पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र
कार्तिक शुक्ल एकादशी, जिसे देव उठावनी एकादशी कहा जाता है, 11 नवंबर को है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे हरिशयनी या देवशयनी एकादशी कहते है ,से पौराणिक आख्यानों के अनुसार ब्रहमा, इन्द्र,रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर,सूर्य आदि से वन्दित श्रीहरि क्षीरसागर में चार माह शयन करने चले जाते हैं। इस दिन से चातुर्मास्य यानी चैमासा शुरू हो जाता है। यद्यपि भगवान क्षणभर भी कभी सोते नहीं तथापि यथा देहे तथा देवे मानने वाले उपासको को षास्त्रीय विधान अवष्य करना चाहिए। इन चार महीनों के दौरान हिन्दू विवाह, नए भवन का निर्माण आदि शुभ कार्य नहीं करते। इसकी समाप्ति कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को होती है, जिसे प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु चार मास के शयन के बाद जाग जाते हैं और इस दिन से मांगलिक कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। स्त्रोत्रपाठ, भगवतकथा और पुराणादि का पाठ, भजन आदि करना चाहिए।
इस एकादशी के बारे में कहा जाता है कि यह पाप का नाश, पुण्य की वृद्धि करने तथा उत्तम बुद्धि वाले मनुष्यों को मोक्ष देने वाली है। एक ही उपवास कर लेने से मनुष्य को हजार अष्वमेध एवं सौ राजसूय यज्ञ का फल मिलता है। जो मन से ध्यान करते हैं, उनके पितर नरक के दुखों से छुटकारा पाकर भगवान के धाम को जाते हैं। इस दिन जो मनुष्य स्नान, दान, जप और हवन करता है, वह सब अक्षय होता है।
इस व्रत की पौराणिक कथा है- एक राजा के प्रदेश में सब मनुष्य एकादशी का व्रत करते थे। सब इस दिन फलाहार लेते थे। पूरे प्रदेश के व्यापारी इस दिन अन्न आदि नहीं बेचते थे। राजा की परीक्षा लेने के लिए एक दिन भगवान श्रीहरि एक सुंदर स्त्री का रूप बना कर प्रदेश के किनारे आकर बैठ गए। उसी समय राजा उधर से जा रहे थे। राजा को स्त्री का रूप भा गया और उन्होंने स्त्री से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। इस पर स्त्री ने एक शर्त रखी- मैं आपसे इस शर्त पर विवाह करूंगी कि राज्य के सारे अधिकार आपको मुझे देने होंगे। साथ ही यह भी कहा कि जो भोजन मैं आपके लिए बनाऊंगी, वही आपको खाना होगा। राजा मान गए। जब एकादशी का दिन आया तो रानी ने बाजारों में रोजाना की भांति ही अन्न बेचने का हुक्म दिया तथा घर में मांसाहारी चीजें बना कर राजा को खाने को दीं। इस पर राजा ने कहा- मैं एकादशी को सिर्फ फलाहार ही करता हूं। रानी ने राजा को शर्त के बारे में स्मरण कराया- अगर आप मेरा बनाया भोजन नहीं खाएंगे तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी। इस पर बड़ी रानी ने राजा से कहा- पुत्र तो आपको फिर भी मिल जाएगा, लेकिन धर्म नहीं मिलेगा। राजकुमार को जब यह बात मालूम हुई तो पिता के धर्म की रक्षा के लिए वह अपना सिर कटाने को तैयार हो गया। उसी समय रानी का रूप त्याग कर श्रीहरि अपने वास्तविक रूप में आ गए और कहा- राजन! आप परीक्षा में सफल हो गए हैं, अतः कोई भी वर मांग सकते हैं। राजा ने कहा- मेरे पास आपका दिया हुआ सब कुछ है, आप बस मेरा उद्धार कर दें। राजा ने अपना सारा राज्य पुत्र को सौंपा और स्वयं श्रीहरि के विमान में बैठ कर देवलोक को चले गए।