आॅल इंडिया मुस्लिम वुमेन पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर से शायरा बानो के मामले को लेकर जब बातचीत की गई तो उन्होंने एक बार में तीन तलाक, हलाला के मौजूदा स्वरूप को कुरान के खिलाफ बताया। उन्होंने कहा कि बात-बात पर फतवे जारी करने वाले ये मौलवी कुरान की गलत व्याख्या करने वालों के खिलाफ फतवे क्यों नहीं जारी करते? उन्होंने बताया कि मुस्लिम समुदाय में औरतें हक मांगें भी तो कैसे? उन्हें इतना दबाकर रखा जाता है कि वे अपनी आवाज उठाने की हिम्मत ही नहीं करतीं। अरे इन लोगों ने तो यह तक प्रचारित किया है कि औरतों की आवाज इतनी धीमी होनी चाहिए कि घर की चहारदीवारी से बाहर न जाए तो बताइए क्या ये लोग अपने हक के लिए औरतों को आसानी से आवाज उठाने देंगे।
‘हमें भारत की अदालत पर पूरा भरोसा है। इंसाफ के लिए अगर शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है तो इसमें हंगामा नहीं होना चाहिए। ऐसे मर्द जो निकाह और तलाक के मामले में अपनी मर्जी चलाते हैं, औरतों को दोयम दर्जा देते हैं, उन पर तो कोड़े बरसाने चाहिए।’ शाइस्ता अंबर ने साफ कहा कि औरत को हक है कि वे न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएं। कुरान शरीफ कहीं भी औरतों के खिलाफ नहीं है, मगर मर्दों ने इसकी व्याख्या अपने ढंग से कर दी है। शरीयत में कहीं भी एक बार में तीन तलाक का जिक्र ही नहीं है। मगर देखिए आए दिन मेरे पास ऐसे मामले आते रहते हैं जिनमें फोन पर तलाक, तलाक, तलाक कहकर तलाक दिया जाता है। एसएमएस पर तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया जाता हैं। लेटर भेज दिया जाता है। शायरा बानो को भेजा गया तलाकनामा जायज ही नहीं है। तलाक के ये सारे तरीके शरीयत के कानून के खिलाफ हैं। जब तक दारुल कजा में औरतों को काजी, मुफ्ती और अलिमा के पदों पर नियुक्त नहीं किया जाएगा तब तक कुरान की व्याख्या मर्दों के जरिए होती रहेगी। शायरा बानो के तलाक को ही नहीं बल्कि इस तरह से दिए गए सभी तलाक को गैर कानूनी घोषित करना चाहिए।
ऐसे भी कई मामले मेरे पास आए हैं जिनमें शौहर गुस्से में आकर तलाक तलाक तलाक कह देता है और जब उसे गलती का एहसास होता है वह अपनी बीवी को दोबारा पाना चाहता है। इसके लिए वह हलाला करवाता हैं। हलाला जिस तरह से किया जाता है वह कुरान के खिलाफ है। जैसे तीन तलाक बोलकर मर्द औरत से छुटकारा पा जाते हैं। बिल्कुल वैसे ही अपनी तलाकशुदा बीवी का निकाह अपने बहनोई, भाई या किसी और रिश्तेदार से करवाकर उसे एक रात अपने दूसरे शौहर के साथ गुजारने के बाद फिर अपना लेते हैं। आपको पता है हलाला से गुजरी औरतों को दूसरी औरतें किस निगाह से देखती हैं। उस पर कैसे फिकरे कसती हैं। रास्ते पर गुजरने पर उस औरत के लिए कहा जाता है कि देखो वह जा रही है हलाला वाली औरत। क्या इस बेइज्जती के खिलाफ शरीयत के जानकर मर्द आवाज उठाएंगे। अगर कुरान या शरीयत के नियमों का गलत इस्तेमाल हो रहा है तो इस पर कोई खुलकर क्यों नहीं बोलता? अगर कोई यह कहता है कि ऐसे मसलों को छेड़कर मुस्लिम समुदाय को दूसरे बड़े मसलों से भटकाने और इन्हीं मसलों में उलझाए रखने की साजिश है तो इससे एक बात साफ है कि औरतों के मसले उन लोगों को बड़े लगते ही नहीं हैं। अब सोचने वाली बात है कि जब ये लोग अपने घर की औरतों को इंसाफ नहीं दिला सकते तो क्या खाक सोशल रिफार्म करेंगे। सामाजिक सुधार या न्याय करेंगे। दरअसल शाइस्ता अंबर ने यह बात उत्तर प्रदेश के राज्य अल्पसंख्यक आयोग के मुफ्ती जुल्फिकार के उस बयान को लेकर कही कि वह इस मसले पर ज्यादा कुछ बोलना नहीं चाहते। जुल्फिकार का कहना था कि शाहबानो केस के बाद से मुस्लिम समुदाय को इन्हीं मसलों में उलझाए रखने की कोशिश जारी है। मुस्लिम कौम में और कई बड़े मसले हैं जिन पर पहले बहस होनी चाहिए।
क्या इस्लाम में औरतों को तलाक लेने का हक है- इस पर शाइस्ता अंबर ने कहा कि हां, खुला ले सकती हैंं। लेकिन औरतों से जुड़े हकों का इतना प्रचार ही नहीं किया गया कि वे इनका इस्तेमाल कर सकें। हालांकि ऐसे कई मामले मेरे सामने आए और मैंने दोनों पक्षों से बात कर इन मसलों पर वाजिब कार्रवाई की। अगर मर्द नामर्द है, किसी ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिससे औरत को इन्फेक्शन हो सकता है या फिर मर्द के अत्याचार की इंतेहा हो गई है तो खुला के तहत ऐसी व्यवस्था है कि तीन घंटे के भीतर औरत को उस मर्द से अलग किया जाए।