सत्यदेव त्रिपाठी
ऊपर-ऊपर से देखने पर हंसल मेहता निर्देशित ‘102 नॉट आउट’ वृद्ध जीवन की फिल्म लगती है, क्योंकि 102 साल के दत्तात्रेय बखारिया बने अमिताभ बच्चन और 75 साल के उनके पुत्र बाबूलाल बने ऋषि कपूर के बुढ़ापे की कहानी है। दोनों पात्रों में निहित हैं वृद्ध-जीवन की दो दृष्टियां भी। एक तरफ 102 साल के दत्तात्रेय जिन्दगी से भरपूर (फुल आॅफ लाइफ) हैं और अपनी जिन्दादिली से विश्व में सबसे अधिक उम्र तक जीने वाले किसी चीनी नागरिक का रेकॉर्ड तोड़ना चाहते हैं जिसके लिए उन्हें 16 साल और जीना है- टु गो 16 इयर्स ओनली…।
यह इस बेटे के साथ रहते संभव नहीं होगा, जो उन्हीं के शब्दों में थकेला-पकेला बोरिंग इंसान है और जिन्दगी से भी डरता है तो मौत से भी। वह खुद भी कहता है- मैं पछत्तर साल का बुड्ढा हूं- वृद्ध, और मैंने इसे स्वीकार किया है। इसमें व्यंग्य यह कि बाप ने 102 साल में भी इस सच को स्वीकारा नहीं है- उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। जाहिर है कि बाप की दृष्टि सकारात्मक और मौजूं है और वही फिल्म में प्रतिष्ठित हुई है, जो किसी भी देशकाल के लिए अनुकरणीय होगी- और आज तो सर्वाधिक।
लेकिन इसी जिन्दादिली को फिल्म का मकसद मान लेना बड़ी भूल होगी- जैसा कि ‘दैनिक भास्कर’ के भोपाल संस्करण की समीक्षा मानती है और इसी की तरह कई और भी मानते होंगे। बहरहाल, दत्तात्रेयजी अपने बेटे बाबू के थकेले-पकेलेपन को दूर करने में लग जाते हैं। इस प्रयत्न में हास्य-विनोद और मौज-मजे के साथ बेटे बाबू के लिए नुस्खे के रूप में वृद्धाश्रम में डाल देने की धमकी देकर बचपन से ओढ़ने वाली चद्दर फाड़ देने और उस चर्च जाने, जहां बाबू का बेटा अमोल बचपन में पढ़ता था तथा मैरीन ड्राइव पर गाड़ी में बैठकर आइसक्रीम खाने… जैसी कई-कई शर्तें रखते हैं, जो अपनी नाटकीयता में रोचक व रंजक बन पड़ी हैं -यही है पूरी फिल्म।
इसी दौरान मर्म खुलता है कि बाबू के थकेले-पकेलेपन का राज उसके बेटे अमोल की कारस्तानियों में निहित है। उसी ने अमेरिका में पढ़ने और बसने के चक्कर में बाबू के सारे पैसे चूस लिए। फिर बाप के लिए स्वदेश आने और कोई संभाल करने को तो कौन कहे, उसे मिलने-देखने के लिए अपने यहां (यूएस) आने देने को भी तैयार नहीं हुआ। फोन भी उठाना बन्द कर दिया। एंजाइमा से मरती हुई मां को सब कुछ भूल गया, सिर्फ बेटा अमोल याद रहा, पर महीने भर लगातार फोन से बुलाने के बावजूद उनसे मिलने की मोहलत नहीं मिली अमोल को। दादा दत्तात्रेय के शब्दों में पोते अमोल ने अपने बाप को ‘भिखारी बना दिया है’- आर्थिक और भावात्मक दोनों रूपों में। और अब 18 साल बाद दो घंटे की सूचना पर आने के लिए तैयार हो गया है, ताकि सारी सम्पत्ति ले के जा सके।
