संध्या द्विवेदी ।
सेना के रिटायर पूर्व सैनिक सूबेदार रामकिशन ग्रेवाल का गांव बामला इन दिनों शोक में डूबा है। गांव का विकास रामकिशन के जिंदा दिल और जुझारू होने की कहानी बयां कर रहा है। चिकनी सपाट सड़कें, जानवरों के लिए पोखर, लड़कियों के लिए गांव में ही बाहरवीं तक स्कूल, हैंडपंप सब कुछ रामकिशन की देन है। रामकिशन 2003 से 2008 तक इस गांव के सरपंच भी रहे। लेकिन गांव की आबोहवा में शोक के साथ कुछ गुस्सा और सवाल भी तैर रहे हैं। इस गांव में रामकिशन के अलावा गांव में करीब सौ रिटायर्ड फौजी हैं।
1968 में सेना से रिटायर हो चुके कर्ण सिंह पूछते हैं, ‘हम अरविंद केजरीवाल से गुजारिश करते हैं कि वह मौत पर राजनीति करना बंद करें। पहले किसान गजेंद्र सिंह की मौत पर राजनीति और अब रामकिशन की मौत पर। जरा बताएं गजेंद्र की मौत के बाद एक करोड़ रुपये का ऐलान करने वाले मुख्यमंत्री जी ने फिर कितने किसानों का भला किया? हमें तो यह भी नहीं पता कि एक करोड़ रुपया उसके परिवार को मिला भी या नहीं! यह एक सिपाही की मौत पर एक करोड़ देने की बात नहीं कह रहे हैं। यह एक करोड़ देकर वोट खरीदने की तैयारी कर रहे हैं। सेना का आंदोलन तो जंतर-मंतर पर करीब 580 दिनों से चल रहा है, इससे पहले कभी वहां दिल्ली के मुख्यमंत्री क्यों नहीं गए?’ कर्ण सिंह कहते हैं, ‘मैं और रामकिशन एक साथ पले-बढ़े और नौकरी की। रामकिशन बहुत जुझारू था। सेना का जवान वैसे भी बहुत जुझारू होता है। वह कभी निराश नहीं होने वाला था। रामकिशन आत्महत्या करने की खबर गले नहीं उतरती।’
उसी गांव में रिटायर फौजी वेद प्रकाश तो गुस्से में कहते हैं, ‘लोग निराश होकर आत्महत्या करते हैं, लेकिन हमने रामकिशन को कभी निराश नहीं देखा। एक महीने पहले हमारी उनसे मुलाकात हुई थी। तब मैंने उनकी पेंशन आॅनलाइन कराई थी, लेकिन तब तक तो कोई ऐसी निराशा हमने उनकी आंखों में नहीं देखी। हम सब फौजी थे, एक दूसरे के दुख-सुख बांटते थे। अपनी-अपनी तरह से हर कोई वन रैंक वन पेंशन के लिए लड़ा रहा है। रामकिशन भी लड़ रहे थे, बल्कि वह तो कई लोगों को लेकर लड़ रहे थे। वह भूख हड़ताल करते-करते जान तो गंवा सकते थे, मगर जहर खाकर आत्महत्या कर ली। यह बात हमें कुछ हजम नहीं हो रही।’ वह आगे कहते हैं कि राहुल गांधी रामकिशन की मौत पर इतना दुखी हैं, लेकिन कांग्रेस सरकार के समय वन रैंक वन पेंशन को लागू करने की बात कही गई थी। करीब दस साल तक उनकी पार्टी सत्ता में थी, तब तो उन्हें सैनिकों की याद नहीं आई? राहुल गांधी को सैनिकों के खिलाफ हो रही नाइंसाफी के लिए अपनी पार्टी के खिलाफ भी मोर्चा खोलना चाहिए। हर पार्टी के लिए जिंदा या मुर्दा इंसान बस राजनीति करने का जरिया भर है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
