बनवारी
अब तक की कांग्रेस सरकार तिब्बत को लेकर जिस तरह की दुविधा में फंसी रही है, नरेंद्र मोदी सरकार भी उसी दुविधा से घिरती दिखाई दे रही है। तिब्बत पर चीन के आक्रमण के बाद निर्वासित होकर 30 मार्च, 1959 को दलाई लामा भारत आए थे। उस समय की नेहरू सरकार ने एक तरफ तिब्बत पर चीन का अनुचित अधिकार स्वीकार कर लिया, दूसरी तरफ उसकी ग्लानि से बचने के लिए चीन से निर्वासित होकर भारत आए दलाई लामा और उनके अस्सी हजार देशवासियों को अपने यहां शरण दी। पिछले साठ वर्ष से दलाई लामा और अन्य तिब्बती भारत में रह रहे हैं। कुछ समय पहले तक दलाई लामा तिब्बत के शासक और धर्मगुरु दोनों थे। अब उन्होंने अपने राजनीतिक दायित्व छोड़ दिए हैं। तिब्बतियों की निर्वासित सरकार है। निर्वासन के पिछले साठ वर्ष में तिब्बतियों को भारत सरकार और यहां के लोगों का जो प्रेम और सहयोग प्राप्त हुआ है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिए साल भर तक अनेक कार्यक्रम करने का निर्णय लिया है। उसी के तहत एक अप्रैल को दिल्ली के त्यागराज खेल परिसर में एक समारोह आयोजित होने वाला था जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, वर्तमान गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू और अन्य गण्यमान्य नेताओं व बुद्धिजीवियों को बुलाए जाने की योजना थी। इसके अलावा राजघाट पर एक सर्वधर्म सभा भी आयोजित की जाने वाली थी।
भारत के विदेश मंत्रालय को इन समारोहों के कारण चीन के भड़कने की आशंका लगी। विदेश सचिव विजय गोखले ने कैबिनेट सचिव को भेजे नोट में यह आशंका जताई और उनसे आग्रह किया कि केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया जाए कि वे इन समारोहों से खुद को अलग रखें। कैबिनेट सचिव वीके सिन्हा ने 22 फरवरी को एक गोपनीय पत्र केंद्रीय कार्यालयों और राज्य सरकारों को भेजा जिसमें कहा गया था कि इस समय भारत और चीन के संबंध बहुत नाजुक स्थिति में हैं। इसलिए तिब्बत की निर्वासित सरकार के आभार प्रदर्शन के उपलक्ष्य में आयोजित सभी समारोहों से दूर रहा जाए। यह गोपनीय पत्र जारी होने के एक दिन बाद विदेश सचिव चीन चले गए जहां उनकी चीन के उप विदेश मंत्री से भेंट हुई। उसके बाद वे चीन के विदेश मंत्री और विदेश सलाहकार से मिले। यह माना जा रहा है कि उन्होंने भारत सरकार के इस कदम की सूचना चीन सरकार से साझा की होगी और आशा की होगी कि इससे भारत और चीन के संबंधों पर सकारात्मक प्रभाव पडेÞगा।
दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार में दो मार्च को इस गोपनीय पत्र की सूचना छपी। इस खबर के बाद न केवल भारत के भीतर आम लोगों में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गलत संदेश गया होगा। इसलिए तीन मार्च को भारत सरकार की ओर से यह स्पष्टीकरण जारी किया गया कि भारत की दलाई लामा संबंधी नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। भारत सरकार उन्हें एक धर्म गुरु के रूप में पूर्ण आदर देती है और भारत के लोगों की उनमें बड़ी श्रद्धा है। इस कारण वे अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इस स्पष्टीकरण में सरकार की गोपनीय चिट्ठी के बारे में चुप्पी बनाए रखी गई थी। भारत सरकार ने तिब्बत की निर्वासित सरकार को तो इन कार्यक्रमों के बारे में कुछ नहीं कहा लेकिन केंद्र सरकार के गोपनीय पत्र की सूचना सार्वजनिक होने के बाद तिब्बत की निर्वासित सरकार ने त्यागराज खेल परिसर में होने वाला कार्यक्रम धर्मशाला स्थानांतरित कर दिया और राजघाट का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। उनकी ओर से केवल यह कहा गया कि वे भारत सरकार की स्थिति को समझते हैं और स्वेच्छा से उन्होंने दिल्ली में होने वाले आभार प्रदर्शन कार्यक्रम धर्मशाला स्थानांतरित कर दिए हैं।
