मोहन सिंह ।
यह आमतौर पर होता है कि जब किसी दल में मुद्दों या सैद्धांतिक आधार पर आपसी मतभेद होते हैं तो दल टूटते हैं। विवादित व्यक्तिकी छवि खराब होती है। यह भी माना जाता है कि पारिवारिक कलह से घड़े का पानी तक सूख जाता है। मगर इस बार मुलायम सिंह यादव के घर में मचे घमासान के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि एक चमकदार और भविष्य के दमदार नेता के रूप में उभरी है। हर तरफ अखिलेश सरकार के साढ़े चार साल के कामकाज की नहीं बल्कि उनकी छवि की भी चर्चा है। साथ ही यह भी चर्चा है कि एक बेहतर रणनीतिकार के तौर पर मुलायम सिंह ने अपने पितृ धर्म का निर्वाह भी कर दिया और बेटे अखिलेश के बेहतर राजनीतिक भविष्य का प्रबंधन भी।
अब अखिलेश की छवि उत्तर प्रदेश के एक बेदाग और बेहतर नेता के रूप में उभरी है। सरकारी कामकाज का सारा दोष प्रभावशाली मंत्रियों के मत्थे चला गया है। मतलब यह कि वैचारिक मुद्दों से अलग पारिवारिक विवाद ने अखिलेश के लिए कवच का काम किया है। इस विवाद में शकुनी की भूमिका में कौन रहा, कैकेयी का किरदार किसने निभाया, परिवार में इस वक्त कौन घुसपैठिया है, इसकी चर्चा फिलहाल कम हो रही है। इस विवाद पर सपा से जुड़े काशी हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व महामंत्री की यह टिप्पणी कि ‘कुल मिलाकर यह विवाद मजूमदार-टंडन का विवाद था। इससे अधिक कुछ नहीं।’ बता दें कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सामने रामजी टंडन की चाय की दुकान है। यह महज चाय की दुकान नहीं बल्कि देश की दूसरी संसद है। हर वक्तराजनीतिक चर्चा से गुलजार संसद। एक जमाने में यहां स्व. राजनारायण लिमये से लेकर स्व. देवव्रत मजूमदार, स्व. रामबचन पांडेय और चंचल कुमार तक यहां चर्चा करते थे। यह उत्तर प्रदेश व बिहार की राजनीतिक चर्चा का केंद्र है। यहां हर तरह की राजनीतिक चर्चा करने की छूट। पर जरूरी नहीं कि सदन में हर मुद्दे पर आम सहमति हो।
एक जमाने में यहां एक रजिस्टर पड़ा रहता था। रामजी टंडन के नेतृत्व में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता देवव्रत मजूमदार के विरुद्ध अभियान चलाने के लिए हर कोई उस रजिस्टर पर मजूमदार के विरुद्ध अपनी टिप्पणी दर्ज करता था। इस उम्मीद में कि यह मजूमदार के विरुद्ध अभियान की शक्ल ग्रहण करेगा। पर होता इसके उलट था। वे सारी टिप्पणियां टंडन जी मजूमदार के हवाले कर देते थे। फिर मजूमदार एक-एक की खबर अपने अंदाज में लेते थे। तब मजूमदार छात्र राजनीति में चरम पर थे और समाजवादी राजनीति भी।
मुलायम सिंह के पारिवारिक विवाद में मजूमदार की भूमिका का अंदाजा टंडन के अड़ी के बैठकबाजों को लग गया है। अब रामजी टंडन की भूमिका की तलाश हो रही है। इस विवाद के अगले एपिसोड में शायद यह पूरी हो। यह बताना जरूरी है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से निकले बर्खास्त मंत्री ओमप्रकाश सिंह पर सदन फिलहाल मौन साधे है। इस टिप्पणी के साथ कि अखिलेश मंत्रिमंडल से निकाले जाने के कारण राजनीतिक हैसियत कम हो ही जाती है। मुलायम परिवार में झगड़े की शुरुआत एक राजनीतिक घटना कौमी एकता दल के सपा में विलय से हुई थी। इसकी चर्चा सिरे से गायब है और विवाद की वजह अमर सिंह को बताया जा रहा है। स्थानीय सपा नेता बताते हैं कि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक हकीकत ठीक से समझ रहे हैं। वे जानते हैं कि अफजाल-मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद जैसे मुस्लिम चेहरे को आगे कर उनके प्रभाव वाले इलाके में सपा की स्थिति मजबूत होगी। मगर नए तबके के नौजवान अखिलेश की राजनीति की लाइन को पसंद कर रहे हैं। कैथी निवासी लखनऊ विश्व विद्यालय के छात्र वैभव पांडेय बताते हैं कि इस पारिवारिक विवाद से अखिलेश यादव को जबर्दस्त फायदा हुआ है। साफ है कि आम नौजवान अखिलेश की राजनीतिक लाइन यानी मुख्तार की पार्टी के सपा में विलय को पसंद नहीं कर रहे। भले ही मुलायम और शिवपाल इसके पीछे चाहे जो मजबूरी बताएं या तर्क दें।