एक रिटायर फौजी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘सेना को विद्रोह करने का हक नहीं है, लेकिन 2006 में सेना के भीतर गुस्सा फूटा था। यह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुआ था। दरअसल, हमें छठे वेतन आयोग के हिसाब से वेतन बढ़कर नहीं मिल रहा था। चार महीने तक किसी फौजी ने वेतन नहीं उठाया। तब आर.बी.आई. की आॅडिट में पता चला कि बैंक से पैसा नहीं निकाला गया है। पता चला कि सेना के पूर्व जवान वेतन नहीं उठा रहे हैं। तब जाकर हमारा वेतन बढ़ा। उस वक्त तो कांग्रेस को हमारी सुध नहीं आई थी। यह मुद्दा तो कांग्रेस का ही उठाया हुआ है, तो कांग्रेस ने क्यों नहीं लागू कर दिया था वन रैंक वन पेंशन। जय जवान-जय किसान वाले देश में किसान तो मर ही रहा था, उसकी मौत पर सियासत तो हो रही थी, लेकिन अब जवान की मौत पर भी सियासत शुरू हो गई है। नेताओं को इससे परहेज करना चाहिए, क्योंकि सेना पर राजनीति करना देश के साथ गंदी राजनीति करना है।’
गांव के बुजुर्ग इस बात से भी परेशान हैं कि अगर रामकिशन को शहीद का दर्जा दिया गया तो फिर लोग अपने हक के लिए लड़ने की जगह आत्महत्या करना शुरू कर देंगे। रामकिशन का मरना दुखद है। गांव में उसकी अच्छी छवि थी। गांव का विकास भी उसने खूब किया, लेकिन आत्महत्या करना एक गलत कदम था। एक बुजुर्ग ने तो यहां तक कहा कि अरविंद केजरीवाल ने तो आत्महत्या प्रोत्साहन पुरस्कार का एक कोष ही अपने यहां बना लिया है।
रिटायर होने के बाद बने सरपंच
रिटायर होने के बाद रामकिशन ने पंचायत का चुनाव लड़ा। ग्रामीणों के समर्थन से रामकिशन रिकॉर्ड मतों से विजयी होकर सरपंच बने। रामकिशन ने खुद कभी सरपंच बनने की इच्छा जाहिर नहीं की थी। ग्रामीणों की जिद की वजह से वह चुनाव लड़ने को तैयार हो गए। अपनी तेजतर्रार और मेहनती छवि के कारण रामकिशन अपने गांव में काफी लोकप्रिय थे। लिहाजा सरपंच चुने जाने के बाद सत्तर वर्षीय रामकिशन ने अपने गांव में विकास की एक नई गाथा लिख दी।
रामकिशन ने गांव के स्कूल का अपग्रेडेशन कराकर उसमें बाहरवीं तक पढ़ाई की व्यवस्था की। गांव में पानी की कमी दूर करने के लिए नई पाइप लाइन बिछाईं। साल 2008 में बामला गांव को निर्मल ग्राम से सम्मानित किया गया। उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने पुरस्कृत किया था।
ग्रेवाल को उनके सामाजिक कार्यों के लिए भी सम्मानित किया गया था। उन्हें शंकर दयाल शर्मा सम्मान भी मिला था। गांव के लोग कहते हैं कि रामकिशन धुन के पक्के व्यक्ति थे। अगर गांव में कोई परेशान है, इसकी खबर मिलने पर रामकिशन उसकी मदद करने के लिए तैयार हो जाते थे। यही वजह है कि गांव के लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि रामकिशन जैसा धुनी और जुझारू आदमी हताश होकर कैसे मौत को गले लगा सकता है? गांव के बंशी कहते हैं, ‘गांव का बच्चा-बच्चा उनके साथ था। अगर वह कहते तो पूरा गांव रक्षा मंत्री के घर के बाहर धरने पर बैठ जाता।’
सवालों के घेरे में रामकिशन की आत्महत्या?
