प्रियदर्शी रंजन
दलित नेता रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का एनडीए में विलय होने बाद भी जिस तरह दलितों पर महागठबंधन का दावा मजबूत होता जा रहा है, उससे बिहार भाजपा में बेचैनी है। इसे दो उदाहरणों से समझा से जा सकता है। पहला यह कि पटना के ज्ञान भवन में पार्टी के प्रदेश पदाधिकारियों, मंच, मोर्चा और अनुशांगिक संगठनों की बैठक में प्रभारी भूपेंद्र यादव और राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री सौदान सिंह ने पार्टी के प्रदेश अधिकारियों से लेकर बड़े नेताओं तक को गांव और समाज के सबसे निचले तबके के बीच जाने को कहा। भाजपा सांसदों और नेताओं को दलित बहुल गांवों में रात बिताने के साथ ही दलितों की नाराजगी से जुड़ी समस्याओं को समझ कर उन्हें हल करने का भी निर्देश दिया गया। इसी कड़ी में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व 5 मई तक ग्राम स्वराज अभियान चलाने और दलित बस्तियों में समरसता भोज आयोजित करेगा। दूसरा और महत्वपूर्ण उदाहरण यह कि एक लंबे अर्से से सदन की राजनीति से दूर चल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. पासवान को भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधान परिषद में भेजकर उन्हें मुख्य राजनीति में लाने का मार्ग प्रशस्त कर कर दिया है। इसके साथ ही लगभग चौदह वर्षों के वनवास के बाद इस दलित नेता की सदन में वापसी हुई है। डॉ. पासवान विधान को परिषद में भेजे जाने के बाद यह माना जा रहा है कि दलित आंदोलनों और बिहार में दलितों के बीच पार्टी की कमजोर होती छवि को बचाने के लिए भाजपा ने बड़ा दांव लगाया है।
हालांकि राजनीतिक पंडितों की नजर में डॉ. संजय पासवान पर लगाया गया भाजपा का दांव बिहार के लिए तो है ही, इसका लाभ वह राष्ट्रीय स्तर पर उठाना चाहेगी। दरअसल, भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा चुनाव में हासिल 24 फीसदी दलित वोट को अपने साथ बनाए रखने की है। पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 84 में से 39 सुरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी। हिंदी पट्टी में भाजपा को 34 फीसदी वोट मिले थे। वर्तमान मेंं देश में एससी-एसटी की आवादी 20 करोड़ से ज्यादा है। लोकसभा में इस वर्ग के 131 सांसद हैं। भाजपा के सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से आते हैं। लिहाजा भाजपा इस वोट बैंक को लेकर चिंतित हैै। लेकिन हाल में जिस तरह की घटनाएं घटी हैं उससे पार्टी की छवि दलित विरोधी बनी है। उससे उबरने को लेकर पार्टी में असमंजस है। भाजपा की ओर से दलित विरोध को कंट्रोल करने की अभी तक की कई कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। राजनीतिक जानकार व द हिंदू के स्थानीय संपादक अमरनाथ तिवारी के मुताबिक, भाजपा को डॉ. पासवान से यह उममीद होगी कि वे देश भर में भाजपा के प्रति पनप रहे द्वेष का डैमेज कंट्रोल करें। पासवान इसमें सक्षम भी हैं। देश भर के बुद्धिजीवी दलितों के बीच इनकी गहरी पैठ है। जबकि राजनीति के जानकार देवांशु शेखर मिश्रा मानते हैं कि जब तक पासवान को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी जिम्मेवारी नहीं सौंपी जाएगी तब तक वे भाजपा के लिए बहुत फायदेमंद साबित नहीं हो सकते हैं। उनका जो कद है उसके लिए उन्हें राज्यसभा भेजा जाना चाहिए था। उनके राज्यसभा भेजे जाने के बाद दलितों को यह अभास होता कि भाजपा में उनका कोई बड़ा गारंटर है। राज्यसभा न देने के बाद भी भाजपा उनका सही इस्तेमाल करना चाहती है तो इन्हें पार्टी का बड़ा राष्ट्रीय पद देकर दलितों को लुभा सकती है। कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भी इनकी छवि पार्टी के काम आ सकती है।
