अरुण पांडेय
पेट्रोल-डीजल के दाम लगातार चढ़ रहे हैं। इससे आम लोगों की नाराजगी बढ़ रही है। सरकार भी मान रही है कि लोगों पर बढ़ी कीमतों का बोझ पड़ रहा है। बावजूद इसके सरकार कीमतें घटाने के उपाय नहीं कर रही है। ऐसे में सबके मन में यही सवाल है कि आखिर सरकार कब दखल देगी? जब पेट्रोल 100 रुपये लीटर हो जाएगा या फिर डीजल और पेट्रोल एक बराबर दाम में मिलेंगे। रोज-रोज पेट्रोल-डीजल के दाम शिखर पर पहुंचने की सुर्खियां सबको चौंकाती हैं। फिर अगले दिन दाम का नया शिखर बन जाता है। दिल्ली में पेट्रोल 80 रुपये लीटर के पार तो मुंबई में 85 रुपये के आसपास पहुंच गया है। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने तो यहां तक कह दिया है कि सरकार चाहे तो पेट्रोल के दाम 25 रुपये तक कम किए जा सकते हैं लेकिन मोदी सरकार ऐसा करेगी नहीं। तो क्या मोदी सरकार जानबूझ कर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने दे रही है? इससे सरकार को क्या फायदा है? इनकी कीमत का मामला इतना संवेदनशील है कि कोई भी सरकार जानबूझ कर इसे बढ़ने देने का जोखिम नहीं उठा सकती।
क्यों हुआ महंगा
सोशल मीडिया के जोक्स पर मत जाइए क्योंकि ये मामला काफी गंभीर है। तेल का खेल भारत में बहुत अलग है। यहां कच्चे तेल की रिफाइनिंग के बाद इसे सीधे कार या बाइक की पेट्रोल टंकी में डालना जितना आसान नहीं है। भारत में पेट्रोल-डीजल केंद्र और राज्य सरकारों की कमाई का बड़ा जरिया है। जाहिर है सरकार के लिए इन्हें सस्ता करना इतना आसान नहीं है क्योंकि ऐसा करने से उनकी कमाई में काफी कमी आएगी जिसका असर अन्य कल्याणकारी और विकास योजनाओं पर पड़ेगा। इसमें सबसे बड़ी दिक्कत यह भी है कि भारत अपनी जरूरत के हिस्से का 20 से 25 फीसदी कच्चे तेल का ही उत्पादन करता है। ऐसे में सारी निर्भरता विदेश से आयातित कच्चे तेल पर ही है। जाहिर है ऐसे में अंतरराष्ट्रीय कीमतें बढ़ेंगी तो घरेलू कीमत पर आपका ज्यादा दखल नहीं होगा।
रुपये-डॉलर का चक्कर
अंतरराष्ट्रीय बाजार से कच्चा तेल खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा के रूप में डॉलर का इस्तेमाल होता है। ऐसे में रुपये के मुकाबले डॉलर की कीमत भी आयात के लिए बड़ा सिरदर्द होती है। इसे इस तरह समझिए कि अमेरिका के लिए कच्चे तेल का भाव 80 डॉलर प्रति बैरल है। भारत के लिए भी यही भाव है। लेकिन यहीं पेंच है। इस साल जनवरी में एक डॉलर का भाव था करीब 63 रुपये और मई में ये भाव बढ़कर 68 रुपये पहुंच गया यानी 5 रुपये ज्यादा। कच्चा तेल आयात करने वाली जिन घरेलू तेल कंपनियों ने जनवरी में एक बैरल कच्चा तेल खरीदने के लिए अगर 5,040 रुपये खर्च किए तो मई में उन्हें एक बैरल कच्चा तेल खरीदने के लिए करीब 5,500 रुपये खर्च करना पड़ा यानी 500 रुपये ज्यादा। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ गए तो भारत पर इसकी दोहरी मार पड़ेगी। एक तो कच्चे तेल का महंगा होना, दूसरा डॉलर के मुकाबले रुपया सस्ता होना। इसलिए भी तेल कंपनियों को कीमत बढ़ानी पड़ रही है।
सरकार से हुई गलती
