सत्यदेव त्रिपाठी
पिछले दिनों बाणभट्ट और उनकी कादम्बरी के रचना-लोक की खोज में लगभग एक सप्ताह ‘मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय’ के दल के साथ विध्याटवी के चन्द्रेह, भंवरसेन, सीधी और रीवा आदि इलाके की यात्रा का संयोग बना। यात्रा के चौथे दिन हम भगत, फाग आदि नृत्य-गायन की कलाओं के खांटी प्रदर्शन देखने एक सुदूर गांव ‘लकोड़ा’ पहुंचे।
वहां फाग गाने वाली टोली का नेत्तृत्त्व कर रहे थे एक बूढ़े जालपा-से सज्जन। सर पर किंचित बड़ी-सी पगड़ी तले पतला-सा चेहरा यूं ही छोटा दिख रहा था, ऊपर से बिना दांतों के कारण पिचके गालों के साथ और भी चिचुका-सा नुमायां हो रहा था। बस, सफाचट बनी दाढ़ी पर कायदे से छंटी मूंछों की सफेदी ही एक अलग रंगत दे रही थी। आधी बांह की ढीली-मैली कमीज अपने नीचे छिपे शरीर के एक तंतिया होने का पता दे रही थी। लेकिन हाथों से ताल और सुर के इशारे के साथ मुखड़े को कढ़ाने और फिर बंध को सम पर खींच कर उठाने का ओज उस कृश-काया को धता बता रहा था। पूरी मण्डली उनके इशारों पर बजा और उनके ताल पर गा रही थी और झूम रहे थे श्रोता। कुछ ऐसा विरल-सा समां बंधा कि मैं उठकर फोटो लेने और आयोजक से उनके बारे में पूछने से अपने को रोक न सका।
नरेन्द्र ने बताया कि वे हमारे -याने पूरे लकोड़ा गांव के- बब्बा हैं। नाम है जनार्दन सिंह। सारे गांव को उन्होंने ही गाना सिखाया है। 90 पार के तो हैं ही, पर आज भी कोई गायन उनके बिना नहीं होता- न कोई उनके बिना गाता, न वे बिना गाये रह पाते।
मैं तो वैसे ही लरज उठा था इस शख़्सियत को देखकर ही। उनके घर जाकर और सब देखना-जानना चाह रहा था, लेकिन 90 पार की उम्र का जिक्र सुनते ही चटकन-सा लगा… याद हो आया वह साक्षात्कार, जो उन दिनों बिल्कुल ताजा-ताजा था कि पिछले दिनों कैसे और क्यों एनडीटीवी ने हिन्दी साहित्य के स्वनाम धन्य आलोचक के राजधानी स्थित आवास पर अपनी टीम भेजकर नब्बे पार के नामवर सिंह की मिजाज-पुरसी की। मैं उसी के गहरे असर में रहा। फिर जनार्दन सिंह के घर जाकर हुई सारी बातचीत के दौरान अनायास ही समानांतर रूप से मेरे सामने नामवरजी के आलोक में ही भास्वर होते चले गए जनार्दनजी और जनार्दन सिंह के बरक्स कुछ और तरह से खुलते गए नामवरजी…, जिसमें बुनती-बनती प्रकट होती गयी अपने खांटी लोक जन बनाम शीर्ष पर बैठे शिष्ट जन की निहित प्रकृति, नियति और नीयत भी! और महीने भर बाद जब लिखने बैठा, तो उसी दौरान पढ़ने को मिल गया नवभारत टाइम्स में नामवरजी का साक्षात्कार, जो इसमें पूरक का अच्छा कारक बन गया।
जनार्दनजी के घर जाने की शुरुआत इस शर्म से हुई कि मेरे जाने का कोई मकसद ही नहीं- बस एक अचानक पैदा हुआ विस्मय और भावुक फिदाई। जबकि एनडीटीवी की भूमिका में महनीय मकसदों की एक बड़ी मौजूं फेहरिस्त रही, जिसमें साहित्य और शिक्षा की महत्ता तथा दोनों के साधक की अक्षय इयत्ता से लेकर समूचे साहित्य में ‘सर्वाधिक मर्यादित और विवादित’ की खोज-खबर लेने का ऐतिहासिक कार्य अंगड़ाइयां ले रहा था। विवाद तो सौ प्रतिशत सही और स्वयं नामवरजी द्वारा (विनोद में ही सही) उद्धृत ‘जो सुलझ जाती है उलझन, फिर से उलझाता हूं मैं’ से प्रमाणित। लेकिन हिन्दी साहित्य में ‘नामवर के बिना कोई मर्यादा नहीं…’, से ज्ञानवर्धन हुआ कि हिन्दी के भुवंगत साहित्यकारों को कौन कहे, दिवंगत आचार्यों (रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी व रामविलास शर्मा आदि) की भी कोई मर्यादा नहीं! खैर एनडीटीवी ने ऐसे ‘नामवर’ लोगों के लिए कुछ न करने (उनके फोटो तक न रखने) वाली दुनिया व मीडिया की लानत-मलामत की और गोया सबकी इकबारगी क्षतिपूर्ति करने का सेहरा बांधने के अन्दाज में अमितेश जी को रवाना किया।
