पाला बदला, पलटी बाजी

उत्तराखंड विधानसभा में 18 मार्च को बजट सत्र के दौरान अचानक एक्शन फिल्मों जैसा दृश्य देखने को मिला, जब एक कैबिनेट मंत्री सहित 9 सत्ताधारी विधायक सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए विपक्ष से जा मिले। हंगामे के बीच कृषि मंत्री हरक सिंह रावत और शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी के बीच हाथापाई भी हुई। बाद में विपक्षी दल बीजेपी के विधायकों के साथ कांग्रेसी विधायक एक ही बस में सवार होकर राजभवन पहुंचे और हरीश रावत सरकार के अल्पमत में आने की सूचना देते हुए बर्खास्तगी की मांग करने लगे। उत्तराखंड विधानसभा में चला यह ड्रामा कोई एक दिन की उपज नहीं था वरन इसकी बुनियाद बहुत पहले से पड़ती चली आ रही थी। एकला चलो रे की नीति अपना रहे हरीश रावत के खिलाफ मौका देखा तो असंतुष्टों ने होली के निकट अपना रंग दिखा दिया। हरीश रावत के प्रति उनके सहयोगियों की नाराजगी को ‘ओपिनियन पोस्ट’ बहुत पहले ही ‘सीएम खुद सरकार, सारे मंत्री बेकार’ शीर्षक से प्रकाशित कर भी चुका है। इसमें हरीश रावत के लिए आशंका जता दी गई थी कि आगामी चुनाव में सत्ता वापसी का तानाबाना बुन रहे मुख्यमंत्री से तंग कांग्रेसी उनकी राह में रोड़ा जरूर अटकाएंगे।

बहुगुणा की ताकत कम समझी

विजय बहुगुणा को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हरीश रावत अपने विरोधियों की ताकत कम समझने लगे थे। हरीश रावत के निवास से एक दीवार पार रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कुछ मसले थे, जिन्हें हरीश रावत बहलाकर टालते आ रहे थे। वक्त के साथ हरीश रावत यह संदेश देने में कामयाब भी रहे थे कि विजय बहुगुणा अब कमजोर हो चुके हैं। मुख्यमंत्री बनने के साथ ही हरीश रावत ने विजय बहुगुणा गुट की ताकत खत्म करने के मकसद से पूर्व सीएम के करीबी विधायकों को लाल बत्तियों से नवाजते हुए कैबिनेट मंत्री स्तर तक दे डाला था। वैसे भी विजय बहुगुणा अपने गैरसियासी तौर-तरीकों के कारण जनता की पसंद कभी नहीं रहे। जब हरीश रावत बतौर मुख्यमंत्री आए तो वे अपने राजनीतिक कौशल से जनता का दिल जीतते चले गए जबकि नाराज जनता विजय बहुगुणा को भुलाती गई। यहीं पर हरीश रावत जिंदगी की बहुत बड़ी भूल कर बैठे कि उन्होंने विजय बहुगुणा के शक्तिहीन होने का भ्रम पाल लिया। हरीश रावत भूल गए कि बूढ़ा शेर भी मौका लगने पर शिकार कर ही लेता है।

खाली मंत्री पद बना जंजाल

हरीश मंत्रिमंडल में एक मंत्री के निधन के बाद एक पद लंबे समय से खाली चला आ रहा था। इस पद को विजय बहुगुणा अपने गुट के किसी विधायक के लिए चाह रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कई बार हरीश रावत से इस मुद्दे पर बात कर चुके थे लेकिन भरोसा मिलने के बाद भी खाली पद ज्यों का त्यों रहा। बहुगुणा गुट के अलावा खुद हरीश रावत गुट के भी विधायकों की नजर इस मंत्री पद पर थी। इस पद को लेकर बनी आशा, निराशा के बाद हताशा से आक्रोश में तब्दील होती चली गई। ज्यों-ज्यों समय बीता, मंत्री पद के इच्छुकों का गुस्सा भी हरीश रावत के खिलाफ प्रबल होता गया।