ऐसा नहीं है कि दाम बढ़ने में सरकार का कोई दोष नहीं है। सरकार से सबसे बड़ी गलती ये हुई कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम घट रहे थे तो केंद्र और राज्य सरकारें एक्साइज ड्यूटी और वैट बढ़ा रही थीं। इससे लोगों को सस्ते तेल का फायदा नहीं मिल पाया और उन्हें उतने ही दाम चुकाने पड़ रहे थे। अगर घटती अंतरराष्ट्रीय कीमतों की तुलना में पहले ही राहत दी गई होती तो अब सरकार दिलेरी के साथ कह सकती थी कि कच्चा तेल महंगा हो रहा है इसलिए दाम बढ़ाने के अलावा विकल्प नहीं है। मगर अब सरकार ये तर्क भी नहीं दे सकती है। पिछले तीन वर्षों में जब-जब कच्चा तेल सस्ता हुआ केंद्र और राज्य सरकारों ने टैक्स बढ़ा दिए जिससे घरेलू दाम कम नहीं हो पाए। पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमत में करीब आधा हिस्सा केंद्र और राज्यों के टैक्स का है। एक्साइज ड्यूटी, वैट, कस्टम ड्यूटी, डीलर कमीशन और सेस मिलाकर तय होती है प्रति लीटर पेट्रोल और डीजल की कीमत। देश में दो तरह की पेट्रोलियम कंपनियां हैं। एक वो जो कच्चे तेल का उत्पादन करती हैं और दूसरी रिफाइनिंग करने वाली। इसमें प्राइवेट और सरकारी दोनों तरह की कंपनियां हैं लेकिन सरकारी कंपनियों का दबदबा है।
कीमतों का फॉर्मूला
पहले पेट्रोल-डीजल की घरेलू खुदरा कीमतें महीने में दो बार पहली और 16 तारीख को तय होती थीं। लेकिन पिछले साल से ये रोज तय होने लगी है। यानी अब हर रोज सुबह छह बजे उस दिन के लिए दाम तय हो जाते हैं। डीलर के लिए ये फायदे या नुकसान की वजह हो सकता है। कभी दाम बढ़ने का फायदा तो कभी दाम कम होने का नुकसान। हालांकि जब से ये फॉर्मूला शुरू हुआ है तब से अब तक कम ही मौके पर कीमतों में कमी आई है। लंबे वक्त से दाम लगातार बढ़ ही रहे हैं। एक बैरल में 159 लीटर कच्चा तेल आता है। कच्चे तेल के मौजूदा भाव को डॉलर के एक्सचेंज भाव से गुणा करने पर उस वक्त का अंतरराष्ट्रीय भाव आ जाएगा। मान लीजिए कच्चे तेल का भाव 80 डॉलर प्रति बैरल है और डॉलर 68 रुपये का है तो एक बैरल कच्चे तेल का दाम हुआ 5,440 रुपये। इस लिहाज से एक लीटर कच्चे तेल की कीमत (5440/159) हुई 34 रुपये।
आॅयल मार्केटिंग कंपनियों को टैक्स जोड़ने और रिफाइनिंग खर्च के बाद पेट्रोल पर 2.62 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर करीब 6 रुपये प्रति लीटर खर्च आता है। ढुलाई का खर्च पेट्रोल के लिए 3.30 रुपये और डीजल के लिए करीब 3 रुपये प्रति लीटर आता है। इस तरह रिफाइनरी में पेट्रोल का दाम 38 रुपये लीटर और डीजल का दाम करीब 40 रुपये लीटर होता है। मगर इसके बाद इन पर एक्साइज ड्यूटी और सेस जोड़ा जोता है। यह राशि केंद्र सरकार के खजाने में जाती है। प्रति लीटर पेट्रोल पर इस वक्त करीब 20 रुपये एक्साइज ड्यूटी लगती है जबकि डीजल पर एक्साइज ड्यूटी करीब 15.5 रुपये है। पेट्रोल पर बेसिक एक्साइज ड्यूटी 4.5 रुपये और अतिरिक्त एक्साइज ड्यूटी 7 रुपये और जुड़ जाती है। इसके अलावा सड़क और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए वसूला जा रहा 8 रुपये प्रति लीटर सेस भी जुड़ जाता है। डीजल पर बेसिक एक्साइज ड्यूटी 6.33 रुपये लीटर और अतिरिक्त एक्साइज ड्यूटी एक रुपये लीटर लगती है। डीजल पर भी सड़क और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए 8 रुपये लीटर सेस लगता है।
