विजयशंकर चतुर्वेदी
दलितों के मतों को अपनी झोली में डालने के लिए देश के प्रमुख राजनीतिक दल रस्सीखेंच प्रतियोगिता कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने एक लुभावना और बड़ा आसान तरीका भी निकाल लिया है। कभी देश के सबसे पुराने दल कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद दलितों के घर जाकर भोजन करते हैं तो कभी देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह से लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक दलितों के घर पवित्र करने पहुंच जाते हैं।
भाजपा के ही दलित सांसद उदित राज कहते हैं, ‘यह मेरा सामाजिक विचार है। मेरी निजी राय हो सकती है। न सिर्फ पार्टी, बल्कि पूरे देश, ‘सवर्ण समाज’ को इसके बारे में सोचना चाहिए। अब सिर्फ खाना खाने से कुछ नहीं होगा, यह दलितों को और हीन महसूस कराता है। रात को रुक कर और भोजन करके दिखावा करने से बेहतर है कि नेता जरूरतमंद दलितों के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार और इलाज के उपाय लेकर आएं। वरना इससे भाजपा को कुछ खास फायदा नहीं होगा।’ लेकिन कांग्रेस पार्टी की तरफ से राहुल गांधी को ऐसी नसीहत देने की हिम्मत आज तक किसी में नहीं दिखी। गौर करने की बात यह है कि सारा तमाशा मीडिया के चमकते कैमरों के बीच सादगी के सधे हुए अभिनय के साथ संपन्न होता है। अचानक उमड़ा यह प्रेम देखकर दलित भी हैरान हैं।
पिछले दिनों 14 अप्रैल से पांच मई तक यूपी में भाजपा का ग्राम स्वराज अभियान चला। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई नेताओं ने दलितों के यहां भोजन किया और गांवों में रातें भी गुजारीं। बड़े दलित नेता और केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान से जब इस बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘राजनीतिक वर्ग को दलित और पिछड़े समुदाय पर कृपा दिखाने से बचना चाहिए। उनके घर पर नेताओं के खाना खाने से छुआछूत दूर नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा सही है, जबकि अप्रिय घटनाओं की रपटें उनके काम पर प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।’
भाजपा को यह प्रेरणा शायद कांग्रेस से मिली है, या कहा जाए कि दलितों के घर भोजन करने के मामले में राहुल गांधी को बाजी मारता देख कर भाजपा यह कदम उठाने पर मजबूर हो गई। यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से बड़े पैमाने पर दलितों का वोट बसपा की बजाए भाजपा को मिला, पार्टी उसे हर कीमत पर अपने साथ जोड़े रखना चाहती है। सितंबर 2015 के मध्य में राहुल गांधी यूपी की महायात्रा पर निकले थे और उस दौरान उन्होंने मऊ में एक दलित स्वामीनाथ के घर खाना खाया था। तब पीएम नरेंद्र मोदी ने इसे राहुल का दलित-पर्यटन करार दिया था।
भाजपा की तरफ से इस कथित दलित-पर्यटन का श्रीगणेश पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी फतह के इरादे से 31 मई 2016 को किया, जब उन्होंने प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के गांव जोगियापुर में दलित होने के धोखे में गिरिजाप्रसाद बिंद के घर खाना खाया था। लेकिन सपा-बसपा ने आरोप लगा दिया कि बीजेपी अध्यक्ष के लिए खाना होटल से मंगवाया गया था और बोतलबंद पानी पिलाया गया। लेकिन इससे भाजपा अध्यक्ष का हौसला कम नहीं हुआ। आगे चलकर उन्होंने तेलंगाना और उड़ीसा में भी दलितों के घर जाकर खाना खाया। लेकिन कहीं देखने में नहीं आया कि उनके दलितों के घर खाना खाने से गांव के सवर्ण दलितों के साथ बैठकर खाना खाने लगे हैं। किसी नेता ने ऐसा आवाहन भी नहीं किया।
इसी वर्ष सीएम योगी आदित्यनाथ ने प्रतापगढ़ में दलित के यहां भोजन किया। लेकिन जब उनके डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने इलाहाबाद में दलितों का दरवाजा खटखटाया तो अधिकारियों ने वहां उनके लिए एयर कंडीशन वाला स्विस कॉटेज लगवा दिया और भोजन कार्यक्रम संपन्न होते ही उसे उखाड़ भी ले गए! भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने लखीमपुर में दलित के घर खाना खाया। यूपी भाजपाध्यक्ष महेन्द्र नाथ पाण्डेय ने काशी और अयोध्या में दलित चौपाल लगाई। कैबिनेट मंत्री मोती सिंह भगवान राम की भूमिका में दलित को शबरी का घर मान कर खाना खाने पहुंचे और उसे धन्य कर दिया।
केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने मध्य प्रदेश में एक समरसता भोज के दौरान कहा, ‘हम भगवान राम नहीं हैं कि दलितों के साथ भोजन करेंगे, तो वो पवित्र हो जाएंगे।’ जाहिर है उमा भारती समझ गई हैं कि पिछले दिनों यूपी में दलितों के घर भोजन करने के अभियान से भाजपा की काफी किरकिरी हुई है।
पीछे मुड़ कर देखें तो भारत की आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और महात्मा गांधी ने अछूतोद्धार मुद्दे को एक अहम स्थान दे रखा था। गांधी जी स्वयं मलिन बस्तियों में जाकर अपने हाथों से साफ-सफाई करते थे। कांग्रेस के सेवा दल की प्रभात फेरियों में अछूतों के बच्चे भी शामिल होते थे। लेकिन आजादी मिलने के बाद कांग्रेस पार्टी ने इस पूरी प्रक्रिया को ही हाशिए पर डाल दिया और पूरे देश पर एकछत्र राजकाज चलाने लगी। केंद्र में कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व के नाम पर इक्का-दुक्का दलित नेताओं को अवश्य साथ लिए रखा, लेकिन वर्ण-व्यवस्था की सामाजिक संरचना पर कोई प्रहार न होने के कारण जमीनी स्तर पर दलितों की हालत बद से बदतर होती चली गई।
पिछली सदी के दौरान नब्बे के दशक में जब महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा जैसे बड़े राज्यों में दलित वर्ग कांग्रेस से छिटक कर सपा, बसपा, आरपीआई, शिवसेना, बीजद, अकाली दल, जेडीयू, आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने लगा और एक के बाद एक सूबों की सरकारें हाथ से जाने लगीं तो कांग्रेस के नेताओं की नींद उड़ गई। अब तक देश का- खास तौर पर हिंदी पट्टी का- दलित तबका समझ चुका था कि कांग्रेस के दांत खाने के और दिखाने के कुछ और हैं! शायद इसीलिए यूपी विधानसभा चुनाव में दलित-वर्ग ने भी राहुल गांधी के दलितों के घर भोजन करने को नौटंकी और दलित-पर्यटन ही मान लिया। अब कांग्रेस के लिए दलित तबके को अपने हितैषी होने का भरोसा दिला पाना टेढ़ी खीर है।
लेकिन आसानी भाजपा को भी नहीं होगी। दरअसल दलितों का एक युवा नेतृत्व अब आकार लेने लगा है। भाजपा रामदास आठवले, उदित राज, सावित्री बाई फुले, अशोक दोहरे, छोटेलाल खरबार जैसे दलित नेताओं को पाले में लाने में जरूर कामयाब हुई है, लेकिन जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा दलित नेता इन सबको अवसरवादी करार दे रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता शेषाद्रिचारी मानते हैं, ‘जो दलित नेता होने का दावा करते हैं वो फाइव स्टार संस्कृति में बस चुके हैं, लेकिन दलितों की हालत नहीं सुधरी है। भाजपा दलितों की हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है और उसका दलितों तक पहुंचने का कार्यक्रम जारी है।’
भाजपा केंद्र में पिछले चार वर्षों से सत्ता में है और गुजरात में शासन चलाते हुए उसे 15 साल से ऊपर हो गए, लेकिन वह दलितों तक किस हद तक पहुंची है इसका नमूना देखना हो तो गुजरात के ही गीर सोमनाथ के ऊना स्थित मोटा समढियाला गांव जाइए। यहां जुलाई 2016 में कथित गौरक्षकों ने मृत गाय का चमड़ा निकाल रहे दलित युवकों को कार से बांधकर बुरी तरह पीटा था। इसी का नतीजा है कि 2016 में ही जूनागढ़ में 200 दलितों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और पिछले महीने ही मोटा समढियाला गांव के 27 दलित परिवारों ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया है। पीड़ित परिवार के मुखिया बालूभाई सरवैया का कहना है कि सनातन धर्म छोड़ना उनके लिए आसान नहीं था लेकिन उन्हें मात्र नफरत ही मिली। अब वह अपने परिवार, सगे संबंधियों व अन्य लोगों के साथ वैश्विक बौद्ध धर्म अपना रहे हैं।
