वह उनकी बाधा बन सकती है।
नेपाल की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को एक साथ लाने में चीन की भूमिका रही है। प्रधानमंत्री ओली तो खुलकर चीन की ओर झुके हुए हैं। अभी उन्होंने हांगकांग के एक अखबार को साक्षात्कार देते हुए कहा कि उनकी सरकार भारत से अपने संबंधों की फिर से समीक्षा करेगी और अनेक बातों का फिर से निर्धारण किया जाएगा। ओली को लगता है कि नेपाल का आम कम्युनिस्ट कार्यकर्ता चीन के कम्युनिस्ट शासन की ओर आकर्षित है और उनका चीन समर्थक होना उन्हें राजनैतिक फायदा पहुंचा सकता है। पार्टी में इस नाते उनकी स्थिति मजबूत हो सकती है। जनता के उस वर्ग का भी उन्हें समर्थन मिल सकता है, जो अनेक कारणों से भारत से रुष्ट है। लेकिन यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहेगी, यह कहना मुश्किल है। नेपाल के सब कम्युनिस्ट नेता चीन समर्थक और भारत विरोधी नहीं हैं। वैसे भी भारत और चीन को लेकर नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं का रुख सैद्धांतिक आधार पर तय नहीं होता, गुटीय प्रतिस्पर्धा के आधार पर तय होता है। माओवादी केंद्र के नेता पुष्प कमल दहाल चीन के अनुकरण पर ही सशस्त्र क्रांति की ओर झुके थे। पहली बार प्रधानमंत्री रहते हुए उनका झुकाव चीन की ओर ही था। लेकिन जब ओली प्रधानमंत्री बने और चीन की ओर झुके तो दहाल भारत समर्थक हो गए। अब आगे उनकी नीति क्या होगी, अभी नहीं कहा जा सकता। नेपाल के कम्युनिस्ट आंदोलन के सभी नेताओं की राजनैतिक दीक्षा भारत में ही हुई है। वे भारत के मुकाबले चीन के पक्षधर नहीं हैं, भारत सरकार और चीन सरकार के बीच पाला बदलते रहते हैं।
ओली के पिछले शासनकाल में नेपाल चीन की ओर काफी झुका हुआ था। नेपाल चीन की वन वेल्ट-वन रोड योजना का अंग बन चुका है। चीन बड़े पैमाने पर नेपाल में निवेश कर रहा है। वह तिब्बत से होकर नेपाल तक यातायात की सुविधाओं का विकास करने में लगा है। इन सुविधाओं के विकसित हो जाने के बाद भारत पर नेपाल की निर्भरता कम की जा सकेगी। भारत को चारों ओर से घेरने के अभियान में नेपाल का चीन के लिए काफी महत्व है। अभी नेपाल के अनेक नेताओं को लगता है कि चीन से सहयोग नेपाल को अधिक तेजी से आर्थिक विकास की ओर ले जाएगा। चीन के पास वित्तीय साधन हैं और वह दूसरे देशों में अपने वित्तीय साधनों के आधार पर अपने प्रभाव का विस्तार करने में लगा है। लेकिन अधिकांश देशों का अनुभव यही है कि चीन के वित्तीय साधनों की आर्थिक लागत काफी है। आसानी से प्राप्त हो रहे अरबों डॉलर पाने के लोभ में देश अपने आपको उसके कर्ज में फंसाते जा रहे हैं और उसी के आधार पर चीन उनकी परिसंपत्तियों को अपने नियंत्रण में लेता चला जा रहा है। नेपाल की अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में यह खतरा और बड़ा है। देर-सबेर चीन के वित्तीय साधनों का बोझ असंतोष पैदा करेगा और वह असंतोष नेपाल के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए घातक सिद्ध होगा। नेपाल का राजनैतिक तंत्र राष्ट्रवादी रहा है और नेपाल के हितों को कोई नुकसान अनदेखा नहीं रहने वाला।