इस तरह पेट्रोल पंप पहुंचते-पहुंचते पेट्रोल का भाव हो जाता है करीब 57 रुपये और डीजल का 55 रुपये के आसपास। अब इसमें डीलर का कमीशन और जोड़ लीजिए जो पेट्रोल पर इस समय 3.6 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 2.5 रुपये प्रति लीटर है। इस तरह पेट्रोल का भाव हो गया करीब 60 रुपये और डीजल का करीब 58 रुपये। अब बारी आती है राज्यों की। वे भी पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स ठोकने में कोई परहेज नहीं करते। वे वैट और दूसरे टैक्स लगाते हैं जो हर राज्य में अलग-अलग होता है। जैसे दिल्ली में पेट्रोल पर 27 फीसदी वैट लगता है जो होता है करीब 16 रुपये प्रति लीटर। इसी तरह डीजल पर वैट की दर है 17.27 फीसदी यानी करीब 10 रुपये प्रति लीटर। इस तरह रिफाइनरी से पेट्रोल पंप तक पहुंचते पहुंचते पेट्रोल और डीजल की कीमतें लागत के मुकाबले दोगुनी से ज्यादा तक पहुंच जाती हैं जिसका भार अंतत: आम जनता को ही उठाना पड़ता है। 2013-14 में पेट्रोल पर केंद्र और राज्य सरकारों का टैक्स करीब 45 फीसदी था जो अब सौ फीसदी हो गया है।
सरकार की जिम्मेदारी
सरकार भले चाहे जितना कहे कि बाजार ही दाम तय कर रहा है पर ये भी सच है कि सरकार चाहे तो अपने राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल कर सकती है। जैसे कर्नाटक चुनाव के दौरान करीब 20 दिनों तक दाम में कोई बदलाव नहीं हुआ जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ते रहे। लेकिन जैसे ही कर्नाटक चुनाव खत्म हुए तो उसके बाद से 10 दिनों में पेट्रोल करीब तीन रुपये लीटर महंगा हो गया। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव रोज के हिसाब से ऊपर या नीचे होते हैं। लेकिन भारतीय तेल कंपनियां कई देशों के साथ लंबी अवधि का करार भी करती हैं। इसके भाव रोजाना भाव से कुछ कम होते हैं। जैसे 2018-19 के लिए भारतीय क्रूड बॉस्केट का औसत भाव करीब 70 डॉलर प्रति बैरल है।
ज्यादा टैक्स के पक्ष में दलील
जानकारों का मानना है कि भारत में पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा टैक्स जरूरी है क्योंकि देश अपनी जरूरत का 80 फीसदी से ज्यादा कच्चा तेल आयात करता है। ज्यादा टैक्स होने से इनकी मांग पर कुछ हद तक नियंत्रण लगाया जाता है। पेट्रोलियम प्रोडक्ट सस्ते होंगे तो इनका इस्तेमाल बहुत तेजी से बढ़ेगा। इसका मतलब होगा आयात में बढ़ोतरी जिससे विदेशी मुद्रा ज्यादा खर्च होगी। इसके अलावा भारत में पेट्रोलियम प्रोडक्ट की मांग बढ़ी तो ग्लोबल मार्केट में कच्चा तेल महंगा होना शुरू हो जाएगा।
दाम रोकने का तरीका
इसका सबसे सीधा तरीका यही है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपने-अपने टैक्स कम कर दें या इन्हें जीएसटी के दायरे में लाया जाए। लेकिन सरकार के खर्चों और वित्तीय हालात को देखते हुए ऐसा मुमकिन नहीं है। इसलिए दूसरे तरीकों पर ही ध्यान देना होगा। मोदी सरकार पांचवें साल में प्रवेश कर गई है। अगले साल आम चुनाव होने हैं। ऐसे में कीमतों में बढ़ोतरी पर लोगों का गुस्सा सरकार को झेलना पड़ सकता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार से जो संकेत मिल रहे हैं उससे यही लग रहा है कि अगले तीन-चार महीने तक कीमतों में कमी की संभावना नहीं है। इसलिए सरकार कई विकल्पों पर माथापच्ची कर रही है।
केंद्र एक्साइज और राज्य वैट घटाएं
इस वक्त प्रति लीटर पेट्रोल पर दोनों सरकारों के 47 फीसदी तो टैक्स ही हैं जबकि डीजल पर टैक्स 38 फीसदी है। लेकिन सरकारों के सामने दिक्कत ये है कि प्रति लीटर एक रुपये टैक्स की कटौती से खजाने को सालाना 13 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होगा। केंद्र और राज्यों की वित्तीय सेहत ऐसी नहीं है कि वो इस झटके को सहन कर सकें।
पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के
दायरे में लाएं
