प्रियदर्शी रंजन
जोकीहाट विधानसभा उपचुनाव में जदयू प्रत्याशी की करारी हार के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री व पार्टी आलाकमान नीतीश कुमार ने अपने आवास पर पार्टी के बड़े नेताओं की बैठक बुलाई। चार घंटे चली इस बैठक में केसी त्यागी, पवन वर्मा जैसे चुनिंदा नेताओं के अलावा चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी अरसे बाद मौजूद थे। माना जा रहा था कि पिछले कुछ महीनों में बिहार में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में एनडीए खासकर जदयू के कमजोर प्रदर्शन को लेकर यह बैठक बुलाई गई है। बैठक में निराशाजनक प्रदर्शन को लेकर जिम्मेवारी तय होगी। लेकिन पार्टी नेताओं के जो बयान आए उससे यह स्पष्ट हो गया कि पिछले कुछ चुनावों में कमजोर प्रदर्शन से ज्यादा चिंता नीतीश कुमार को अपनी छवि और मुख्यमंत्री पद की गारंटी को लेकर है। बैठक के बाद जदयू के राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा ने कहा, ‘बिहार में तो नेता नीतीश कुमार ही हैं। यहां नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि नीतीश कुमार के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा। एनडीए के घटक दलों को नीतीश कुमार के नाम पर ही चुनाव लड़ना होगा।’
दरअसल, जदयू भाजपा को बिहार में बड़ा भाई मानने को तैयार नहीं है और पिछलग्गू की भूमिका में भी रहना नहीं चाहती है। नीतीश कुमार के साथ बैठक कर बाहर निकले जदयू नेताओं के चेहरे का भाव ऐसा ही था। ये दीगर बात है नाक सीधे न पकड़ कर घुमा कर पकड़ी गई। नीतीश के सिपाहसलारों ने भाजपा को तत्काल सीटों के बंटवारे पर बातचीत करने की नसीहत भी दे दी। जदयू का तर्क है कि विधानसभा में जदयू बड़ी पार्टी है और उसी के मुताबिक लोकसभा में उसे सीटें दी जानी चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में चूंकि जदयू अकेले लड़ी थी इसलिए पिछले चुनाव के आधार पर सीटों का बंटवारा नहीं होगा। अंदरखाने की बात यह है कि भाजपा ने जदयू से गठबंधन के भविष्य पर कोई बात नहीं की है। जबकि दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं ने नीतीश कुमार को ये संदेश दे दिया है कि वे गठबंधन के मामले पर भाजपा के संगठन महामंत्री से बात कर लें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस मसले पर जदयू के किसी नेता से बातचीत करने के पक्ष में नहीं हैं। इसे अपमानजनक मान रहे जदयू के किसी नेता ने भाजपा के संगठन मंत्री से संपर्क नहीं किया है। पार्टी नेताओं के साथ बैठक में नीतीश कुमार ने साफ कर दिया है कि अब फैसले का समय आ गया है। सूत्रों के मुताबिक बैठक में शामिल दोनों नेताओं को खुलकर बोलने को कहा गया है। साथ ही पार्टी प्रवक्ताओं को यह हिदायत दी गई है कि वे कोई ऐसा संदेश न दें जिससे लगे कि जदयू पिछलग्गू पार्टी है।
हालांकि जदयू के बागी तेवर के बीच 7 जून को एनडीए की ओर से पटना में आयोजित भोज में जदयू नेताओं की मौजूदगी और उनका सधा सुर यह जता रहा था कि भाजपा से बातचीत का दौर अभी लंबा चलेगा। भोज में नीतीश कुमार के पहुंचते ही जिंदाबाद के नारे से यह अनुमान भी लगा कि भाजपा नीतीश को अपने पाले से यूं ही नहीं विदा करने वाली। भोज में नीतीश कुमार समेत भाजपा के सुशील कुमार मोदी, रवि शंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव जैसे दिग्गज नेता काफी सहज प्रतीत हो रहे थे जिसके बाद राजग में उम्मीद जगी कि जदयू मान जाएगी। लेकिन जदयू के कुछ नेताओं ने भोज के कुछ ही घंटों बाद इस पर फिर पानी फेर दिया। भोज के कुछ ही देर बाद जदयू नेता श्याम रजक ने कहा, ‘लोकसभा चुनाव में जदयू का 25 सीटों पर दावा बनता है। जदयू को इतनी सीटें मिलती हैं तो बिहार में एनडीए सभी 40 सीटों पर जीतने में कामयाब रहेगी।’ हालांकि भाजपा नेताओं ने इसे उनका निजी विचार बता कर मामले को खारिज करने की कोशिश की लेकिन जब ओपिनियन पोस्ट ने जदयू के मुख्य प्रवक्ता संजय सिंह से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा, ‘जदयू को अपना विस्तार करने का लोकतांत्रिक अधिकार है और उसे ऐसा करने से कोई रोक नहीं सकता।’
