अनूप भटनागर
दलितों और आदिवासियों के हितों की रक्षा के नाम पर 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान हुई हिंसक घटनाओं के बीच केंद्र सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति कानून के तहत निर्दोष व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर अंतरिम रोक लगवाने में कामयाब नहीं हो सकी। इस घटनाक्रम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक शतरंज की नई बिसात बिछा दी है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध के नाम पर हुई हिंसा और नेताओं की अनर्गल बयानबाजी पर तल्ख टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने दो टूक कह दिया कि विरोध करने वाले आंदोलनकारियों ने संभवत: कोर्ट का फैसला पढ़ा ही नहीं है और निहित स्वार्थी तत्वों ने उन्हें गुमराह कर दिया।
अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल की तमाम दलीलों से असहमति जताते हुए अदालत ने केंद्र सरकार से जानना चाहा कि अगर इस कानून के तहत झूठे और फर्जी आरोप लगाए जाते हैं तो फिर लोकसेवक काम कैसे करेंगे। इस कानून में तो कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि निर्दोष को फंसाया जाए। चूंकि इस कानून में अग्रिम जमानत या निर्दोष की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं था, इसलिए इसकी व्यवस्था जरूरी समझी गई है।
केंद्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका में संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीने के अधिकार का हवाला देते हुए कहा कि इसके अंतर्गत दलित और आदिवासी समुदाय को विशेष संरक्षण दिया गया है लेकिन न्यायालय के निर्णय से यह समुदाय इस अधिकार से वंचित हो जाएगा। सरकार का यह तर्क भले ही राजनीतिक बाध्यताओं की वजह से दिया गया हो लेकिन हास्यास्पद ही लगता है क्योंकि अनुच्छेद 21 में सभी नागरिकों को गरिमा के साथ जीने का मौलिक अधिकार प्राप्त है जबकि संविधान के अनुच्छेद 14 में समता का अधिकार प्रदान किया गया है। न्यायालय बार-बार अपनी व्यवस्था में कह चुका है कि कानून के समक्ष सब बराबर हैं और संविधान तथा कानून सबसे ऊपर है। लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार जबरदस्त दबाव में दलित और आदिवासियों से इतर दूसरे नागरिकों के जीवन के अधिकार को कमतर आंकने का प्रयास कर रही है, जो शायद उचित नहीं है।
एक तथ्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के नाम पर आक्रोश जताने वाले आंदोलनकारियों में से अधिकांश का कहना था कि सरकार आरक्षण व्यवस्था खत्म करने जा रही है और इसी के विरोध में भारत बंद किया गया है जबकि सरकार लगातार कह रही है कि आरक्षण खत्म नहीं किया जाएगा। भारत बंद के दौरान विभिन्न राज्यों के शहरों और कस्बों में आंदोलनकारियों ने यातायात अवरुद्ध किया, हिंसा हुई, निर्दोष व्यक्ति मारे गए और दलितों के हितों के नाम पर चुनिंदा नेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास किया। इस विशेष कानून को कमजोर किए जाने के तर्कों को दरकिनार करते हुए न्यायालय ने साफ किया कि ऐसा कुछ नहीं किया गया है बल्कि निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उनके हितों की रक्षा की है।
इस कानून के तहत किसी भी निर्दोष व्यक्ति को झूठे मामले में फंसाने की संभावना खत्म करने के इरादे से शीर्ष अदालत ने कहा है कि पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी आरोपों की प्रारंभिक जांच करके यह पता लगाएंगे कि क्या एससी-एसटी एक्ट के तहत पहली नजर में मामला बनता है। न्यायालय ने इस कानून के तहत अपराध के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले सात दिन के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश दिया है। प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरोपों की प्रारंभिक जांच पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी से कराने के निर्देश में किसी भी राजनीतिक दल या नेताओं को क्या आपत्ति हो सकती है। न्यायालय तो यही चाहता है कि इस कानून के तहत किसी निर्दोष व्यक्ति को झूठे मामले में फंसा कर जेल में न डाला जा सके।