लेकिन इस सबसे बेखबर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और तेलंगाना और कर्नाटक के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा ने हितैषी दिखने के लिए कर्नाटक में दलितों के घर खाना खाने की मुहिम छेड़ी। इस पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने कहा कि ‘अमित शाह यह सब इसलिए कर रहे हैं कि वह तेलंगाना में भाजपा को चौथे नंबर से दूसरे नंबर की पार्टी बना सकें’। येदियुरप्पा पर तो जनता दल सेक्युलर के नेताओं ने यह आरोप लगा दिया था कि वह एक दलित हनुमंतराया के घर गए जरूर थे, लेकिन वहां रेस्तरां से मंगाया हुआ खाना उन्होंने खाया। भाजपा के दलित-प्रेम की हकीकत थोड़ा और तब खुली जब इसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट के सामने एससी/एसटी एक्ट को शिथिल करने की याचिका दाखिल की गई तो केंद्र सरकार खुद शिथिल पड़ गई। दशकों से दबा दलित आक्रोश भड़क उठा और बिना किसी बड़े दलित नेता और संगठित मशीनरी के उनका भारत बंद सफल हो गया।
अब बसपा सुप्रीमो मायावती कह रही हैं, ‘दलित ज्यादा दिन बेवकूफ बनने वाला नहीं हैं, भाजपा की सच्चाई उसके सामने आ चुकी है। लोगों का ऐसा मानना है कि पहले कांग्रेस के नेता दलितों के घर जाकर मुफ्त की रोटी तोड़ते थे, अब भाजपा के नेता भी वही नाटक कर गरीब दलित का आटा गीला करने का काम कर रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि बस नाम के लिए घर दलित का होता है, लेकिन खाने से लेकर बर्तन तक सभी गैर-दलितों यानी उच्च वर्ग के घरों से आते हैं।’
खुद को एक दूसरे से बड़ा दलित-हितैषी साबित करने की दावेदारी अपनी जगह है। लेकिन क्या यह सोचने की बात नहीं है कि आजादी के 70 सालों बाद भी अगर दलितों की दयनीय अवस्था में खास फर्क नहीं आया है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? वोट बैंक की राजनीति करने के लिए राजनीतिक दलों के पास तमाम उपक्रम हैं, लेकिन ऊना, सहारनपुर, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार में हुए दलित-उत्पीड़न के दोषियों को सजा दिलाने के लिए उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2007-2017 के दौरान दलित-उत्पीड़न के मामलों में 66 फीसदी इजाफा हुआ, जिसमें पिछले तीन-चार वर्षों में दलित विरोधी हिंसा में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर 15 मिनट में दलितों के साथ आपराधिक घटनाएं घटीं। इसमें भाजपा शासित राज्य मध्य प्रदेश और राजस्थान क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर हैं।
ऊना (गुजरात) के ही दलित वशराम सरवैया का दुखड़ा सुनिए- ‘गत दिनों मेरे परिवार के अशोक व रमेश को रास्ते में रोककर कुछ दबंग युवकों ने जान से मारने की धमकी दी और पीटा। लेकिन आज तक इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई।’ इस मामले में राज्य के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की बोलती भी बंद है। उल्लेखनीय है कि गुजरात में धर्म परिवर्तन के लिए जिला कलेक्टर की मंजूरी लेनी होती है और राज्य में धर्म परिवर्तन की हजारों अर्जियां लंबित हैं। अगर दलित-उत्पीड़न पर लगाम नहीं लगी तो हर राज्य में ऐसी अर्जियों के ढेर लग जाएंगे।
ताजा घटनाक्रम यह है कि मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक गांव में इसी माह हुए यज्ञ का साथ न देने पर खफा सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया है और उन्हें मेहनत-मजदूरी भी नहीं करने दे रहे। क्या यह घटना आजादी से पहले मंदिरों में दलितों के प्रवेश-निषेध और कुएं-तालाबों से उन्हें पानी न भरने देने वाली मानसिकता की याद नहीं दिलाती, जिसके खिलाफ डॉ. अम्बेडकर ने तीव्र संघर्ष किया था? स्पष्ट है कि भारत भले ही आज चांद तथा मंगल की उड़ान भर चुका है, लेकिन मुंशी प्रेमचंद के ‘ठाकुर का कुआं’ आज भी गांव-गांव में मौजूद है, जो दलितों के घर जाकर दिखावे की बराबरी और झूठा अपनापा जताने से नहीं पटने वाला है।