रामकिशन की मौत सियासी गलियारों में इन दिनों सबसे बड़ा बहस का मुद्दा है। विपक्षी दल यह साबित करने में लगे हैं कि यह मौत सत्तारूढ़ दल की अनदेखी और वादाखिलाफी का नतीजा है। तो दूसरी तरफ इस मौत को विपक्षी दलों की साजिश के रूप में भी दिखाने की भरसक कोशिश हो रही है। लेकिन जब रामकिशन के गांव में अलग-अलग लोगों से कुछ सवाल पूछे गए तो उनके जवाब में कई सवाल थे। पहला सवाल जो किसी के भी जेहन में आ सकता है-
मसलन, रामकिशन ने सल्फास की गोलियां खाने के बाद अपने बेटे से बात की थी। यह बात बेटे के फोन पर टेप हो गई। उस आॅडियो में रामकिशन की आवाज के साथ ही कुछ और आवाजें भी आ रही थीं। जाहिर उस वक्त रामकिशन अकेले नहीं थे। रामकिशन ने खुद भी राजकुमार और एक शख्स का नाम लिया था।
वह शख्स कौन था इस बारे में किसी को अब तक कोई जानकारी नहीं है? न परिवार को पता है और न ही गांव के किसी व्यक्ति को। जंतर-मंतर पर धरना दे रहे भूतपूर्व सैनिकों को भी नहीं पता कि रामकिशन के साथ वह शख्स कौन था? हैरानी की बात यह है कि अभी तक वे लोग सामने नहीं आए हैं।
दूसरी बात जंतर-मंतर में करीब डेढ़ साल से धरना चल रहा है। रामकिशन भी उसी हक के लिए लड़ रहे थे, जिसके लिए बाकी लोग। फिर आत्महत्या के लिए इंडिया गेट ही क्यों चुना गया। जंतर-मंतर में भूख हड़ताल पर भी कुछ लोग बैठे हैं। रामकिशन ने भूख हड़ताल का रास्ता न चुनकर आत्महत्या क्यों कर ली?
रामकिशन जब भी वन रैंक वन पेंशन के लिए किसी रैली या धरने में जाते थे, तो गांव के रिटायर फौजियों को इकट्ठा करते थे। फिर रामकिशन जब रक्षा मंत्री से मिलने पहुंचे तो उनके साथ उनके गांव का कोई रिटायर फौजी क्यों नहीं था? इंडिया गेट पर भी उनके साथ उनके गांव का कोई साथी क्यों नहीं था?
रामकिशन इंडिया गेट पर जिन लोगों के साथ थे, उन्होंने रामकिशन को जहर खाने से क्यों नहीं रोका? अगर उसने यह कदम उठा भी लिया, तो उसे फौरन अस्पताल क्यों नहीं ले जाया गया?
घरवालों को रामकिशन खुद फोन करते हैं, उनकी जुबान लड़खड़ा रही है। लेकिन करीब से आ रही आवाजों में से कोई भी आवाज ऐसी नहीं आ रही, जिसमें रामकिशन को बचाने की बात हो रही हो।
संयुक्त और संपन्न परिवार के मुखिया थे रामकिशन
रामकिशन के पांच बेटे हैं। बड़ा बेटा दिलावर दिल्ली पुलिस में हेड कांस्टेबल है। कुलवंत गांव में खेती-बाड़ी करते हैं। जसवंत आयुर्वेदिक दवाइयों के कारोबारी हैं और उनकी पत्नी इंटर कॉलेज में शिक्षिका हैं। बलवंत ने एम.एस.सी. पास की है, जबकि बलविंदर ने एम.ए. किया है। एक बेटे का सरकारी नौकरी के लिए भी नंबर आ गया है, लेकिन किन्हीं वजहों से विभाग ने नियुक्ति पत्र नहीं दिया है। रामकिशन के तीन बेटों की शादियां हो गई हैं। उनका परिवार काफी बड़ा है, जिसमें छह पोते समय कई सदस्य हैं।