इस पूरे प्रकरण से भारत और चीन के संबंधों में कोई सकारात्मक मोड़ आएगा, यह आशा करना व्यर्थ है। लेकिन इस कारण चीन के सामने हमारी कमजोरी अवश्य प्रकट हुई है। यह सही है कि डोकलाम तनाव के बाद भारत और चीन के संबंध नाजुक बने हुए हैं। उन्हें और बिगड़ने देना इस समय न भारत के हित में है, न चीन के। यह भी सही है कि तिब्बत को लेकर चीन बहुत आशंकित रहता है। अगर तिब्बत की निर्वासित सरकार के आभार प्रदर्शन कार्यक्रमों में सरकारी स्तर पर नेताओं या दूसरे लोगों की साझेदारी होती और उनमें कोई किसी तरह की अतिरंजित भाषा बोल देता तो उसका भारत और चीन के संबंधों पर बुरा असर पड़ सकता है। लेकिन इस स्थिति को बचाने का यह तरीका नहीं था जो हमारी नौकरशाही द्वारा अपनाया गया। कैबिनेट सचिव की ओर से जिस बड़े पैमाने पर यह पत्र भेजा गया था उसके गोपनीय रहने की गुंजाइश नहीं थी। सरकारी तंत्र को इन समारोहों में मर्यादित भाषा बरतने या समारोहों से अलग रहने के संकेत किसी और तरह भी दिए जा सकते थे। अगर हमारा सरकारी तंत्र इस तरह की औपचारिक चिट्ठी के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, यह नहीं समझता तो उसकी दक्षता पर गंभीर सवाल उठते हैं।
इन दिनों भारत और चीन के संबंधों को लेकर दो तरह की बातें कही जा रही हैं। हाल ही में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि डोकलाम को लेकर स्थिति अभी पूरी तरह सामान्य नहीं हुई है। चीन सरकार तनाव की जगह से कुछ दूरी पर अपने सैनिकों को घोर सर्दियों में भी बनाए रखने के लिए कुछ पक्के निर्माण करवा चुकी है। भारत को भी इस क्षेत्र में अपनी बराबर की सैनिक उपस्थिति बनाए रखनी पड़ रही है। इससे स्थिति नाजुक बनी रहती है और यह आशंका भी बनी रहती है कि कोई भी घटना तनाव बढ़ा सकती है। कैबिनेट सचिव वीके सिन्हा के पत्र में यह कहा भी गया है कि साल भर के आभार प्रदर्शन के कार्यक्रम की अवधि के दौरान भारत और चीन के संबंधों के नाजुक बने रहने की आशंका है। इस आशंका को देखते हुए भारत सरकार स्थिति को बिगड़ने न देने की कोशिश करे, यह समझ में आता है। लेकिन अब तक के चीन के अनुभव से हमें यह भी समझ में आना चाहिए कि हम अपनी दृढ़ता से ही चीन को समझा सकते हैं, अपनी दुविधा से नहीं।
भारत और चीन के संबंधों को लेकर दूसरी बात यह कही जा रही है कि पिछले दिनों चीन के भारत संबंधी दृष्टिकोण में थोड़ा सकारात्मक परिवर्तन हुआ है। यह मानने का एक आधार एफएटीएफ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) की हाल की बैठक है। इस बैठक में अमेरिका ने एक प्रस्ताव रखा था कि पाकिस्तान को आतंकवादियों को आर्थिक मदद देने वाले देशों की काली सूची में डाल दिया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव का ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने समर्थन किया जबकि तुर्की, चीन और सऊदी अरब ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। भारत एफएटीएफ का केवल परिवेक्षक है, वह अभी इसका सदस्य नहीं बना है। लेकिन भारत और अमेरिका के राजनयिक दबाव के कारण सऊदी अरब और चीन तटस्थ हो गए। चीन एफएटीएफ का उपाध्यक्ष बनना चाहता था इसलिए यह समझौता करने के लिए तैयार हुआ। उसने पाकिस्तान के समर्थन से हाथ खींच लिए। परिणामस्वरूप पाकिस्तान को निगरानी सूची में डाल दिया गया। अगले तीन महीने में उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह आतंकवादियों को वित्तीय साधन उपलब्ध नहीं करवा रहा। वरना उसे काली सूची में डाल दिया जाएगा और उसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से कर्ज और वित्तीय सहायता मिलना मुश्किल हो जाएगा।
एफएटीएफ की बैठक में चीन द्वारा पाकिस्तान के समर्थन से हाथ खींचने को उसकी नीति में एक सकारात्मक परिवर्तन माना गया और यह आशा की जाने लगी कि भारत और चीन के संबंधों को सुधारा जा सकता है। तीन महीने बाद शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन जाने वाले हैं। भारत के विदेश मंत्रालय की यह जिम्मेदारी है कि वह प्रधानमंत्री की इस यात्रा को अधिक से अधिक सफल बनाने की कोशिश करे। विदेश मंत्रालय अपनी इस जिम्मेदारी को देखते हुए कुछ अतिरिक्त सावधानी बरत रहा है। ऐसा लगता है कि इसी कोशिश में विदेश सचिव ने थोड़ी हड़बड़ी दिखाते हुए कैबिनेट सचिव से यह गोपनीय पत्र जारी करवा दिया। अब तक भारत सरकार चीन को लेकर काफी संतुलित नीति पर चल रही थी। उसने चीन के दबाव में आए बिना हर मुद्दे पर अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाया है। पिछले कुछ समय से भारत सरकार चीन की भारत को घेरने की कोशिश का सफलतापूर्वक प्रतिकार कर रही है। अगर हम अपनी इस नीति से जरा भी भटकते हैं और चीन के सामने अपनी कमजोरी प्रकट करते हैं तो चीन की आक्रामकता बढ़ेगी और वह अरुणाचल प्रदेश को लेकर जैसी आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करता रहा है, उसमें और तेजी आएगी।