राजग सरकार ने अपने मंत्रियों और भाजपा के सांसदों के दबाव और दलित समुदाय के आक्रोश को शांत करने के इरादे से सुप्रीम कोर्ट में 20 मार्च के फैसले पर पुनर्विचार के लिए याचिका दायर की थी। इस याचिका पर तीन अप्रैल को न्यायाधीशों की दो सदस्यीय पीठ ने करीब एक घंटे तक सुनवाई के बाद अपना निर्णय स्थगित करने से इनकार करते हुए साफ शब्दों में कहा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल निर्दोष व्यक्तियों को आतंकित करने के लिए नहीं किया जा सकता।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि केंद्र सरकार इस मामले में पक्षकार भी नहीं थी लेकिन राजनीतिक समीकरणों और भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं को देखते हुए उसने आनन फानन में न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। शीर्ष अदालत ने इसे फैसला सुनाने वाली पीठ के पास ही भेज दिया। यह दीगर बात है कि केंद्र की ओर से बहस कर रहे अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल की दलीलें न्यायाधीशों को प्रभावित नहीं कर सकीं। न्यायालय ने इस याचिका पर दस दिन बाद सुनवाई करने का निश्चय किया और साथ ही उसने महाराष्ट्र सरकार तथा मूल मामले के मुख्य पक्षकारों को दो दिन के भीतर अपनी लिखित दलीलें दाखिल करने का निर्देश दिया। ऐसा करते समय भी न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय यू ललित की पीठ ने साफ किया कि वह इस कानून और इस पर अमल के खिलाफ नहीं हैं लेकिन इसके प्रावधानों का अनुचित इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। पीठ ने तो यहां तक कहा कि उसने इस कानून के तहत आने वाले अपराधों के संबंध में भी अग्रिम जमानत की व्यवस्था की है और दंड प्रक्रिया संहिता में निर्धारित प्रक्रिया के तहत कानून के अनुसार ही कार्यवाही होनी चाहिए।
क्या कहता है संविधान और कानून
संविधान का अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। शीर्ष अदालत ने अपनी विभिन्न व्यवस्थाओं में अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार करते हुए कहा कि वैयक्तिक स्वतंत्रता में गरिमा के साथ जीने का अधिकार, जीविकोपार्जन करने, शिक्षा प्राप्त करने और आश्रय प्राप्त करने का अधिकार भी शामिल है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 की धारा 18 के अनुसार इस कानून के अंतर्गत अपराध करने के आरोपी किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 लागू नहीं होगी। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के साथ इस कानून की धारा 18 का दायरा ऐसा है कि इसमें अग्रिम जमानत देने पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध है। ऐसी स्थिति में यदि इस कानून के तहत किसी व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया जाता है तो कोई भी अदालत उसकी अग्रिम जमानत की अर्जी पर विचार नहीं कर सकती।
मायावती ने भी किया था बदलाव
बेहतर होता यदि अदालत के आदेश पर तीखी प्रतिक्रिया जताने वाले नेताओं ने 2007 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो के दो शासकीय आदेशों पर भी गौर किया होता। मुख्यमंत्री बनने के सप्ताह भर के अंदर ही मायावती सरकार ने 20 मई, 2007 को पहला आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कानून के तहत केवल शिकायत के आधार पर गिरफ्तारी नहीं होगी। इस आदेश में कहा गया था कि इस कानून के तहत बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में ही पहले मामले दर्ज हों। इसका तात्पर्य साफ था कि शिकायत पर