‘एकला चलो’ ने बिगाड़ा तालमेल

लंबे सियासी और प्रशासनिक तजुर्बेकार नेता हरीश रावत दिखाने की कोशिश करते रहे कि सबकुछ ठीक चल रहा है लेकिन सरकार के मुखिया और उनके मंत्रियों के सुर अक्सर इसकी पोल खोलते रहे थे। नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट तो साफतौर पर आरोप लगाते थे कि हरीश रावत फैसले खुद ले लेते हैं और कैबिनेट में पास कराने के लिए बाद में ले जाते हैं। इन आरोपों की पुष्टि भी होती रही। मंत्रियों के विभागों में सीएम का सीधा दखल था। जहां विभाग से संबंधित मामलों में मंत्री को फ्रंट पर होना चाहिए, वहां मुख्यमंत्री खुद होते थे। मंत्रिमंडल के कई सदस्य भी एक-दूसरे को पंसद नहीं करते थे, जिसकी खटास का असर सरकार के कामकाज पर पड़ना लाजिमी था। कृषि मंत्री हरक सिंह रावत का अपनी ही सरकार के खिलाफ बिगुल फूंकना ऐसी बात है जिससे कैबिनेट के अपने मुखिया से रिश्तों को आसानी से समझा जा सकता है।

हरीश रावत अपने सहयोगियों को साथ लिए बगैर एकला चलो रे की नीति पर चलते रहे। परिणामस्वरूप उनके साथियों की नाराजगी गाहे-बगाहे अलग-अलग बहाने से बाहर आती भी रही। उदाहरण के लिए स्थायी राजधानी का ही मुद्दा लें जिसमें हरीश रावत गैरसैण में उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन अथवा स्थायी राजधानी बनाए जाने का संकेत देते रहते थे। वे विधानभवन सहित तमाम कार्य करवाकर जनभावना के मुताबिक पहाड़ के लोगों के दिल में जगह बनाने के लिए गैरसैण का विकास कराने में जुटे थे, जबकि उनके मंत्रियों ने उनके इस प्रयास की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गैरसैण में शीतकालीन विधानसभा सत्र के तुरंत बाद जहां वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश ने कहा- गैरसैण कभी राजधानी नहीं हो सकती, वहीं कृषि मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने गैरसैण के नाम पर जनता को बेवकूफ बनाने वाली बात कह दी। इसके अलावा भी मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने एक ही मुद्दे पर जुदा-जुदा बोल बोले।

दबंग हरक की नाराजगी

हरक सिंह रावत अपनी दंबगई के लिए जाने जाते हैं। उनकी दबंगई का शिकार आम आदमी की बजाय हमेशा ही मुख्यमंत्री या कोई अन्य उच्च पदाधिकारी होता रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से भी उन्होंने अपनी ‘सियासी दादागीरी’ के बूते बहुत सी मनमर्जियों को अंजाम दिया और अब हरीश रावत से भी यही कराने में लगे थे। शुरुआत में बहुगुणा के खिलाफ अस्त्र मानकर हरीश रावत ने हरक सिंह रावत की बातें मानीं भी, लेकिन अब बहुगुणा सहित अन्य गुटों को कमजोर मानने के चलते हरीश रावत खुद दबंग होते चले गए। इसका परिणाम यह रहा कि हरक रावत ने सदन में खुलेतौर पर मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ बिगुल बजा दिया।

दरअसल, कृषि मंत्री हरक सिंह रावत अपने लिए आबकारी और खनन मंत्रालय की मांग कर रहे थे। दोनों कमाऊ विभाग मुख्यमंत्री के निकटस्थों और चहेतों को समृद्ध कर रहे थे। ऐसे में कुबेर का खजाना हरीश रावत हरक सिंह रावत को सौंपते यह नामुमकिन था। इसके अलावा 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में हरक सिंह रावत अपने लिए मनमुताबिक सीट से टिकट सुरक्षित करवाना चाह रहे थे। लेकिन, सियासी समीकरणों के चलते हरीश रावत इसकी गारंटी देने में हरक सिंह रावत को उलझाते रहे। हरक सिंह रावत और हरीश रावत के बीच इसके अलावा भी बहुत से कारणों से खटास बढ़ती जा रही थी। आखिर में हरक सिंह रावत कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए पूर्व सांसद सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा से जा मिले और हरीश रावत को सियासी तौर पर ठिकाने लगाने की कार्ययोजना तैयार कर ली।

