सत्यदेव त्रिपाठी
हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, पर ‘मुल्क’ फिल्म के पुलिस अधिकारी दानिश जावेद (रजत कपूर) के बयान के मुताबिक उसकी पकड़ में आया हर आतंकवादी प्राय: मुसलमान रहा है। इसके बावजूद देश में इन आतंकवादियों का प्रतिशत पूरी मुस्लिम आबादी का 0.5 भी नहीं होगा। इसी तरह फिल्म का मुख्य पात्र मुराद अली मुहम्मद उर्फ वकील साहेब (ऋषि कपूर) क्रिकेट में पाकिस्तान की जीत पर तालियां बजाने वाले अपने मुहल्ले के मुसलमानों को फटकारता है, पर ऐसा करने वालों का प्रतिशत भी 5-10 से अधिक न होगा। फिर भी इसी के चलते पूरी मुसलमान कौम को कलंकित-गर्हित किया जाता है। ऐसा करना न सच है, न सही, पर इस मुस्लिम-फोबिया की पीड़ा हर सच्चे भारतीय मुसलमान को झेलनी पड़ती है। इसी को फिल्म में ‘प्रेजुडिस’ कहा गया है और बार-बार प्रेजुडिस ही कहा गया है। हिंदी फिल्में अपनी भाषा के मामले में इतनी दरिद्र व अंग्रेजी-मोह से इतनी ग्रस्त क्यों हैं? हिंदुओं की तरह यह उनका भी अपना प्रेजुडिस यानी पहले से बना ली गई धारणा ही है क्योंकि पूर्वाग्रह कहेंगे, तो लोग समझेंगे नहीं। अरे भाई, बहुत से लोग तो प्रेजुडिस ही नहीं समझ रहे…।
तो इसी जड़ व रुटीन धारणा को तोड़ने के लिए ही बनी है फिल्म ‘मुल्क’। इस तरह यह फिल्म विभाजन के बाद से ही देश में घर कर गई एक बड़ी ऐतिहासिक जरूरत को पूरी करने की गरज से बनी है। सच तो यह है कि इस फिल्म को यह भी बताना चाहिए था कि ताली बजाने व आतंक फैलाने वालों का प्रतिशत यदि 90 होता, तो भी बचे 10 प्रतिशत को लांच्छित करना इतना ही गैर जिम्मेदाराना व अनुचित होता, क्योंकि इंसानियत कोई चुनाव नहीं है कि गिनतियों से तय की जाए। बहरहाल, इसके लिए ठीक ही शहर चुना गया बनारस, जहां एक से एक हिन्दू दार्शनिकों-विद्वानों के साथ बिस्मिल्लाह खान भी हुए और तुलसीदास जैसे विश्व प्रसिद्ध कवि से पहले कबीर भी हुए…। ऐसी गंगा-जमुनी संस्कृति वाले शहर के मुहल्ले में बिना किसी भेदभाव के दोनों समुदायों के आपसी हंसी-विनोद, बोली-ठोली की रंगत से फिल्म शुरू होती है और मुराद अली की 65वीं सालगिरह पर हुए जलसे में पूरे परिवार के नाच-गान के साथ मुहल्ले भर के सहभोज में पड़ोसी पंडित के पंडिताइन की चोरी मटन खाने जैसी तमाम चुहलबाजियों में हिन्दू-मुस्लिम के मानवीय भाईचारे की जो पृष्ठभूमि बनती है, उसी के बरक्स एक बरगलाए युवक के चलते हुई घटना से आगे के मंजर में पूर्वाग्रह वाली चेतना खुलती और सालती है, जब वही मुहल्ला उसी मुराद अली के घर पर पाकिस्तानी होने के नारे लिख देता है और पत्थरबाजी करता है। फिल्म का यह समक्षता वाला विधान बड़ा कलामय है।
लेकिन जश्न पूरा होते-होते मुराद अली के सगे छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा) अपने बेटे शाहिद (प्रतीक बब्बर) को देर रात स्कूटर से छोड़ते हुए पाए जाते हैं। इतनी रात को कहीं न जाने व संभाल के जल्दी लौट आने की हिदायत के बाद बिलाल जाते हैं और दृश्य बदलता है…इलाहाबाद जाने वाली बस में विस्फोट होता है…सनसनीखेज दृश्य में भागता-छिपता एक नवयुवक और पीछे लगा एक पुलिस वाला दिखता है…। पुलिस का तो यह पहला प्रवेश है, पर भागता युवक वही है – बिलाल का बेटा शाहिद। बन्द कमरे में