इसी बीच प्रदेश में महागठबंधन को लेकर भी चर्चा तेज हो गई है। यह गुणा-भाग लगाया जा रहा है कि सपा-रालोद-कांग्रेस और दूसरे छोटे दलों के बीच गठबंधन से उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की क्या तस्वीर उभर सकती है। जनता दल (यू) और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका क्या होगी? क्या अजित सिंह के पास अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत बचा कर रखने की काबिलियत है? कांग्रेस नेतृत्व फिलहाल इतनी दुविधा में क्यों नजर आता है? क्या ‘27 साल यूपी बेहाल’ के कांग्रेस के नारे का वजूद अभी कायम हैं? कांग्रेस इस बदहाल स्थिति के लिए खुद जिम्मेदार है। उसे सपा-बसपा में किसी एक की बैसाखी चाहिए। अकेला चलने की ताकत उसमें नहीं बची है। कांग्रेस के साथ और नीतीश-लालू के समर्थन से सपा मुस्लिम वोटों में बिखराव के भय से कुछ हद तक निश्चिंत हो सकती है। कांग्रेस के कुछ परंपरागत वोट भी उसके पाले में ठहर सकते हैं। ऐसी स्थिति में बसपा के दलित-मुस्लिम वोटों के एकमुश्त ध्रुवीकरण की योजना को नुकसान हो सकता है। तब भाजपा और सपा गठबंधन की आमने-सामने की लड़ाई होगी। बसपा भी एक मजबूत सामाजिक आधार के साथ मैदान में होगी। महागठबंधन के नेताओं के पास मजमा जुटाने के पर्याप्त अवसर और मुद्दे उपलब्ध होंगे।
जानकार बताते हैं कि सपा का यह गठबंधन बिहार के महागठबंधन का हूबहू नकल तो नहीं होगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस गठबंधन में बसपा शामिल नहीं होगी वह महागठबंधन नहीं हो सकता। मायावती फिलवक्तऐसे किसी गठबंधन की संभावना से इनकार कर रहीं हैं। नीतीश के जदयू का यूपी में कोई खास राजनीतिक रसूख नहीं है। बिहार से आए सुरेंद्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में नीतीश कुमार की कोई बड़ी भूमिका नहीं होगी। अजित सिंह पर लोगों का इतना भरोसा नहीं है जितना उनके पिता चौधरी चरण सिंह पर था। सच यह भी है कि शायद अजित सिंह को भी यह याद न हो कि अब तक उन्होंने कितनी बार दल-बदल किया है। जिनके साथ वे चुनाव लड़ते हैं चुनाव बाद उनके साथ रहेंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है।
निचले स्तर पर एक चीज और दिख रही है कि सत्ता की प्रतीक जातियों मसलन यादव, दलित और मुस्लिमों के खिलाफ भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया चल रही है। भाजपा उत्तर प्रदेश में इसी ध्रुवीकरण को ध्यान में रख कर अपनी परिवर्तन यात्रा को धार देने में जुटी है। भाजपा की असली दिक्कत यह भी है कि उसके पास मुख्यमंत्री लायक कोई मुक्कमिल चेहरा नहीं है। पार्टी के जिन चेहरों की चर्चा हो रही है अगर उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर पेश कर दिया जाए तो चुनावी अनुमान लगाने में कोई मशक्कत नहीं करनी होगी। ऐसे में यूपी चुनाव के नतीजे लगभग वही होंगे जो बिहार में हो चुका है। फिर नीतीश-लालू को यह अभियान चलाने में आसानी होगी कि भाजपा आरक्षण विरोधी और मुस्लिम विरोधी है। भाजपा चुनाव बाद महाराष्ट्र और हरियाणा की तरह किसी गुमनाम चेहरे को नेतृत्व सौंप सकती है मगर इन दोनों राज्यों की तुलना में यूपी बड़ा सामाजिक विविधता वाला प्रदेश है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही फिलहाल प्रदेश में भाजपा की अगुवाई कर रहे हैं। जानकारों के मुताबिक यूपी विधानसभा चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव का बहुत कुछ तय करने जा रहा है। प्रधानमंत्री से लोगों की उम्मीदें कम नहीं हुई है। पर उनकी घोषणाओं का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। अल्पसंख्यक तबके में मोदी शासन में खौफ बढ़ा है। किन कारणों से इसकी अलग-अलग व्याख्या और अलग-अलग वजहें हैं।
बनारस में बुनकरों के कल्याण के लिए ट्रेड फेसिलेटर सेंटर लिए खुल रहा है। मगर इसका श्रेय और राजनीतिक लाभा भाजपा को मिलेगा ऐसा दावा कोई साहसी चुनावी पंडित ही कर सकता है। पर सपा से मुसलमानों का मोह भंग हो रहा है। यह समाज मुलायम परिवार से बदला लेना चाहता है। सपा से मुसलमान नाराज हो चुके हैं। वे अब विद्रोह करने की स्थिति में हैं। हालांकि मौजूदा स्थिति में उनके सामने कोई बेहतर विकल्प नहीं है मगर बसपा भरोसे का विकल्प पेश कर सकती है। फिर भी कुछ अपवाद को छोड़कर वोटिंग पैटर्न में बदलाव एक झटके में नहीं होता। मुस्लिम एक मुश्त सपा का साथ छोड़ बसपा के खेमे में चले जाएंगे इसकी वजहें और मुद्दे अभी तो नजर नहीं आ रहे हैं। कुल मिलाकर मुलायम परिवार में छिड़े विवाद से सपा की भविष्य की राजनीति का खेवनहार अखिलेश के रूप में मिल चुका है। एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री की नजर में कांग्रेस लाचार और मजाक का पात्र बनती जा रही है। यूपी की राजनीति इस मुकाम पर पहुंच चुकी है कि मजमा और मंच सपा गठबंधन के पाले में दिखेगा। भीड़ और विकास के मुद्दे भाजपा के पास भी होंगे मगर सामाजिक परिवर्तन की बयार ही सत्ता परिवर्तन का आधार बनेगी।