इस बीच हरक सिंह रावत के समर्थक दिल्ली में भाजपा के बडे नेताओं को उत्तराखंड की सियासत में हरक सिंह का महत्व समझाते रहे ताकि उनकी दबंग छवि का बुरा असर न पड़ने पाए। साथ ही पुराने भाजपाई और संघी हरक सिंह रावत अपने संपर्कों से अपने लिए ‘आपातकालीन’ जगह बनाते रहे। यानी हरीश रावत के खिलाफ हरक सिंह रावत का विद्रोह तो होना ही था, भले ही इसके वक्त में फर्क होता।

सलाहकारों ने डुबोई नैया

हरीश रावत के सलाहकार उन तक सही बातें पहुंचाते तो शायद 18 मार्च वाली नौबत से बचा जा सकता था। चाहे मीडिया सलाहकार हों या दूसरे, वे सच्चाई बताने वालों को मुख्यमंत्री तक पहुंचने से रोकते रहे। सच्चाई बताने वाले पत्रकारों को मुख्यमंत्री के नजदीक तक नहीं फटकने दिया। इसके अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ पदाधिकारियों तक के कामों में ये सलाहकार रोड़े अटकाने से बाज नहीं आए। सरकारी इमदाद की राह ताकते गरीब लोगों की अस्पतालों में मौत हो गई लेकिन मुख्यमंत्री के चाटुकारों को गरीबों की बद्दुआएं मंजूर रहीं।

एक व्यक्ति अपने बच्चे के इलाज में मदद के लिए मुख्यमंत्री से मिलने के लिए कई दिन से प्रयास कर रहा था। विधानसभा हंगामे से एक दिन पहले की बात है। वह किसी तरह पास बनवाकर विधानसभा परिसर में प्रवेश तो कर गया लेकिन उसे मुख्यमंत्री से नहीं मिलने दिया गया। सलाहकारों ने देखने के बावजूद उसकी अनदेखी की। विधानसभा की गलियों में रोता वह व्यक्ति सुरक्षाकर्मियों और सीएम के निकटवर्ती लोगों से गिड़गिड़ाता रहा कि उसे 50 हजार रुपये की आर्थिक सहायता मिल जाए तो उसका बच्चा बचाया जा सकेगा। इसी बीच उस व्यक्ति के मोबाइल पर कॉल आई और वह रोते हुए बोला, ‘जिस मुख्यमंत्री के राज में मेरा बेटा नहीं रहा, अब उसकी कुर्सी भी नहीं रहेगी।’ ऐसी न जाने कितनी घटनाएं होंगी, जहां राजा को प्रजा की बद्दुआएं मिली होंगी। जाहिर है सलाहकारों की बढ़ती लालिमा और रौनक मुख्यमंत्री को भारी पड़ी।