नेपाल में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय की औपचारिक घोषणा अगले कुछ समय में होगी और उससे एक स्थायी कम्युनिस्ट शासन का रास्ता प्रशस्त होने की आशा की जा रही है। नेपाल के लोगों के लगभग 45 प्रतिशत वोटों के समर्थन से बनी यह सरकार कम से कम पहले वर्ष तो आम लोगों की अनुकूलता प्राप्त करने में सफल रहेगी। इस वर्ष का उपयोग शासन में बैठे कम्युनिस्ट नेता किस तरह करते हैं, उसी पर उनका भविष्य निर्भर करेगा। अगर उसका इस्तेमाल वे संवैधानिक व्यवस्थाओं में छेड़छाड़ के लिए करते हैं तो उसके उल्टे नतीजे भी निकल सकते हैं। नई सरकार के सामने राजनैतिक चुनौतियां कम नहीं हैं। उन्हें राष्ट्रीय और प्रांतीय दोनों स्तरों पर भारी विजय मिली है। लेकिन पहली बार प्रांतीय सरकारें बन रही हैं और राष्ट्रीय साधनों के बंटवारे में उनमें काफी खींचतान होनी तय है। प्रधानमंत्री ओली को प्रांतीय नेतृत्व को संभालने में अपनी काफी ऊर्जा खर्च करनी होगी। नेपाल को संघीय राजनीति का कोई अनुभव नहीं है। उसके सभी प्रांत आर्थिक विकास की दृष्टि से एक से नहीं है। इसके बाद सबसे बड़ी समस्या मधेश की है। अब तक मधेश की बड़ी जनसंख्या को नागरिकता का दर्जा देने में आनाकानी दिखाई जाती रही है। नेपाल के पहाड़ी नेताओं ने तराई के नेताओं के साथ सदा भेदभाव किया है। बहुदलीय व्यवस्था में लोगों को अधिक समय तक उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता। नेपाल के कम्युनिस्ट मधेश के लोगों को सभी राजनैतिक अधिकार देने की वकालत करते रहे हैं। अब उन्हें इसे अमल में उतारना पड़ेगा वरना उन्हें तराई के लोगों के आक्रोश का फिर से सामना करना पड़ सकता है।
भारत में ओली के शासन को लेकर आशाएं कम हैं, आशंकाएं अधिक हैं। अपनी तरफ से भारत सरकार ने यह संकेत देने की कोशिश की है कि वह ओली सरकार के बारे में कोई पूर्वग्रह लेकर नहीं चल रही। यह बताने के लिए ही कुछ दिन पहले सुषमा स्वराज ने नेपाल की यात्रा की थी। फिर भी भारत सरकार को यह मानकर चलना होगा कि नेपाल की यह नई सरकार भारतीय हितों की अनदेखी कर सकती है। लेकिन अभी भारत सरकार को धैर्यपूर्वक नेपाल की नई सरकार के कामकाज की समीक्षा करनी चाहिए और उसे अपना राजनैतिक व्यवहार स्थिर करने के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। भारत अब तक मधेशी लोगों के अधिकारों के प्रति आग्रही रहा है। वैसे सभी नेपाली वृहद भारतीय परिवार का ही अंग हैं, लेकिन मधेश के लोगों के साथ हमारे सामाजिक और आर्थिक संबंध नित्य के हैं। उनके साथ नेपाल में जो भेदभाव दिखाया जाता रहा है, उसके प्रति भारत सरकार को संवेदनशील रहना ही चाहिए। अपनी मार्क्सवादी आस्थाओं के कारण नेपाल के कम्युनिस्ट वहां के सांस्कृतिक जीवन में भी परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत की सामाजिक संस्थाओं को मधेशी ही नहीं पूरे नेपाली समाज से अपने सामाजिक सूत्र और अधिक मजबूत करने की कोशिश करनी होगी। नेपाल की सभ्यता को दृष्टि बदलने नहीं देनी चाहिए। राजशाही पलटने के बाद लोगों की धार्मिक आस्थाओं और सांस्थानिक व्यवस्थाओं को भी बदलने की कम्युनिस्ट नेताओं ने कोशिश की है। उसकी ओर नेपाल के व्यापक समाज का ध्यान खींचा जाना चाहिए।