जनार्दन सिंह के घर की तरफ जाते हुए खयाल आया कि बकौल एनडीटीवी कहां ‘हिन्दी जगत का वह अलबेला नायक’, और कहां यह अनाम व प्राय: अनपढ़-सा (दर्जा आठ पास) गंवई आदमी जनार्दनजी, जो ऊंचे-खाले चलते-फांदते बतियाते आगे-आगे और उस इतने बड़े चैनल तथा उसके मकबूल संयोजक के मुकाबले झूरी थाह पर एक कागज-कलम जेब में रखे पीछे-पीछे मैं- साथ में स्थानीय आयोजक व रंगमित्र रोशनी प्रसाद मिश्र! अरे हंसेंगे लोग…पर क्या कर सकते हैं- ‘हंसिबे जोग, हंसे, नहिं खोरी’! जब जनार्दनजी अपनी सहन में जाने के लिए सरपत-फूस से बनी बाड़ हटाने लगे, तो मुझे कैमरे में नुमायां शीर्ष समालोचक के शिवालिक अपार्टमेंट की सीढ़ियां दिखने लगीं… जहां दरवाजा खोलते हुए प्रकट हुए हिन्दी समीक्षा के बेताज बादशाह… अपने ही घर के संगेमरमर के फर्श पर पांव घसीटते हुए।
पर दो बातें दोनों में समान मिलीं- एक तो यह कि दांत दोनों ने नहीं लगवाए, जिसकी बाबत जनार्दनजी ने अपनी बेफिक्री में कहा- ‘तीस सालों से ऐसे ही खा रहा हूं- क्या फर्क पड़ता है?’ याने उनको इसकी पड़ी ही नहीं, लेकिन नामवरजी ने खास जिक्र किया- ‘ये काम मैंने नहीं किया- नकली दांत बनाकर जवान दिखना मनुष्यता का अपमान है’… कहते हुए अपनी घनघोर वैज्ञानिक दृष्टि स्थापित की, जिस पर दंत चिकित्सक खास मुलाहिजा फरमाएं कि दांत खाने के लिए नहीं, जवान दिखने मात्र के लिए लगाए जाते हैं और यह (गोया पापकर्म) उन्होंने नहीं किया। दूसरे यह कि भगवान को दोनों ही मानते हैं। लेकिन जनार्दनजी ने ईश्वर के होने में कभी शंका ही नहीं की। वे सीधे-सीधे अपने को परम पिता की संतान मानते हैं और उन्हीं में अपना पर्यवसान- ‘तुममें उतपति, तुममें बास’। लेकिन नामवरजी रोजमर्रा के मुहावरे की तरह बोल रहे थे, जिसमें ‘ईश्वर ने ही पीछे देखने का नहीं बनाया है’ जैसे वाक्यों में बार-बार भगवान के आने पर अमितेशजी ने बड़े पते (मार्के) की बात पूछी- ‘आप तो मार्क्सिस्ट रहे हैं… भगवान पर…’ तब तक हंसते हुए लोक लिया नामवरजी ने- ‘अरे मुहावरा है’। जैसे मुस्लिम ‘या खुदा’ कहता है, अंग्रेजी में ‘ओ माइ गॉड’ कहते हैं, तो हमारा ईश्वर क्या उनसे कमजोर है? फिर इधर नभाटा से कहा कि आजकल सुबह नहा-धोके चाय के बाद रामचरित मानस का पाठ करते हैं, उसके बाद ही कुछ खाते हैं। यह सब स्वयं बाबा मार्क्स सुन लें, तो नामवरजी के हाथ में माला ही न दे दें। अचानक इस आस्था का राज सिर्फ जईफी है या हवा के माफिक चलने की आदत में भाजपा की हवा के साथ होकर कुछ हासिल करने का एक और पैंतरा? मेयार सच्चे मार्क्सवादी का तो वो है कि मरते हुए भी जब ‘अबोध बच्चे को मोक्ष दिलाने की करुणा’ करने पादरी आया और बोला- ‘हेलो, आइ ऐम द मैन, फ्रॉम गॉड’ तो उस बन्दे का आखिरी वाक्य था- ‘शो योर क्रोडेंशियल्स’- दिखाओ अपना पहचान पत्र। खैर…!