दरअसल, भाजपा ने एनडीए के बैनर तले देश भर के कमोबेश सभी दलों को अपने साथ रखा है। बावजूद इसके, ये दल भाजपा को दलित आंदोलन के ताप से नहीं बचा पा रहे हैं। पिछली बार लोकसभा में दलित चेहरों को भाजपा ने गुलदस्ते की तरह सजा लिया था। दिल्ली में उदित राज जो खुलकर महिषासुर समारोह में जाते थे और हिंदू धर्म के खिलाफ बौद्ध धर्म अपना लिया था, उन्हें साथ जोड़ा। बिहार में रामविलास पासवान को अपने साथ लिया, जिन्होंने मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में हुए दंगे की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफा दे दिया था। इसी तरह महाराष्ट्र में रामदास आठवले की पार्टी आरपीआई और तमिलनाडु में विजयकांत की पार्टी को जोड़ा था। लेकिन सत्ता में आने के बाद जिस तरह पार्टी को दलित मुद्दे पर विपरीत परिस्थितियों का सामना कर पड़ रहा है, उसने भाजपा की पेशानी पर बल दे दिया है। पिछले कुछ सालों में दलित राजनीति इतनी धारदार और प्रतिक्रियावादी हो गई है कि भाजपा के सामाजिक आधार से वह मेल नहीं खा रही है।
भाजपा में दलित दुविधा को समझने के लिए इतिहास पर नजर डालनी होगी। भाजपा का सामाजिक आधार मध्य और सवर्ण वर्ग था। संघ और भाजपा की अगली कतार में हमेशा सवर्ण ही हावी रहे। इसलिए भाजपा के लिए यह बड़ी चुनौती है कि दलित को अपने साथ जोड़े। संघ के नेताओं को आरक्षण पर समीक्षा वाले बयान ने दलितों के मन में भाजपा के प्रति संशय के बीज बो दिए हैं। उसका नुकसान बिहार विधानसभा में भाजपा को हो चुका है। संघ की सेवा संस्था सेवा भारती यूं तो दलितों के बीच काम करती है, लेकिन इन कामों के जरिये संघ जो आधार तैयार करता है उस पर भाजपा के नेताओं की बयानबाजी पानी फेर देती है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कई बार ऐसे बयानों से बचने के लिए नेताओं को कह चुके हैं। मगर असल समस्या तब आती है जब विपक्ष की ओर से हमले पर पार्टी के पास कोई बड़ा दलित चेहरा नहीं होता है।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘असल में भाजपा अपने सहयोगी दलित नेताओं के बलबूते भी दलित आंदोलन के ताप को कमजोर नहीं कर पाई है। हमारे सहयोगी दलित नेताओं के पास अपना एजेंडा होने की वजह से वे खुल कर हमारा साथ नहीं दे पा रहे हैं। ऐसे में हमें दलितों को समझना मुश्किल हो रहा है। कई तेजतर्रार दलित नेताओं के उभार के सामने हमारे सहयोगी पुराने पड़ गए हैं। ऐसे में हमें नए विकल्प की ओर सोचना पड़ रहा है। भाजपा के भीतर के एक आम राय बनी है कि हम अपनी पार्टी के भीतर के ही किसी दलित नेता को मौका देंगे।’ भाजपा के इस वरिष्ठ नेता के खुलासे के बाद यह कहा जा सकता है कि डॉ. पासवान को विधान परिषद में भेजकर पार्टी ने एक साथ दो निशाने साधे हैं। पासवान के उभार के बाद पार्टी पर दलितों का भरोसा बढ़ेगा ही, अपने निजी एजेंडे के तहत राजनीति करने वाले एनडीए के सहयोगी दलित नेताओं पर लगाम लगाए रखना आसान होगा।