छिपे उसके सामने दरवाजे की निचली दरार से पुलिस अफसर आवाज वाले मोड पर रखा मोबाइल फेंकता है और उधर से फोन पर वकील साहब का परिवार मुखातिब दिखता है…। छोटे व नकारात्मक किरदार की परवाह किए बिना बब्बर ने भूमिका स्वीकारी, तो इसमें ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी…। फिर ऐसे तहजीबदार परिवार में शाहिद के आतंकवादी बनने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत मुख़्तसर-सी है। बनारस के मुहल्ले से शुरू हुई फिल्म इलाहाबाद जाने वाली बस में हुए विस्फोट के बाद अपनी स्थानीयता खो देती है- न परिवेश में कुछ आता, न ही भाषा में।
सबसे बड़ा बिलुक्का (लूप होल) शाहिद-पुलिस वाले दृश्य में ही बनता है, जब कमरे में घिरे अकेले शाहिद को गिरफ्तार न करके, सारे नियमों को ताक पर रखते हुए पुलिस वाला उसे गोली मार देता है और बिलाल को आतंकी हमले का मुख्य साजिशकर्ता मान कर गिरफ्तार कर लेता है। सलूक ऐसा है पुलिस का कि अपनी हिन्दू बहू आरती मल्होत्रा मुहम्मद (तापसी पन्नू), जो उसका केस लड़ रही है, से जेल में मिलने के दौरान बिलाल कहता है कि ये लोग तो मुझे छोड़ेंगे नहीं, तुम किसी तरह भाई जान (मुराद अली) को बचा लो, क्योंकि उसी पूर्वाग्रह के तहत मुहल्ले में अब तक के मानिन्द वकील साहेब को भी आरोपी बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। कान में लगे यंत्र से इनकी बातें सुनते हुए सारी सचाई जानने के बावजूद पुलिस अफसर बिलाल को बख्शता नहीं – उसकी जान जाती है। यह सब कोर्ट में खुलता भी है- अफसर कबूलता है कि उसने शाहिद को मार डाला, जबकि आराम से गिरफ्तार कर सकता था।
इस प्रकार असल में बाप-बेटे दोनों का कातिल है वह अफसर, लेकिन न इसे लेकर कोर्ट से आरती कोई मांग करती, न कोर्ट इस पर ध्यान देता। इसी तरह न पुलिस अफसर जांच करता, न अभियोग लगाने के पहले वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) पुष्टि कर लेता और न ही जज एक भी बार पूछता उन पांच पाकिस्तानी फोन नम्बरों के बारे में, जिनसे बिलाल को फोन आते रहे हैं और जो शक के मूल आधार बनते हैं। उन पैसों के ब्यौरे भी बिना परखे बिलाल के सर मढ़ दिए जाते हैं, जो विस्फोट की शाम उसे मिले थे। पूरा समय कोर्ट का और दर्शकों का इसी मनगढ़ंत फहीम में बिता दिया जाता है, जिसका खुलासा करती हैं अंत में वकील साहिबा बनी तापसी पन्नू कि वो पैसे बिलाल के इलाज के लिए उसकी बहन ने भेजे थे और यही बातचीत महीनों से जिन फोनों पर हो रही थी, वे पांचों फोन बहन के घर वालों के थे। सिद्ध हुई न वही कहावत कि खोदा पहाड़, निकली चुहिया…! बच सकता था शाहिद भी, पर जान संग गया बिलाल भी और वकील-जज ‘सवाद’ ही लेते रह गए…! और इस पहाड़ को उठाकर चुहिया बनाने का सारा दारोमदार तो महामहिम अनुभव सिन्हा पर ही है, जिन्होंने कथा लेखक (यदि कोई है) के साथ मिलकर यह टाट की ठट्टी खड़ी की है। फिल्म-कथा न हुई, बच्चों की लुका-छिपी हो गई, जो खोजने वालों को छिपने की जगह बताकर छिपते हैं।