बात चल रही थी जनार्दन और नामवरजी की बातों में समानता की, तो हम बात करने वालों में भी एक बात समानता मिली है- मैं भी जनार्दनजी के बारे में कुछ न जानता था और अमितेशजी भी साहित्य और नामवरजी के बारे में कुछ सुनी-सुनाई के अलावा लगभग कुछ नहीं जानते थे (जैसा कि लगा उनकी बात और तरीके से)। एनडीटीवी ने इतना बड़ा सेहरा बांधा, तो कम से कम एक जानकार आदमी भेज देते… बहरहाल!
एनडीटीवी के कैमरे में दिखीं मोटी-मोटी सजी-बिखरी किताबें और किताबें… (भूमिका में उल्लिखित बाथरूम की किताबें शायद नहीं आयीं कैमरे में) एवं भिन्न-भिन्न स्थानों की तस्वीरें …और यहां जनार्दनजी के दुआरे से घर में तक बिखरे चैती की फसल के अनाज व भूसे-डण्ठल… नामवरजी के कहे ‘मरेंगे हम किताबों में, वरक होगा कफन अपना’ के वजन पर जनार्दनजी भी कहें, तो ‘मरेंगे हम अनाजों में, भूसा होगा कफन अपना’। इन्हीं सबके बीच बमुश्किल एक बसहटा (बांस की बनी छोटे आकार की चारपाई) बिछायी गयी, जिस पर बैठते ही जनार्दनजी ने पूछ लिया- ‘पण्डितजी, का ली आर्इं- पानी…शर्बत’? खांटी गंवई संस्कार से प्रेरित उनकी यह पहल मेरे एजेण्डे में न थी, क्योंकि मैं तो एनडीटीवी के ‘अब कोई नामवर नहीं होगा’ के बरक्स तय कर चुका था कि जो ‘शिवालिक’ में नहीं हुआ, ‘लकोड़ा’ में नहीं होगा। और वहां समीक्षक-प्रवर ने तो पानी तक को न पूछा, वरना जब अमितेश का नामवरजी को पानी पिलाना कैमरे में आ सकता है, तो नामवरजी का पूछना भी आता। और न पूछना उस बनारस और गांव की मूल प्रवृत्ति आज भी नहीं है, जिसका पूरी बात के दौरान मौका निकालकर राग अलापते रहे मान्यवर नामवरजी। लेकिन बड़े आलोचक का रुआब कहें या फिर खांटी राजधानी कल्ट कि उनका ‘बनारसीपना’ बस, अपने पान खाने की, उन्हीं के शब्दों में, ‘कुटेब’ (बुरी आदत) की पुष्टि भर रहा और ‘गांव का आदमी होना’ किसी साक्षात्कार में रचना के साथ समीक्षा के विकसित होने की तुलना के लिए ‘पानी के साथ धान के बढ़ने’ में कभी सुना गया था। ‘नभाटा’ के साक्षात्कार से ये पता चला कि आजकल ‘शिवालिक’ के ‘सर्वेण्ट क्वार्टर’ के परिवार के भरोसे ‘मरूंगा मैं सुखी’ के लिए ‘जीवन की धज्जियां उड़ाने’ वाले अज्ञेय-चिंतन को साध रहे।
जनार्दन सिंह से मेरा संवाद उनकी बघेली और मेरी भोजपुरी में हुआ, जिसे मैं यहां हिन्दी में प्रस्तुत कर रहा हूं। लेकिन दोनों भाषाओं में पांच से दस फीसदी से अधिक न फर्क है, न हमारी बातचीत पर कोई फर्क पड़ा। नामवरी-साक्षात्कार के प्रभाव में डूबा मैं अचानक पूछ बैठा- अब इस नब्बे पार की उम्र में अकेलापन महसूस करते हैं आप? और तपाक से जवाब आया- कैसा अकेलापन? अकेले होने का मौका कहां है पण्डितजी? और अकेले होना किसको है? देख तो रहे हैं पूरा गांव है… हरदम साथ होता है-गाने से रोने तक। मैं गद्गद्, लेकिन अवाक भी कि अब क्या करूं- जनार्दनजी तो गंवई अन्दाज में सबकुछ थोड़े में सीधे समेटे दे रहे हैं, जबकि हमेशा सभाओं-बैठकों आदि में रहने के हवाले से यही पूछने पर नामवरजी ने हसरत भरी आह-सी भरते हुए कहा- ‘बहु…त मिस करता हूं’… और उसी सभाओं आदि को ही अपना सामाजिक जीवन एवं उसी के प्रमाण से अपने को बहिर्मुखी बताया। फिर लगभग दस मिनटों तक अपनी देश-विदेश की यात्राओं को बखानते रहे, जिसमें खास जोर हवाई से रेलिया बैरन तक की घुमक्कड़ी व फोटो आदि की मुफ्तखोरी पर था। और इसी की निरंतरता में अपनी चर्या बताने लगे थे, जिसमें पढ़ने-लिखने की बात के साथ अपनी बहुत बड़ी लाइब्रेरी का हवाला देते हुए खास उल्लेख 100 से अधिक अपनी लिखी किताबों का किया- बिना पूछे।