पीडीएफ प्रेम ने बढ़ाया असंतोष

कांग्रेस के विधायक सरकार को समर्थन दे रहे प्रोगे्रसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) को कतई सह नहीं पा रहे थे। दरअसल बसपा, यूकेडी और निर्दलीय विधायकों ने मिलकर गठबंधन पीडीएफ बनाया जिसके अध्यक्ष मंत्री प्रसाद नैथानी बने। मंत्री प्रसाद नैथानी की न तो हरक सिंह रावत से बनी और न ही विधायक सुबोध उनियाल को सुहाये। नैथानी को लेकर यह विरोध करीब-करीब पूरे पीडीएफ के खिलाफ ही माहौल बनाता गया। इसके अलावा पीडीएफ कोटे से पांच विधायकों को मंत्री पद मिला। इनमें एक पद बसपा कोटे के मंत्री का निधन होने के कारण खाली हो गया। उपचुनावों के बाद बहुमत में आए कांग्रेसियों को पीडीएफ खटकने लगा। कांग्रेसियों का आरोप था कि पीडीएफ के मंत्री उनकी नहीं सुनते जिससे पार्टी को नुकसान पहुंच रहा है। पीडीएफ को मंत्रिमंडल से चलता कर पार्टी के विधायकों को जगह देने की मांग उठने के बावजूद मुख्यमंत्री टालमटोल कर रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पीडीएफ को सरकार से हटाने की मांग की और अपने समर्थक सुबोध उनियाल सहित अन्य कांग्रेसियों को मंत्री बनाने को लेकर राहुल गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक बात पहुंचाई। लेकिन आश्वासनों के बावजूद न तो रिक्त मंत्री पद भरा गया और न पीडीएफ को बाहर किया गया। हरक सिंह रावत ने भी पीडीएफ को लेकर आवाज उठाई। इसके बावजूद पीडीएफ कोटे के मंत्रियों को हटाना तो दूर, मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उन्हें उनके क्षेत्रों में और मजबूत ही किया। हालांकि पीडीएफ के मंत्री प्रीतम सिंह पंवार ने बागी विधायकों के आरोपों को निराधार बताया। पंवार ने कहा कि उन्होंने विकास कार्यों में कभी भी पक्षपात नहीं किया, ऐसे में पीडीएफ के खिलाफ आरोप लगाना सियासी स्वार्थों के सिवाय कुछ नहीं हैै।

राहुल-सोनिया का रवैया भी पड़ा भारी

कांग्रेस हाईकमान सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी कांग्रेस की बगावत का बड़ा कारण रहे हैं। विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत सहित तमाम कांग्रेसी अपने कुछ मुद्दों को सुलझाने के लिए हाईकमान से मांग करते आ रहे थे लेकिन कभी मुलाकात के लिए समय नहीं दिया गया। बल्कि मामला उलटे मुख्यमंत्री के ऊपर ही डाल दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के समर्थक कहते भी हैं कि कभी मुख्यमंत्री तो कभी हाईकमान के चक्कर काटते-काटते सब्र कब तक करते, इसलिए यह कदम उठाना पड़ा।

मोदी की नकल ने बिगाड़ी शक्ल

कांग्रेस के ही कुछ लोगों की मानें तो मुख्यमंत्री हरीश रावत को ‘मोदी स्टाइल’ में काम करने का चस्का लगा था। वे अकेले चलकर अगले चुनाव में सत्ता चाहते थे जैसे मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट मिले वैसे ही हरीश रावत के नाम पर कांग्रेस को वोट मिलेंगे। मोदी की इसी नकल ने हरीश रावत सरकार की शकल बिगाड़ कर रख दी।

सीएम को भी था अंदाजा, घोड़े को बनाया मोहरा

शतरंज के खेल में अक्सर घोड़ा शह-मात का जरिया बनता है। हकीकत में शायद ही ऐसा देखा गया हो। मगर उत्तराखंड में ऐसा हुआ, वाकई एक घोड़ा शक्तिमान सियासी खेल में शह-मात का मोहरा बना। 14 मार्च को सरकार के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान भाजपा विधायक गणेश जोशी पर पुलिस के घोड़े शक्तिमान की टांग तोड़ने का आरोप लगा, जिसमें मुकदमा भी दर्ज करा दिया गया। हालांकि बाद में सामने आए वीडियो फुटेज में विधायक जोशी घोड़े को डंडा लेकर डराते दिखे जबकि भाजयुमो के नेता प्रमोद बोरा के कारण घोड़े की टांग टूटी। बहरहाल, मुख्यमंत्री को अंदाजा था कि उनके खिलाफ कुछ बड़ा गेम प्लान है, जिसे बीजेपी का पूरा सहयोग है। इसीलिए पहले तो बीजेपी को दबाब में लाने के लिए सड़क से सदन तक घोड़े को लेकर विपक्ष पर हल्ला बोला गया और ठीक 18 मार्च को विधायक को बजट सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने जाते वक्त एक होटल से गिरμतार कर सदन में बीजेपी का संख्या बल कम किया गया। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री के घोड़े पर लगाए दांव से न तो विद्रोहियों के हौसले पस्त हुए और न ही विपक्षी दल बैकफुट पर आया।

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