लेकिन इतने के बावजूद बाबू का पुत्र-मोह टूटा तो क्या, कम तक नहीं हुआ, बल्कि कई गुना बढ़ गया है। वह अपनी सारी सम्पत्ति उसी को देना चाहता है। मुलाहिजा हो कि पुत्र-मोह की एक से एक मिसालें हमारे साहित्य में मौजूद हैं- पूरे युग को अन्धकारमय कर देने वाले धृतराष्ट्र के अन्धत्व से लेकर जान दे देने वाले दशरथ की मरणांतक पीड़ा तक। और सम्पत्ति व राज्य के मोह में पिता के साथ बर्बरता करने वाले औरंगजेब जैसे ढेरों बेटे भी इतिहास में दर्ज हैं। किंतु इन सबसे बढ़-चढ़कर हो गया है आज का जीवन, जहां हर तीसरे घर के बेटे के नितांत स्वार्थी-पने से संत्रस्त हैं मां-बाप। उनके भयावह भौतिकपरस्त, मशीनी व अमानवीय सलूकों से भिखारी व गुलाम जैसा बनकर जीने के लिए अभिशप्त हैं। इस प्रकार समकालीन जीवन की यह एक प्रतिनिधि समस्या है, भयावह त्रासदी है, जिससे संतप्त है आज की पुरानी पीढ़ी और जिससे मुठभेड़ कर रहा तथा अपनी-अपनी तरह निपट रहा है आज का साहित्य व सिनेमा। इसके लिए बेटे को विदेश ले जाना अब कतई जरूरी नहीं रह गया है। घर में रहकर भी सबकुछ हो रहा, जिसका उदाहरण बेहद गलदश्रु भावुकता वाली फिल्म ‘बागवान’ भी है।
फिर भी इस फिल्म में बेटे को विदेश ले जाया गया है और यह सौम्या जोशी द्वारा लिखे गुजराती नाटक पर अधारित है, तो इससे एक तुलना भी बन गयी है। 1970-80 के दशक में जयवंत दड्वी के मराठी नाटक ‘सन्ध्या छाया’ पर इसी नाम से ज्योति स्वरूप के निर्देशन में श्रीराम लागू व सुलभा देशपांडे अभिनीत फिल्म बनी थी हिन्दी में। उसका बेटा बीमार मां-बाप को छोड़कर अमेरिका बस गया था, पर बताया न था। उसके आने की आकुल प्रतीक्षा में रोज दिन गिनते मां-बाप के सर्दी-जुकाम होने पर भी अमेरिका से फोन कर-करके एक के बदले तीन डॉक्टर और सुखी-समृद्ध जीवन के लिए ढेरों सामान भिजवा देता था- यानी तब कुछ तो मन में बचा रह गया था- न सही प्यार, दायित्त्व-बोध ही सही या लोक-लाज ही सही। लेकिन एक दिन जब ये लोग जान जाते हैं कि बेटे ने बिना बताए वहां शादी कर ली है और अब यहां कभी नहीं आएगा, तो ‘सन्ध्या छाया’ के बूढेÞ मां-पिता आत्महत्या कर लेते हैं- वह युग इतना भावुक था …और तब यही विकल्प सामने होता था। लेकिन जमाना तेजी से बदलता गया है, फिर भी ‘102 नॉट आउट’ का यह अपना बाबू उतना ही भावुक है आज भी और इकतरफा, क्योंकि अमोल की तरफ से तो कुछ है नहीं। और आज का समय पुत्र-मोह के संस्कारों और व्यावहारिक जीवन के द्वंद्व का है। आज के बाबू अभी इस हकीकत को खुलकर समझना नहीं चाहते। तभी तो अपना बाबू दर्जनों किस्म की दवाइयों के साथ पचासों बोतल पानी तक खरीद कर रख रहा है कि अमेरिका से आए बेटे को कोई संक्रामक (इन्फेक्शन) असर न हो जाए।
लेकिन इसी भावुकता से बनती जीवन-विमुखता या मृत्यु-मुखता को तोड़ने के लिए पर्याप्त व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) होती हुई हंसल मेहता की फिल्म ने दादा दत्तात्रेय की जानिब से यह पैंतरा लिया है कि एक फूटी कौड़ी दिए बिना अमोल को लौटा देना है। यहां फिल्म बहुत वाजिब बात कहती है- ‘औलाद नालायक निकल जाए, तो उसे भूल जाना चाहिए’। और ऐसा करने की प्रक्रिया के लिए ‘सिर्फ उसके बचपन को याद रखना चाहिए’। उक्त सारी शर्तें अमोल के बचपन की यादों से जुड़ी हैं, उसे पाले-पोसे जाने की संवेदनाओं की साखी हैं। सबसे होकर गुजरना धीरे-धीरे ऐसा गहराता है, अमोल की एक-एक कारस्तानी परत-दर-परत इस कदर उघड़ती हैं कि देखने भर में कलेजा मुंह को आने लगता है… तो होने-सहने की कल्पना की जा सकती है।