पहले जांच होगी। मायावती सरकार ने इसी आदेश को आगे बढ़ाते हुए 22 अक्टूबर, 2007 को नया फरमान जारी किया जिसमें कहा गया था कि यदि यह पता चला कि इस कानून का इस्तेमाल करके निर्दोष व्यक्ति को फंसाने का प्रयास किया गया है तो शिकायतकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 182 के तहत मामला दर्ज किया जाएगा। मायावती सरकार के इस आदेश और सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले में बहुत अधिक अंतर नहीं है। मायावती सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़कर झूठी शिकायत करने वाले के खिलाफ मामला दर्ज करने का भी आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या बदला
केंद्र बार-बार यही तर्क दे रहा है कि 20 मार्च के फैसले में इस विशेष कानून के कठोर प्रावधानों को कमजोर करने के बहुत व्यापक और दूरगामी नतीजे होंगे और यह निर्णय इस कानून में परिलक्षित संसद की विधायी नीति के विपरीत है। लेकिन न्यायालय इससे सहमत नहीं लग रहा क्योंकि उसने साफ कर दिया है कि वह न तो इस कानून के खिलाफ है और न ही इसके प्रावधानों को कमजोर किया गया है। न्यायमूर्ति गोयल और न्यायमूर्ति ललित की पीठ ने 20 मार्च के अपने फैसले में कहा था कि अत्याचार निवारण कानून के तहत गिरफ्तारी के प्रावधान के दुरुपयोग को देखते हुए लोक सेवक की गिरफ्तारी उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी की मंजूरी के बाद ही की जाएगी और गैर लोक सेवक की गिरफ्तारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की मंजूरी के बाद ही होगी। यही नहीं, न्यायालय ने तो किसी आरोपी की गिरफ्तारी की मंजूरी देने संबंधी सक्षम प्राधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के आदेश में दर्ज कारणों की मजिस्ट्रेट द्वारा विवेचना का भी निर्देश दिया है।
क्या है मामला
शीर्ष अदालत के जिस फैसले को लेकर देश की राजनीति में तूफान आया है वह डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन की अपील से संबंधित है। डॉ. महाजन ने बंबई हाई कोर्ट द्वारा उन्हें इस कानून के तहत गिरफ्तारी से संरक्षण देने से इनकार करते हुए पांच मई, 2017 को उनकी याचिका खारिज कर दी थी। इसके खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट उनकी अपील पर सुनवाई करते हुए 20 नवंबर, 2017 को अपने आदेश में इस प्रकरण के कुछ बिंदुआें को दर्ज किया था। इसके मुताबिक शिकायतकर्ता महाराष्ट्र सरकार के कराड जिले में स्थित कॉलेज आॅफ फार्मेसी में कार्यरत भास्कर कारभाडी गायकवाड़, जिन्हें बाद में सरकार के दूरस्थ शिक्षा संस्थान, पुणे में तैनात कर दिया था, की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उनके वरिष्ठ अधिकारी डॉ. सतीश भिसे और डॉ. किशार बुराड़े ने उनकी निष्ठा और चाल-चलन के बारे में प्रतिकूल प्रविष्टि दर्ज की थी। इसी के आधार पर भास्कर गायकवाड़ ने एससी-एसटी एक्ट के तहत चार जनवरी, 2006 को इन अधिकारियों के खिलाफ कराड थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई थी। संबंधित जांच अधिकारी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत उनके खिलाफ कार्यवाही की मंजूरी के लिए तकनीकी शिक्षा निदेशक के यहां 21 दिसंबर, 2010 को आवेदन किया। निदेशक ने 20 जनवरी, 2011 को इसकी मंजूरी देने से इनकार कर दिया।
इस पर भास्कर गायकवाड़ ने निदेशक डॉ. महाजन के खिलाफ 28 मार्च, 2016 को प्राथमिकी दर्ज कराई। उनके अनुसार तकनीकी शिक्षा निदेशक मंजूरी देने या इससे इनकार करने के लिए सक्षम प्राधिकारी नहीं थे क्योंकि डॉ. भिसे और डॉ. बुराड़े प्रथम श्रेणी के अधिकारी हैं और सिर्फ राज्य सरकार ही मंजूरी दे सकती है। उनका तर्क था कि इस तरह डॉ. महाजन ने मंजूरी के मामले पर गैरकानूनी तरीके से विचार करके कथित अपराध किया है। डॉ. महाजन ने यह शिकायत निरस्त कराने के लिए बंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर की लेकिन उन्हें इसमें निराशा ही हाथ लगी थी और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