न्याय के ठीक सामने आशुतोष राणा यंू बोलते नजर आते हैं, जैसे कोई कट्टर हिन्दू नेता हो। आजकल फिल्मों में कोर्ट का हाल जाने क्या हो रहा है! कहां गए फिल्म ‘कानून’ (अशोक कुमार-राजेन्द्र कुमार) जैसे कोर्ट? ‘पिंक’ के वकील बने पीयूष मिश्र मुंह में उंगली डालकर जबर्दस्ती अपनी बात कबूलवाने वाले गुंडे नजर आते हैं। ऐसी भयावह आक्रामकता वाले ये दोनों कलाकार पढेÞ-लिखे हैं। और तापसी पन्नू… तैयार माल को पेश करने में डूबने-उतराने लगती हैं। लगता है, उन्हें जैसा करने आता है (नाम शबाना व पिंक), वैसा बोलने नहीं। बोलते हुए उनकी तो देह-गति भी हकलाती है। फिर जज बने कुमुद मिश्र जिस तरह खल भूमिकाओं में आ रहे हैं, उससे उन्हें अभियोग पक्ष को शह देते देखकर पूरी शंका होती है साम्प्रदायिक गठजोड़ की, पर यह फिल्म की सराहनीय नाटकीयता सिद्ध होती है। फिर भी फैसले के नाम पर उनकी नसीहत भरी तकरीर एक बार फिर न्याय को सवाल बना देती है। माना कि मुस्लिम आतंकियों को मारकर पुलिस अफसर दानिश उस पूर्वाग्रह का बांस ही खत्म कर देना चाहता है, ताकि बंसी बजे ही न। यानी फिल्म की मुख्य बात बहुत गहरे उतर कर सिद्ध होती है एवं दानिश का चरित्र अपनी कुंठा में मनोरोगी साबित होता है- जटिल चरित्र बुन उठा है यह। फिर भी कानून की जानिब से ऐसे अन्यायी कामों की अनदेखी फिल्म को गहरी क्षति भी पहुंचाती है। उसे छोड़ने की कीमत है- उस बाइज्जत मुराद परिवार की दो जानें लेकर उन्हें बाइज्जत बरी कर देना।
ये सब तो कर्ता हैं, पर प्रतिनिधि पात्रत्व तो इन सबके भोक्ता ऋषि कपूर का ही है, जिनकी परिपक्वता ही फिल्म की जान बनकर उसे जिलाती है। उनसे तापसी पन्नू द्वारा किए सवाल ‘आप कैसे सिद्ध करेंगे कि आप एक सच्चे मुसलमान हैं’ और आपकी दाढ़ी व ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में क्या फर्क है, के उत्तर में ही निहित है पूरी ‘मुल्क’। पर इस पात्रत्व में जितनी ऊंचाई है, छोटे भाई बिलाल के रूप में फिल्म की बलि चढ़े मनोज पाहवा की मासूमियत व वफादारी में उससे कहीं ज्यादा गहराई है। दोनों भाइयों की बीवियां तबस्सुम एक और दो बनी नीना गुप्ता व प्राची पण्ड्या शाह के पास उतना ही अवकाश (स्पेस) है, जितना बीवियों के लिए होता है- फिर भी नीनाजी एक याद की छाप छोड़ जाती हैं। मुराद अली के बेटे और आरती मुहम्मद के पति आफताब मुहम्मद (इन्द्रनील सेनगुप्ता) फिल्म में मौजूद भर हैं, पर उनसे जुड़ी एक समस्या भी है कि हिन्दू पत्नी से बच्चा तभी पैदा करेंगे, जब उसका धर्म तय हो जाए। यह बात जितनी फालतू है, उतनी बेवजह बनके आई है और फिर भुला दी जाकर फिल्म-नियोजन की खामी बनकर मौजूद रह जाती है।
हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता का फिल्म में सधना अर्धसत्य ही रहेगा, जब तक उन कारणों की तफसील न होगी कि हर आतंकवादी प्राय: मुस्लिम ही क्यों होते हैं? यदि यह विभाजन के दर्द का रिसाव है, तो पाकिस्तान के हिन्दू आतंकवादी क्यों नहीं हो रहे…? क्या उनका खून पानी है या वहां खून को पानी बना देने की राष्ट्रीयता का कोई रसायन है! तो हिन्दुस्तान में वैसा रसायन क्यों नहीं है? और नहीं होना यदि हिन्दुस्तान की उदारता है, तो इसके क्या लाभ देश को मिल रहे हैं? मुस्लिम व हिन्दू बनकर इज्जत से रहने में खतरा तो तब तक रहेगा, जब तक हिन्दू-मुस्लिम बने रहेंगे। फिर उस शायर के दर्द का रिसाव कब बंद होगा, जिसने कहा-
मेरे महौल पे तारी है तअस्सुब
(मजहब) का गुबार,
आदमी साफ नजर आए,
तो कुछ शेर कहूं…