अभी कल तक तो अपने कद से बहुत कम लिखने के हीनभाव के उदात्तीकरण में खुद को वाचिक परम्परा का शीर्ष आचार्य सिद्ध करते अघाते न थे… अब आचार्य शुक्ल जी की बराबरी करने की महत्त्वाकांक्षा में कई खण्डों में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने का मंसूबा बता रहे, भविष्य में अपने को आलोचना के सम्पादक के रूप में पहचाने जाने की बात खुद ही करके स्वयं को महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकक्ष रखे जाने का शगूफा उछाल रहे। पहले भी कभी उपन्यास-समीक्षा पर ‘न भूतो, न भविष्यति’ वाला ग्रंथ रचने की उद्घोषणा करते… लेकिन अपने सामाजिक जीवन व बहिर्मुखी व्यक्तित्त्व से भरमाये सभा-बैठकों की गवनई से स्वयं को रोक न पाए कभी…! और अब जब लिख पाने की सम्भावना खत्म हो गई, तो सौ से अधिक किताबों का काल्पनिक ढूह खड़ा कर रहे हैं… क्योंकि यदि सब जुहा दी जाएं, तो नामवर-लिखित किताबें दर्जन भर से अधिक न होंगी। और जो उनके कहे-बोले को पद-धन-लाभ के लोभ से लोगों ने खतिया लिया-दिया है, जिसमें सबसे उद्भट मुनीमी वाले वो चार मोटे-मोटे बहीखाते भी हैं, जिनमें उनके खांसे-थूके-छींके आदि को भी ‘नामवर’ करते हुए टांक दिया गया है…, उन सबको मिला दें, तो शायद दो दर्जन हो जाएं। पर इस बिसात को पांच गुना से अधिक बताने के मामले में भी नब्बे पार का यह ‘नायक अलबेला’ ही है।
और वहीं जनार्दनजी को देखें कि नरेन्द्र के संग्रहीत दस हजार बघेली लोकगीतों के संग्रह (संगीत नाटक अकादमी से शीघ्र प्रकाश्य) में 800 से अधिक गीत अकेले बब्बा ने लिखाए हैं, लेकिन जनार्दन बब्बा से पूछा, तो बोले- अरे इतने नहीं होंगे पंडितजी… नरेन्द्र तो अपना बच्चा है। बोल दे रहा है…’। यही है भारतीय संस्कृति- कालिदास के ‘क्व चाल्प विषया मति:’ और तुलसी के ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे’ वाली संस्कृति, जहां बखान दूसरे करते हैं। वह शख़्स बिना पूछे ही ‘सौ से अधिक किताबों’ की तरह खुद नहीं बताता कि इतने गीत याद हैं…। लेकिन ऐसे नामवरों के बारे में भी तुलसी ने ही लिखा है- ‘अपने मुंह तुम्ह आपनि करनी, बार अनेक भांति बहु बरनी’, पर बेचारे बाबा तो ‘बरनी को करनी’ तक बता पाए। उन्हें क्या पता था कि आज के नामवर लोग तो ‘अकरनी’ को भी ‘भांति बहु बरनी’ कर डालेंगे और अमितेश जैसे अनाड़ी लोग सुनके तथा आभा जैसे लोग नोट लेकर चले आएंगे! और अनाड़ी वाक्य रचना में अमितेश का एक मौजूं प्रश्न- ‘हमारे यहां हिन्दी में बुजुर्ग को ‘लोग छोड़ देता है’…ऐसा आप भी मानते हैं’? उत्तर में सादगी के साथ नामवर उवाच- ‘यह तो सही है’ और फिर ‘संन्यास आश्रम’ युग का हवाला देते हुए तब के लोगों की समझदारी को सराहा कि जिस घर में सम्मान से रहे, वहां अपमानित होने से अच्छा है- बाहर निकल जाना। आश्रम धर्म की यह अभिनव व्याख्या भी सितारा समीक्षक (स्टार क्रिटिक) ही कर सकता है!