यह सही है कि मोदी सरकार के हाथ तिब्बत के बारे में नेहरू सरकार ने चीन के सामने घुटने टेकते हुए जो नीति बनाई थी, उससे बंधे हुए हैं। लेकिन भारत सरकार को यह याद रखना चाहिए कि आम भारतीय तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को अनुचित मानता है और भारत के लोग तिब्बत की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। भारत में दलाई लामा को लेकर आदर का भाव है और दलाई लामा ने भी सदा भारतीय सभ्यता के प्रति अपना आदर प्रकट किया है। वे बहुत संतुलित और विवेकशील व्यक्ति हैं और भारत में निवास के दौरान उन्होंने कभी अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया। भारत में यह विश्वास है कि चीन सदा तिब्बत को अपने आधिपत्य में नहीं रख पाएगा। सभी उपनिवेशी शासनों का एक न एक दिन अंत होता है। चीन के औपनिवेशिक शासन का भी होगा। चीन की सभ्यता सदा अंतर्मुखी रही है और चीन अपनी सीमाओं में रहकर ही अपनी सुरक्षा देखता रहा है। यह पहला अवसर है जब चीन का मार्क्सवादी राज्य विस्तारवादी नीतियों पर चल रहा है। आज के चीन का 55 प्रतिशत भाग उसकी परंपरागत सीमाओं से बाहर का जबरन हथियाया हुआ है। शिंजियांग और तिब्बत दोनों ऐसे क्षेत्र हैं जहां के लोग चीन के औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हैं। इन क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थिति भी ऐसी है कि चीन के शासक उन पर बहुत लंबे समय तक नियंत्रण नहीं रख पाएंगे।
सदियों की पराधीनता की ग्लानि से उबरने के लिए चीन के मार्क्सवादी नेताओं ने बड़ी महत्वाकांक्षाएं पाल रखी हैं। उन्हें 19वीं सदी में यूरोपीय शक्तियों के सामने तो अपमानित होना ही पड़ा था, जापान भी उन्हें पराजित करने में सफल हुआ था। इन कड़वी स्मृतियों से उबरने के लिए वे जल्दी से जल्दी संसार की अग्रिम शक्ति बन जाना चाहते हैं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि अभी वह न अमेरिकी सामरिक शक्ति का मुकाबला करने की स्थिति में हैं, न आर्थिक। 2049 तक चीन को अमेरिका के समकक्ष पहुंचाने का वादा करते हुए शी जिनपिंग ने लंबे समय के लिए अपनी सत्ता सुनिश्चित कर ली है। इस तरह का उतावला और महत्वाकांक्षी नेतृत्व सामरिक रूप से अपने से कमजोर देशों पर दबाव बनाने की कोशिश करता है। भारत चीन के मुकाबले अधिक संतुलित विकास कर रहा है लेकिन आर्थिक और सामरिक शक्ति के मामले में अभी चीन भारत से आगे है। अभी न भारत चीन से युद्ध चाहता है और न चीन भारत से। दोनों जानते हैं कि कोई भी युद्ध उनकी आर्थिक और सामरिक तैयारी में बाधा डालेगा। लेकिन दोनों में से कोई कमजोर भी दिखना नहीं चाहेगा। चीन के मार्क्सवादी शासकों का अहंकार उन्हें आक्रामक बनाए रखता है और उनसे गलत निर्णय करवा सकता है। ऐसी किसी स्थिति को बचाने के लिए ही भारत को सतर्क रहना पड़ रहा है।
अगले एक-डेढ़ दशक में भारत आर्थिक और सामरिक शक्ति के मामले में चीन के समकक्ष होगा। भारत को न चीन से होड़ करनी है न अमेरिका से। हमारा सभ्यतागत लक्ष्य एक शक्तिशाली लेकिन संतुलित सभ्यता खड़ी करना है। हमने अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए सामरिक शक्ति का नहीं, सदा सभ्यतागत उपलब्धियों का उपयोग किया है। हमारी संस्कृति और सभ्यता ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति रही है। लेकिन उसकी रक्षा के लिए जो अजेय सामरिक शक्ति चाहिए, वही हमारा अभीष्ठ है। उस लक्ष्य को पाने तक हम अपना ध्यान भटकने नहीं देना चाहेंगे। लेकिन पाकिस्तान और चीन के कारण सीमाओं पर जो तनाव बना रहता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए चीन के साथ अपने संबंधों में हमें दुविधा नहीं, दृढ़ता ही दिखानी चाहिए। चीन की चुनौती का सामना राजनीतिक दुर्बलता से नहीं, राजनीतिक दृढ़ निश्चय से किया जा सकता है।