इस मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में सवाल उठा कि क्या दुराग्रह का कोई भी एकतरफा आरोप उन अधिकारियों पर मुकदमा चलाने का आधार बन सकता है जिन्होंने अपने आधिकारिक दायित्व का निर्वहन करते हुए मामले को देखा और यदि आरोप झूठे हुए तो इस तरह के दुरुपयोग के प्रति क्या संरक्षण उपलब्ध है। यदि इस आरोप पर कार्रवाई की जाती है तो इसकी परिणति गिरफ्तारी या व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के रूप में होगी और झूठी शिकायत होने की स्थिति में भी इससे उसके स्वतंत्रता के अधिकार पर गंभीर असर पड़ेगा। सवाल यह भी है कि क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत यह न्यायोचित और निष्पक्ष कार्यवाही होगी या इसके लिए कोई संरक्षण की व्यवस्था हो सकती है ताकि दूसरी वजहों से अत्याचार निवारण कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं हो। न्यायालय ने इसके साथ ही प्राथमिकी पर आगे कार्यवाही पर रोक लगा दी और इसमें मदद के लिए पूर्व अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल अमरेंद्र शरण को न्याय मित्र नियुक्त कर दिया। न्यायालय ने केंद्रीय कानून के प्रावधानों की व्याख्या के मद्देनजर अटॉर्नी जनरल को भी नोटिस जारी किया था।
न्याय मित्र का कहना था कि इस कानून के तहत अनेक अपराध सिर्फ शिकायतकर्ता के बयान पर निर्भर कर सकते हैं और संभव है कि वह सत्य नहीं हो और इसलिए निचली अदालत में इस तरह का एकतरफा कथन निर्दोष माने जाने के अनुमान को दरकिनार नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने से पहले निष्पक्ष, तर्कसंगत और न्यायोचित प्रक्रिया का पालन जरूरी है। शीर्ष अदालत ने अनुसूचित जाति और अनुसूचति जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून के तहत कई झूठे मामले दर्ज कराए जाने का जिक्र अपने फैसले में किया है। गिरफ्तारी से पहले आरोपों की जांच कराने का मकसद यह पता लगाना है कि कहीं किसी व्यक्ति को फंसाने के इरादे से तो मामला दर्ज नहीं कराया गया है।
क्या कहते हैं आंकड़े
इस फैसले में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा संकलित 2016 के अपराध के आंकड़ों का भी उल्लेख है। इसके अनुसार 2016 में इस कानून के तहत जांच के दायरे में आए अनुसूचित जाति के मामलों में से 5,347 झूठे पाए गए जबकि अनुसूचित जनजाति के मामलों में 912 झूठे निकले। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए न्यायालय को बताया गया कि 2015 में अदालतों ने ऐसे 15,638 मुकदमों का फैसला किया और इनमें से 11,024 की परिणति आरोप मुक्त करने या बरी करने के रूप में हुई जबकि 495 मामले वापस लिए गए और सिर्फ 4,119 मामलों में ही दोष साबित हुआ। शायद इन्हीं आंकड़ों को देखते हुए न्यायालय ने साफ शब्दों में कहा है कि यह कानून इसलिए बना कि शोषित वर्ग पर अत्याचार न हो लेकिन यह भी देखना होगा कि बेवजह किसी निर्दोष व्यक्ति का शोषण भी न हो।
हाल ही में संसद में भी सरकार ने अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के जो आंकड़े पेश किए उसके अनुसार 2016 में अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अपराध के 40,774 मामले दर्ज हुए थे जिनमें से 78 प्रतिशत मामलों में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया और इनमें से सिर्फ 26 फीसदी में ही दोष सिद्धि हुई। इसी तरह अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ अपराध के 6,564 मामले दर्ज हुए। इनमें से 81 फीसदी में आरोप पत्र दाखिल हुए परंतु दोष सिद्धि 21 फीसदी मामलों में हुई। इन तथ्यों के मद्देनजर ही अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमापूर्ण तरीके से जीने के अधिकार के आलोक में इस कानून के तहत तत्काल गिरफ्तारी की अनिवार्यता के प्रावधान में थोड़ी ढिलाई देकर इसमें अग्रिम जमानत देने की व्यवस्था की है। यही नहीं, न्यायालय ने गिरफ्तारी से पहले आरोपों की जांच और पहली नजर में आरोप सही पाए जाने पर लोकसेवक के मामले में उनकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकार और गैर लोकसेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी से मंजूरी लेने के निर्देश दिए हैं।