इस ‘अलबेले नायक’ को आज भी ‘बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी, गंगा-स्नान’ आदि याद आता है। काशी की अनुरक्ति (पैशन) में छोटे भाई का नाम ‘काशी’ रखा। चुनने को कहा जाए, तो आज भी दिल्ली नहीं, काशी चुनेंगे। परंतु यह पूछने का जुर्म कौन करे कि ऐसा था, तो काशी ने बीएचयू में अध्यापन की टॉप नौकरी दी थी, फिर किन मोहों में छोड़ा गया? फिर किन आकर्षणों में कभी बहुरा न जा सका? आज भी ‘एक बार काशी देखने की बड़ी इच्छा है, कह नहीं सकता- पूरी होगी या नहीं…’ जबकि हालात तो सर्वविदित हैं कि सगे भाई बीएचयू से सेवामुक्त होकर उत्तम इलाके के अपने बंगले में रहते हैं, सगा भतीजा और सगे भाई की पुत्रवधू उसी बीएचयू में प्रोफेसर हैं, अपने बेटी-बेटा लाखों में कमा रहे और खुद की पेंशन है… यानी चार्टर्ड विमान से जितनी बार चाहें आ सकने, रह सकने की मुक्त स्थिति है। तो फिर यह दयनीयता है या ‘बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है, जिसकी परदादारी है’! शायद पर्दा कभी उठे… इशारा तो ‘भाई काशीनाथ’ दशक भर पहले कर चुके तो हैं…। इसके समानांतर कितनी सादी और खुली जिन्दगी की सीधी बात जनार्दनजी ने निठुरे मने बड़ी शान से कह दी- उनका तो काशी और मक्का… सब यही लकोड़ा है। बेटी ससुराल (कानपुर) में अकेली (बिना देवरानी-जेठानी के) होने से व्यस्त है- साल-दो साल में किसी मौके पर आती है। बेटा सिगरौली इलाके में ठेकेदारी का काम करता है। बहू-पोते अक्सर आ जाते थे, पर दुर्दैव से पिछले सालों में बहू नहीं रही, विवाहित पोती चल बसी… दुखी बेटा इधर साल भर से नहीं आया। पत्नी भी दुखी और रोगी होकर चलने-फिरने में अशक्त हो गई हैं। खुद ही खेती-बारी से लेकर खाना-पीना बनाने, पत्नी की देखभाल करने का सारा काम देखते हैं और समय निकाल कर बेटे के पास हो आते हैं… और हारे-गाहे में पूरा गांव साथ रहता है… ‘मैं तो लकोड़ा के बिना कहीं और जी तो क्या, मर भी नहीं सकता पण्डितजी… हां, कोई पूछे, तो फिर जरूर यहीं पैदा होना चाहूंगा…’। आगे के लिए मुझे महादेवीजी के ‘ठकुरी बाबा’ याद आ गए- ‘सरग हमका ना चाही, मुदा हम दूसर नवा सरीर मांगे बदे जाब जरूर। ई ससुर तो बनाय कै जरजर हुइगा’।
जनार्दनजी का यह पूरा सम्भार देखकर मुझे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘कुटज’ बेसाख़्ता याद आ रहा है- ‘ये ठिगने-से, लेकिन शानदार दरख़्त गर्मी की मार खा-खाकर, भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सह कर जी रहे हैं- सिर्फ जी ही नहीं रहे, हंस-गा भी रहे हैं।… मस्तमौला हैं ये। इनकी जड़ें काफी गहरे पैठी रहती हैं। वे पहाड़ की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोज्य खींच लाते हैं!’ जनार्दनजी की जड़ें हमारे लोकजीवन में जमी हैं। अभिजन इसे सुखाकर ही ‘शिष्ट’ बनते हैं। यही लोक की जड़ नब्बे पार तक इतनी पारिवारिक विपत्तियों व खेती के कठिन कामों के बीच भी सूखती नहीं, उस रस को बनाए हुए है- गाती-बजाती-हंसती-हंसाती रहती हैं। और उस सच से रोज दो-चार होती रहती हैं, जिसे जनार्दनजी ने घर बैठे बात-बात में हंसते-हंसते गाके सुना दिया-
‘एक दिना ससुरे जाए का परी, जायके यमराज से बताय के परी/ चारि जने मिलि डोलिया उठइहैं, औ घाटै घाट नहाये के परी।
और पण्डितजी की ही व्याख्या में ये शिवालिक निवासी… शिवालिक या ‘शिवालक… शिव की जटाजूट ही इतनी सूखी, कठोर हो सकती है’ और उलझी भी। तभी वे बोलते कुछ और हैं और करनी कुछ और कहती है। यहां सन्दर्भित दोनों साक्षात्कारों (यूं तो बहुत हैं) में आयी हकीकतें कह दे रही हैं कि जीवन इनकी धज्जियां उड़ा चुका है- कबीर के माफिक- ‘माटी कहे कुम्हार से तू का रूंदे मोहि, एक दिन ऐसा आएगा, मैं रूदूंगी तोहि। इतनी बड़ी देसी-बिदेसी दुनिया और बेटे-बेटी के दिल्ली में ही रहते यह एकाकीपन! शायद इस चरम शिष्टता में परिवार के साथ होना ‘परनिर्भर होना’ होता हो। जिस प्रिय बनारस की धज्जियां उड़ाकर छोड़ गए थे, आज उसी को देखने की तड़प! यह सब उनकी जुबानी पढ़कर हिन्दीतर वृहत्तर समाज क्या सोचेगा इतनी बड़ी हिन्दी भाषा के तथाकथित शीर्ष आलोचक और इसके बरक्स इस भाषा और साहित्य के स्तर पर? और युनिवर्सिटियों में भरी गई सड़ांधों पर तो साक्षात्कार होते ही नहीं! अंत में अपने चैनल के लिए सेल्समैन की भाषा में कहा भले गया कि ‘फिर कभी कोई दूसरा नामवर नहीं होगा’, पर कभी कोई दूसरा किसी पहले जैसा नहीं होता। फिर दूसरे नामवर न हों, तो क्या होगा? जब ‘छायावाद’ और थोड़ा-सा ‘दूसरी परम्परा की खोज’ के सिवा नब्बे से अधिक सालों में कुछ दिया नहीं- सिर्फ शगूफे छोड़-छोड़ के, ‘वाद, विवाद, संवाद’ लिख-लिख के और मंचों-साक्षात्कारों में विवाद फैला-फैला के कमाया नाम-दाम, जिससे बनी ‘पॉप्युलैरिटी’ को भुनाने जाता है चैनल भी, वरना 90 पार के बड़े रचनाकार रामदरश मिश्र या अभी हाल में आकर बहुत देर से ‘मिथक सरित्सागर’ जैसी साधनापरक रचना के लिए ‘साहित्य अकादमी’ से पुरस्कृत अस्सी पार के रमेश कुंतल मेघ आदि के पास भी क्यों नहीं जाता?
मैं यह जरूर कह सकता हूं कि जनार्दन से मिलना सौभाग्य था मेरा… पूरे गांव के साथ मिलकर जनार्दनजी ने अनायास जो लकोड़ा बनाया है, यह नस्ल (ब्रीड) भी अब लुप्तप्राय हो रही है। मिल लें ऐसे जनार्दनों से, जहां मिलें… ऐसे जनार्दन फिर हों, न हों! ‘फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है, उसे गमले से क्या लेना-देना’?