फिर भी बाबू का मोह नहीं मानता। वह अपने बाप को धमकी दे देता है कि उन्होंने टांग अड़ाई, तो केस कर देगा। लेकिन दत्तात्रेय ने भी ठान लिया है कि वे अपने बेटे (बाबू) के सामने उसके बेटे (अमोल) को जीतने नहीं देंगे। तब फिल्म अंतिम हकीकत बताती है कि चीनी बंदे का रेकॉर्ड तोड़ना तो बहाना है, असल में तो पिता दत्तात्रेय के मस्तिष्क में गांठ (ट्यूमर) बन रही है, जो सम्पत्ति के लिए चलने वाले लंबे मुकदमे की अवधि तक नहीं रहेगी- फट जाएगी। तब पिता के अवसान की भयावहता का असर पड़ता है- बाबू की पुत्र-रति टूटती है। वह अमोल के जस के तस संजोए कमरे को खोलता है और यादों के सारे सरंजाम बिखेर देता है। फिर हवाई अड्डे पर बेटे को लेने पहुंचता है और सरेआम, यात्रियों के सामने अमोल के बचपन के रखे 42 रुपये के मिट्टी के गुल्लक को उसके सामने फोड़कर उसे हवाई अड्डे से ही उल्टे पैर लौटा देता है- रहिमन करुए मुखन को चहियत इहै सजाय…। ऐसी नयी पीढ़ी के समक्ष यही सलूक बड़ी लिजलिजी भावुकताओं के बावजूद अमिताभ अभिनीत ‘बागवान’ का भी है और साहित्य में तो ऐसे ही सलूक पूरी शिद्दत से स्थापित किए जा रहे हैं। बतौर उदाहरण चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘गिलिगड्ड’ का पिता बड़ी सम्पत्ति और अपने सेवक-परिवार की सादर साज-संभार को छोड़कर बेटे-बहू के साथ रहने की बड़ी साध लिए शहर जाता है, पर उनके द्वारा बालकनी में बहिष्कृत कर दिए जाने और बात-बात पर उपेक्षापूर्ण निरादर भरे सलूक को देखकर एक दिन गांव लौट आता है और सारी सम्पत्ति उसी सेवक-परिवार के नाम कर देता है। फिल्मों को इतना प्रैक्टिकल होना अभी शेष है…, जो इस युग की मांग है और इस पीढ़ी को यही जवाब है! इस युग को दत्तात्रेय जैसे प्रैक्टिकल शख़्स की दरकार है और यही इन्हें पैदा भी कर रहा है।
यह फिल्म अपने निराबानी विधान में दो बूढ़ों की जुगलबंदी के रूप में भी दर्शनीय है, जिसमें दोनों के सोच-व्यवहार के विरोधाभास (कंट्रास्ट) से बनती अदाओं की टकराहट का नाट्यमय मजा भरपूर है। गीत-संगीत सटीक है, पर ‘मेरे घर आना जिन्दगी’ को इतना मारक बनाकर पेश कर देने की कला बेहद शानदार बन पड़ी है। गुजराती नाटक ‘मरीज’ में बार-बार देखे जबर्दस्त व अन्य कई नाटकों में सधे अभिनय वाले धर्मेन्द्र को आखिरी दृश्य में अमोल के रूप में देखना कुछ करने को न होने के बावजूद भला लगा। कद व सरनामी में बड़े तथा लहकते हुए किरदार के चलते अमिताभ के सरकश होने की उम्मीद सबको थी और बकौल सिने विवेचक जयप्रकाश चौकसे अमिताभजी द्वारा मशहूर चित्रकार एम.एफ. हुसैन का मांगकर लिया गया बाना भी है, लेकिन बाबू में रचे-बसे ऋषि की तल्लीनता के समक्ष अपने गांव की कहावत के शब्दों में कहूं, तो ‘हॉय हुसेन’ के बदले ‘हॉय फंसेन…’ ही ज्यादा मुनासिब लग रहा है।