पिछले एक महीने में यह चौथा बड़ा मौका है जब नीतीश और उनकी पार्टी की ओर से भाजपा की नाभि पर वार किया गया है। पहले जीएसटी को लेकर खुली आलोचना, फिर नोटबंदी को विफल करार देना और उसके बाद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए मुख्यमंत्री की ओर से 15वें वित आयोग को पत्र लिखना। इन मसलों को उठाकर जदयू ने पिछले कुछ समय से माहौल गर्म कर रखा है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक नीतीश के ये तमाम मुद्दे सीधे तौर पर भाजपा के खिलाफ हैं। मगर तापमान चौथे मौके पर परवान चढ़ गया जब नीतीश कुमार के साथ बैठक के बाद जदयू नेताओं ने बिहार में जदयू को बड़ा भाई और नीतीश को बड़ा चेहरा बता दिया। स्पष्ट है कि पिछले एक महीने से लागतार भाजपा को आंख दिखा रही जदयू की अब भौहें भी तन गई हैं। अब सवाल उठता है कि अगर नीतीश कुमार भाजपा से अलग होते हैं तो क्या उनके पास महागठबंधन में वापस जाने का विकल्प होगा? क्या वे गैर राजद और गैर भाजपा गठबंधन बनाने की पहल करेंगे? वे भाजपा से अलग हो जाते हैं तो क्या जनता उनकी पलटू राजनीति को स्वीकार कर पाएगी? और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या नीतीश ने भाजपा से अलग होने का आखिर मन बना लिया है?
दरअसल, नीतीश की सर्वहारा राजनीतिज्ञ की छवि उन्हें विकल्प देती है कि वे किसी भी गठबंधन और दल के साथ खुद को जोड़ लेते हैं और अपने वोट बैंक को भी तब्दील कर लेने में सफल हो जाते हैं। बावजूद इसके, इतनी जल्दी गठबंधन बदलने की संभावना को लेकर उनके करीबियों को भी चिंता है। राजनीतिक जानकार इसे नीतीश की अति अवसरवादी राजनीति करार दे रहे हैं। राजनीतिक जानकार देवांशु मिश्रा के मुताबिक, ‘यह तय है कि एनडीए में सबकुछ ठीक नहीं है। नीतीश कुमार की हैसियत एनडीए में अटल-आडवाणी युग वाली नहीं है। भाजपा अब बदल चुकी है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की आभा तमाम छवियों और हैसियतों पर कई गुणा भारी है। बिहार विधानसभसा में भले ही नीतीश कुमार की पार्टी भाजपा के मुकाबले बड़ी हो लेकिन वह यह सीट राजद और कांग्रेस के साथ लेकर आई थी। लिहाजा इससे यह तय नहीं होता कि बिहार में भाजपा बड़ी पार्टी है या जदयू। नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए भाजपा पर दबाव बनाने के लिए ऐसा कर सकते हैं। लेकिन सचमुच अगर वे एनडीए से बाहर होने की सोच रहे हैं तो उनकी अलटी-पलटी को अति अवसरवादिता ही माना जाएगा।’ मगध विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर एके सिंह का मानना है, ‘नीतश कुमार के पक्ष में न तो पहले जातीय समीकरण था और न ही आज है। फिर भी वे लगातार मुख्यमंत्री बन रहे हैं। उनकी सफलता का राज जातीय समीकरण नहीं बल्कि जातीय संघर्ष को समाप्त कर मानवीय विकास के तौर पर बिहार की राजनीति को ले जाने में निहित है। बगैर जातीय समीकरण के वे जिस तरह राजनीति के केंद्र में बने हुए हैं वह यही साबति करता है कि जाति के लिए बदनाम बिहार पिछले कुछ समय से विकास के मसले पर वोट करने लगा है। लेकिन नरेंद्र मोदी की विकासवादी छवि से उनका लोहा लेना अभी ठीक नहीं होगा। अब अगर वे पलटे तो जनता उनके साथ नहीं पलटेगी। उनकी पलटू छवि को अब जनता पचा नहीं पाएगी।’