रामकिशन की पत्नी किताबो देवी इस समय शोक में डूबी हुई हैं। वह कहती हैं, ह्यहमें किसी बात की कमी नहीं थी। सब कुछ हमारे हमारे पास है। आज के जमाने में भी हमारा परिवार अब तक अलग नहीं हुआ।ह्ण वह फिर कहती हैं, परिवार में उनकी (रामकिशन) की जान बसती थी। पोतों को अगर वह एक दिन नहीं देखते थे, तो परेशान हो जाते थे। फिर ऐसे मरने का फैसला वह कैसे ले सकते हैं! किताबों देवी के मुताबिक, घर से निकलते वक्त वह खूब हंस-बोल कर गए थे। इत्मिनान से उन्होंने नाश्ता-पानी भी किया और जाते वक्त पोतों को लाड़ भी किया। वह इतने दुखी हैं यह तो कभी हमें नहीं लगा, वरना हम उन्हें घर से जाने नहीं देते। उनके बड़े बेटे दिलावर बताते हैं, ह्यहमें तो आज तक नहीं मालूम कि उन्हें कितनी पेंशन मिलती थी? हमारे परिवार में किसी चीज की कमी नहीं है। पापा (रामकिशन) ने हम लोगों को कभी नहीं बताया कि वह किसी बात को लेकर परेशान हैं। हां, इतना जरूर था कि वह अन्याय कभी बर्दाश्त नहीं करते थे। रामकिशन की बड़ी बहू बताती हैं कि रिटायर होने के बाद वह सुबह-सुबह खा-पीकर वैसे ही निकल जाते थे, जैसे नौकरी वाले लोग जाते हैं। अपने बेटों के साथ उनका दोस्ताना संबंध था और बहू को वह बेटियों की तरह मानते थे। लेकिन उनके सीने में इतना दर्द छिपा था, इसकी खबर हम लोगों को नहीं लग सकी।
रामकिशन के बेटे दिलावर से जब आम आदमी पार्टी द्वारा एक करोड़ रुपये देने की घोषणा के बाबत सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस बारे में टीवी और अखबारों में खबरें आ रही हैं, लेकिन दिल्ली सरकार की ओर से कोई सूचना हमें नहीं मिली है। लाख और करोड़ रुपये से हमारे पापा वापस नहीं आएंगे। हमारी इच्छा है कि सरकार मुकम्मल तौर पर वन रैंक वन पेंशन स्कीम को लागू करे, यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
वादाखिलाफी से गुस्से में हैं पूर्व सैनिक
पहली बार जंतर-मंतर पर भूख हड़ताल में शामिल होने वाले सेना के रिटायर हवलदार अशोक चव्हाण केंद्र सरकार की वादाखिलाफी और सेना के अधिकारियों और जवानों के बीच वेतन-भत्ते और बाकी सुविधाओं में गैर बराबरी से नाराज हैं। उनके मुताबिक, मौजूदा केंद्र सरकार ने वादा किया था कि वन रैंक वन पेंशन सही तरीके से लागू होगी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ऐलान किया कि सभी पूर्व सैनिकों को वन रैंक वन पेंशन का लाभ मिल गया है। अगर वाकई ऐसा है, तो हम लोग जंतर-मंतर पर क्यों बैठे हैं? अशोक की मानें तो, सेना में दो किस्म के लोग हैं। एक अधिकारी और दूसरा सिपाही, सूबेदार वगैरह। अफसर आदेश देते हैं और हम उनके हुक्म का पालन करते हैं। सेना के अधिकारी एक क्रीमी लेयर की तरह हैं, जिन्हें तमाम सुख-सुविधाएं मिलती हैं। सरहदों पर पहले सिपाही जाता है न कि कोई अधिकारी। इसलिए वन रैंक वन पेंशन का सबसे ज्यादा लाभ सिपाहियों को मिलना चाहिए।
रिटायर फौजी रामकुमार सरदार बल्लभभाई पटेल के वक्तव्य का जिक्र करते हुए बताते हैं कि पटेल साहब ने कहा था, ह्यस्वतंत्र भारत में कोई भी भूख से नहीं मरेगा, अनाज निर्यात नहीं होगा, कपड़ों का आयात नहीं होगा और कोई नेता न तो विदेशी भाषा का प्रयोग करेगा। इससे सैन्य खर्चों में कमी आएगी। हम पूर्व सैनिकों ने कांग्रेस के शासन को देखा है और अब भाजपा की सरकार भी हमारे सामने है।रामकुमार के मुताबिक, भारतीय जनता पार्टी सरदार बल्लभ भाई पटेल की मूर्तियां तो लगाती है, लेकिन उनके आदर्शों पर अमल नहीं करती। भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार को चाहिए कि वह सेना के मुद्दे पर सरदार पटेल के विचारों का समर्थन करे।