पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र
कूष्मांडा चतुर्थकम्… मां दुर्गा के चौथे स्वरूप को हम माता कूष्मांडा के नाम से जानते हैं। मंद मुस्कान द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण ही इन्हें कूष्मांडा देवी कहा गया है। सृष्टि से पूर्व में जब चारों ओर अंधकार का साम्राज्य था और कहीं भी प्रकाश नहीं था तब माता कूष्मांडा ने ही अपनी सरल मुस्कान द्वारा ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इन्हें सृष्टि की आद्यस्वरूपा तथा आद्यशक्ति माना गया है।
इनका निवास सूर्य मंडल में है और सूर्य में निवास करने की क्षमता केवल इन्हीं में है। इनके तेज की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है। इनके शरीर की कान्ति और प्रभा भी सूर्य के समान देदीप्यमान और भास्वर है। इन्हीं के तेज और प्रकाश से चारों तरफ उजाला फैला हुआ है।
ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्रणियों में व्याप्त तेज इन्हीं की कृपा से है। आठ हाथ होने के कारण ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनके सात करकमलों में सुशोभित कमंडल, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृत से भरापूरा कलश, चक्र और गदा की शोभा देखते ही बनती है। इनके आठवें हाथ में अपने भक्तों को अष्ट सिद्धियां और नवनिधियों को देने वाली जप माला है।
इनका वाहन सिंह है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड को कुम्हड़ा कहा जाता है जिसे बोलचाल की सरल भाषा में सीताफल कहते हैं। इन्हें बलि देने के लिए यही सबसे अच्छा फल माना जाता है। इस कारण भी इनका नाम कूष्मांडा पड़ा है।
चौथे दिन होने वाली इनकी पूजा से भक्त का मन अनाहद चक्र में अवस्थित हो जाता है। इसलिए माता के स्वरूप को ध्यान में रखकर पवित्र मन के द्वारा इनकी पूजा करनी चाहिए। इनकी पूजा से जहां रोग और शोक समाप्त हो जाते हैं वहीं आयु, यश, बल और आरोग्य मिलता है। माता कूष्मांडा की समय न होने पर बहुत थोड़ी की गई पूजा और सरल भक्ति भी तत्काल फल प्रदान करती है।