जाहिर है, नीतीश की छवि गठबंधन बदलने के साथ बदल जाएगी। मगर इसका नफा या नुकसान का आकलन करने वालों का एक मत यह भी है कि नीतीश ने बिहार की राजनीति में खुद को चाणक्य साबित किया है। उनका वार पिछले कुछ समय से अचूक साबित हो रहा है। गठबंधन की बेड़ियां बदलकर भी वे खुद को साबित करते रहे हैं। पहले भाजपा के साथ मिले जनमत को राजद के साथ साझा कर लिया तो फिर राजद के साथ मिले जनमत को भाजपा के साथ मिला दिया। जनता में अभी भी यह आम धारणा है कि नीतीश ने भाजपा को छोड़ कर गलती की थी और फिर राजद को छोड़ कर भाजपा के साथ जाना उनकी बड़ी राजनीतिक भूल थी। लेकिन राजनीति समझने वाले इस राजनीतिक परिवर्तन को अलग नजरिये से देख और परख रहे हैं। राजनीतिक जानकार मो. अस्थावनी का मानना है, ‘नीतीश कुमार हर कदम नापतौल कर रखते हैं। उन्होंने देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी का दखल बढ़ाने के लिए उनके खिलाफ मोर्चा खोला और भाजपा का साथ भी छोड़ा। इसी तरह से उन्होंने बिहार को विकास की राह पर बढ़ाने के लिए दोबारा भाजपा का दामन लिया। लेकिन भाजपा उन्हें कमजोर नेता के तौर पर आकलन कर बड़ी भूल कर रही है। प्रधानमंत्री ने पटना विश्वविद्यलाय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की उनकी मांग को नजरअंदाज कर दिया और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की उनकी मांग को नजरअंदाज कर बड़ी भूल कर रहे हैं। अगर भाजपा यह मान कर चल रही है कि नीतीश कुमार के पक्ष में जातीय समीकरण नहीं है और कांग्रेस-राजद के साथ जाने का उनका रास्ता बंद हो गया है तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी।’
प्रो. प्रभाकर कुमार सिंह के मताबिक, ‘पिछले 13 वर्ष के एजेंडे को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि नीतीश कुमार ने बिहार में परंपरागत राजनीति को बदलकर अपना मुकाम खड़ा किया है। विकास के नाम से भी जहां बिहार के नेताओं को चिढ़ थी और इस प्रदेश को मात्र सामाजिक संघर्ष का राज्य माना जाता था, नीतीश कुमार ने विकास के मुद्दे को भुना कर अपना चेहरा चमकाया। लेकिन जब उन्हें लगा कि वे विकास के मुद्दे तक ही सिमट जाएंगे तो उन्होंने सामाजिक न्याय का नारा दे दिया। इसके तहत पंचायतों में बड़े पैमाने पर आरक्षण लागू कर दिया गया और यहां से उन्होंने अपने लिए कुछ जातीय वोट बैंक का जुगाड़ कर लिया। लेकिन इसके अगले चुनाव में उन्होंने पैंतरा बदल लिया और अगला चुनाव पूरी तरह भ्रष्टाचार पर केंद्रित हो गया। भ्रष्टाचार के मुद्दे को उन्होंने इस तरह पिरो दिया कि उनकी छवि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ सुपरमैन की बन गई। जब वे भाजपा से अलग हुए तो उन्होंने भगवा विरोधी की छवि बना ली। जब वे लालू के साथ चले गए तो उन्हें लगा कि सुशासन में कमी से उनकी छवि खराब हो रही है तो उन्होंने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया और जनता के बीच समाज सुधारक बन गए। शराबबंदी को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने खुद को एक नई श्रेणी के नेता के तौर स्थापित कर लिया है।’
बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की उनकी मांग भाजपा को बैकफुट पर जाने को विवश कर सकती है। मुद्दों की राजनीति करने वाले नीतीश के लिए विशेष राज्य का मुद्दा दोधारी तलवार साबित हो सकता है। इस मसले का इस्तेमाल एक ओर वे भाजपा को राज्य विरोधी बताने में करेंगे तो दूसरा जनता के बीच यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि संसाधनों और धन के अभाव के कारण बहुत कुछ कर नहीं पा रहे हैं। बिहार को आगे बढ़ाने के लिए विशेष राज्य के दर्जे की जरूरत है जिसे वो चुनावी मुद्दा बनाना चाहते हैं। यह मुद्दा बिहार को जातीय राजनीति से बाहर भी निकाल सकता है और नीतीश को बिहार की राजनीति में एक बार फिर मजबूती के साथ खड़ा कर सकता है। अगर केंद्र उनकी यह मांग नहीं मानता है तो अपने हक की लड़ाई बताकर नीतीश फिर से अलग राह अपना सकते हैं। उनकी नई राह के साथी कौन होंगे यह तो आने वाला वक्त बाताएगा लेकिन अभी कांग्रेस ने विशेष राज्य के मसले पर नीतीश का साथ देकर नए राजनीतिक समीकरण का संकेत दे दिया है। भले ही अभी राजद की ओर से महागठबंधन में नीतीश की वापसी को लेकर ताला जड़ दिया गया है लेकिन बदले हालात में लालू नीतीश को अपने पाले में लाने को विवश हो सकते हैं।