देवी सती ने मेरी पुस्तक ‘द इमॉर्टल्स आॅफ मेलूहा’ में एक नूतन प्रस्तुतीकरण के माध्यम से मेरी कल्पना में आने का निर्णय लिया था। मैंने एक सशक्त स्त्री के रूप में उनकी कल्पना की थी जिसकी अपनी एक सोच है। उनके पति भगवान शिव उनसे प्रेम करते हैं और उन्हें समान दर्जा देते हैं। जब हम उन लोकप्रिय मिथकों से तुलना करते हैं जिन्हें याद किया जाता है, तब क्या मेरी संकल्पना में कुछ तत्व भिन्न प्रतीत होते हैं? मुमकिन है। मगर क्या हिंदुत्व में ऐसी कोई परंपरा है जो हमारी पौराणिक कथाओं को हैरतअंगेज विभिन्नताओं और अक्सर भिन्न संदेशों के साथ देखती है? दृढ़त़ापूर्वक, हां। और वे आस्थावान को मिथक का ऐसा विकल्प प्रदान करते हैं जो उनकी आत्मा में गूंजता है और उन्हें शांति प्रदान करता है।
जरा सा पीछे हटते हैं और आज के भारत में महिलाओं के साथ हो रहे बर्ताव पर विचार करते हैं। ऊपरी तौर पर उनके स्तर में दिखाई दे रहे सुधारों के बावजूद कई मायनों में हमारे समाज का पतन हो रहा है। नई तकनीकों ने साफ-सुथरे, जाहिरी तौर पर ‘अ-नृशंस’ तरीके से जुर्मों को अंजाम देना मुमकिन कर दिया है- कन्या भ्रूण की हत्या इसका दिल दहला देने वाला उदाहरण है।
भारत में महिलाएं अभी तक अपने अधिकारों के लिए संघर्ष क्यों कर रही हैं? शिक्षा और समृद्धि में वृद्धि से भी कोई बहुत अंतर पड़ा दिखाई नहीं देता है। मसलन पंजाब, हरियाणा और गुजरात में कन्या भ्रूण की हत्या की दर सबसे ज्यादा है। इस रवैये के पीछे एक अहम वजह हमारे अतीत और मिथकों को समझने के लिए पितृसत्तात्मक नजरिये का प्रयोग करना है। अनेक लोग अपने मन में इन जुर्मों को इसलिए न्यायसंगत ठहराते होंगे कि ‘स्वयं हमारे देवताओं ने कहा है कि स्त्रियां परेशानियों का स्रोत हैं।’
मगर, सच तो यह है कि हमारी शानदार परंपरा सशक्त मातृसत्तात्मक समेत वैकल्पिक व्याख्याओं को भी सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। उदाहरण के लिए यद्यपि तुलसीदास जी की अत्यंत लोकप्रिय रामचरितमानस (प्रभु राम की मूल कथा का सोलहवीं सदी का आधुनिक रूप) देवी सीता को आज्ञाकारी, अधीनस्थ के रूप में दर्शाती है, मगर महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित मूल रामायण में कहीं ज्यादा सशक्त देवी सीता हैं जिनके पास अपनी समझबूझ है। अद्भुत रामायण (रामायण के सैकड़ों रूपों में से एक) की सीता प्रचंड योद्धा देवी हैं। यहां तक कि मनु ने भी, जो प्रत्यक्षत: हिंदू पितृसत्ता के पथप्रदर्शक हैं, कहा है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:।’ अर्थात जहां स्त्रियों का सम्मान होता है वहां देवता प्रसन्न हाते हैं।’ शायद उदारवादी हिंदुओं को उन लोगों के सामने अतीत के इन वैकल्पिक नजरियों को रखना चाहिए जो स्त्रियों को कमतर मानते हैं। एक देवबंदी फतवा स्त्री-पुरुषों के मिश्रित वातावरण में मुस्लिम औरतों के काम करने को नाजायज करार देता है। बहुत से ग़्ौर-मुसलमानों को शायद प्रख्यात महिला हजरत खदीजा के बारे में जानकारी नहीं होगी, जो प्राचीन अरब में एक बेहद कामयाब कारोबार चलाती थीं और भारी मात्रा में खैरात दिया करती थीं। बाद में उन्होंने मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह नाम के अपने एक एजेंट से विवाह कर लिया जो उनके लिए काम करता था, और आयु में उनसे पंद्रह वर्ष छोटा था! उनका शौहर उनकी इज्जत करता था और उनसे प्रेम करता था। आज हम उन्हें पैग़्ांबर मुहम्मद के नाम से जानते हैं। शायद उदारवादी मुसलमानों को अपने उन सहधर्मियों को हजरत खदीजा की मिसाल देनी चाहिए जो सोचते हैं कि औरतों को दबाकर रखना चाहिए। हमारा अतीत हमें ठोस स्पष्टीकरण प्रदान करता है जिन्हें आज स्त्रियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के लिए दिए जाने वाले ऐतिहासिक और धार्मिक औचित्यों का अंत करने के लिए सशक्त रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है। और हममें से जिन लोगों को उनकी जानकारी है, उनका यह नैतिक कर्तव्य है कि बोलें। मनुष्यों में बदलाव लाने का बेहतरीन तरीका उन विश्वासों पर चोट करने के बजाय जो उनके वजूद का केंद्र हैं, उनका लाभ उठाना है। सम्मानपूर्वक एक वैकल्पिक नजरिया सामने लाकर कि हम कौन हैं, हम स्वाभाविक रूपांतरण का प्रवाह होने देते हैं। ये एक जैविक, अ-विनाशी विकास है जिसमें जीवन का कोमल सार निहित है।