उलझनें और भी
पहली नजर में न्यायालय की इस व्यवस्था में कोई विसंगति नजर नहीं आती है लेकिन नए प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं होगा इसे कैसे सुनिश्चित किया जाएगा क्योंकि इसका दुरुपयोग रोकने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। दूसरी तरफ इस आदेश के खिलाफ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की प्रतिक्रिया काफी चौंकाने वाली है। इसकी वजह झूठी शिकायत के कारण किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की वजह से उसकी प्रतिष्ठा को पहुंचने वाली ठेस और ऐसे मामले में शिकायतकर्ता के खिलाफ कार्रवाई के बारे में इन दलों और इनके नेताओं की चुप्पी है।
जहां तक झूठी शिकायत में निर्दोष व्यक्ति को फंसाने के बावजूद शिकायतकर्ता के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने का संबंध है तो इस बारे में अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न की रोकथाम) संशोधन विधेयक पर संसद की स्थायी समिति की 19 दिसंबर, 2014 को पेश छठी रिपोर्ट की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया था। इस रिपोर्ट में संसदीय समिति ने सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया था कि इस कानून में झूठ अथवा बदनियती से आरोप लगाने वाले के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई करने का प्रावधान करने की जरूरत नहीं है।
समिति मंत्रालय के इस तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी कि इस कानून का दुरुपयोग करते पाए जाने वाले व्यक्तियों पर सामान्य कानून के अनुसार भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। समिति का मानना था कि यह एक विशेष कानून है और यह उस सीमा तक मुकम्मल होना चाहिए कि इसमें उन व्यक्तियों के लिए भी न्याय प्राप्त करने का प्रावधान अंतर्निहित होना चाहिए जिन्हें इसके अंतर्गत बदनियती से फंसाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया था कि इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और समाधान) कानून, 2013 में भी झूठी, दुर्भावनापूर्ण शिकायत करने और झूठे साक्ष्य देने पर दंड का प्रावधान है।
इस मामले से इतर एक और दिलचस्प घटनाक्रम चल रहा है जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के संगठन समता आंदोलन समिति ने अपने ही समुदाय के संपन्न तबके (क्रीमी लेयर) को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने का अनुरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। समिति चाहती है कि अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की तरह ही अजा-अजजा के संपन्न तबके को भी सरकारी नौकरियों और शिक्षा के लिए आरक्षण के लाभ से बाहर किया जाए ताकि आरक्षण का वास्तविक लाभ समुदाय के वंचित लोगों को मिल सके। समिति का दावा है कि इस समय यह संपन्न तबका ही आरक्षण के सारे लाभ ले लेता है और समाज के 95 फीसदी सदस्य इससे वंचित रह जाते हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने न्यायालय में इसका विरोध करते हुए कहा है कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत अनुसूचित जाति और जनजातियों पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यह पूरा समाज ही पिछड़ा है। न्यायालय ने सरकार से इस संबंध में विस्तृत हलफनामा मांगा है।