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से लेकर वित्त मंत्री अरुण जेटली तक सभी इस बात की वकालत कर चुके हैं कि पेट्रोलियम प्रोडक्ट को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। लेकिन कैसे लाएंगे और कब लाएंगे इसे लेकर मामला अटका पड़ा है। इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को मोटी कमाई की कुर्बानी देनी होगी। अगर 18 फीसदी जीएसटी के दायरे में आया तो पेट्रोल 45 रुपये लीटर मिलने लगेगा और अगर 28 फीसदी के दायरे में आया तो भी दाम 50 रुपये के आसपास ही होंगे। लेकिन इससे सरकारों की कमाई करीब 2 लाख करोड़ रुपये कम हो जाएगी। 2016-17 में सरकार को पेट्रोल-डीजल पर टैक्सों से 4.6 लाख करोड़ रुपये की कमाई हुई थी।
भारत-चीन-जापान दबाव बनाएं
भारत, जापान और चीन उन एशियाई देशों में शामिल हैं जो ओपेक (कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले देशों का संगठन) से कच्चा तेल खरीदने में दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा कीमत देते हैं जिसे एशियन प्रीमियम कहा जाता है। भारत समेत तीनों देश प्रति बैरल 3 से 8 डॉलर ज्यादा दाम देते हैं। 1987 से ये प्रथा चली आ रही है। तब सऊदी अरब ने यूरोप, अमेरिका के लिए अलग कीमत और एशियाई देशों के लिए अलग कीमत रखी थी। तब से ये जारी है। हालांकि एशियाई देश इसके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं पर अब तक ये परेशानी दूर नहीं हो पाई है। अगर ऐसा हो पाया तो काफी दिनों के लिए राहत मिल जाएगी।
दूसरे प्रोडक्ट भी महंगे हों
पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी का जिस तरह से विरोध हो रहा है उससे अब सरकार को भी महसूस होने लगा है कि उपभोक्ताओं का इससे ज्यादा तेल नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए पेट्रोलियम के दूसरे बाई प्रोडक्ट के दाम बढ़ाने की तैयारी की जा रही है जैसे नाफ्था, वेक्स, पेंट और टायर के लिए इस्तेमाल होने वाले सॉल्वेंट वगैरह।
भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2017 में भारत को प्रति बैरल औसतन 52 डॉलर भाव पड़ रहा था जो अब 70 डॉलर पहुंच गया है। साल के आखिर तक आशंका है कि भाव 93 डॉलर तक पहुंच जाएगा। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को रोज पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों पर सफाई देनी पड़ रही है। सरकार को चिंता इसलिए भी ज्यादा है कि अगले दो साल चुनाव ही चुनाव हैं।
कच्चे तेल में राहत की उम्मीद कम
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हाल के तेवरों से कच्चे तेल के दाम में गिरावट आने के आसार कम हैं क्योंकि दुनिया भर में तनाव के हालात हैं। ट्रंप ने अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु समझौता रद्द करने का ऐलान किया है जिससे ईरान पर कई पाबंदियां लग जाएंगी। इसके अलावा ट्रंप ने खुद ही उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन से मुलाकात की पेशकश की और जब तारीख तय हो गई तो फिर अचानक रद्द भी कर दी। इन तमाम बातों से अंतरराष्ट्रीय तनाव बढ़ा है। जब भी अंतरराष्ट्रीय तनाव बढ़ता है तो उसका पहला शिकार कच्चा तेल होता है क्योंकि आपूर्ति को लेकर फिक्र बढ़ने लगती है। साथ ही तमाम देश एहतियातन ज्यादा खरीद करने लगते हैं जिससे आपूर्ति के मुकाबले मांग बढ़ती है और कच्चे तेल के दाम उछलने लगते हैं।