वीरेंद्र नाथ भट्ट।
जुलाई 1991 में आर्थिक सुधार की नींव रखने वाले वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में स्टॉक मार्केट घोटाला हुआ था जिसे हर्षद मेहता घोटाला भी कहा जाता है। घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति भी गठित की गई थी जिसमें जांच कम मामले की लीपापोती ज्यादा की गई। विपक्ष के चौतरफा हमलों से घिरे मनमोहन सिंह ने तब लोकसभा में कहा था कि मेरी हालत तो बिल्लियों के बीच कबूतर जैसी है। तब यह बात आई गई हो गई थी। लेकिन आठ नवंबर को पांच सौ और एक हजार के नोटों की बंदी की घोषणा से प्रधानमंत्री ने इस कहावत को शाब्दिक अर्थों में चरितार्थ कर दिया। विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़े उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों के बाड़े में बिल्ली नहीं इससे भी बहुत कुछ बड़ा कूद गया है।
2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक जमीन भाजपा को गंवा चुके समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए तो नोट बंदी बड़ी चुनौती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का तो खाता भी नहीं खुला था और सपा में एक ही परिवार के पांच सदस्य जीते थे और भाजपा ने उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों में तिहत्तर सीटों पर विजय हासिल की थी और कांग्रेस को केवल दो सीट पर जीत मिली थी। यों तो सपा और बसपा का दावा 2017 में प्रदेश में सरकार बनाने का है लेकिन असली निगाह तो 2019 का लोकसभा चुनाव है। सपा, बसपा और जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोकदल भी यह कह चुके हैं कि यदि 2017 में भाजपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से नहीं रोका गया तो 2019 में उसे केंद्र में सत्ता में आने से रोकना कठिन होगा।
जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोकदल तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ मिलकर बिहार के तर्ज पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए सेकुलर महागठबंधन बनाना चाहते थे। पांच नवंबर को समाजवादी पार्टी के सिल्वर जुबली समारोह में शरद यादव, लालू यादव, अजीत सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री देवगोड़ा शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम के बाद मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर से गठबंधन के बारे अलग अलग लम्बी बात की। लेकिन अचानक मुलायम सिंह ने गठबंधन से इनकार कर दिया और कहा कि सपा केवल विलय करेगी। अब जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोकदल ने गठबंधन किया है और नए साथियों की तलाश है।
काले धन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्जिकल स्ट्राइक के सदमे से उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरोधी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उबर भी नहीं पाए थे कि बेनामी सम्पत्ति पर अगले निशाने का एलान कर मोदी ने उनकी नींद उड़ा दी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में पच्चीस साल से काबिज इन दलों के नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि इस समय उनकी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए- सिर पर आ चुके विधानसभा चुनाव की तैयारी, काले धन को कैसे ठिकाने लगाएं या बेनामी सम्पत्ति को कैसे बचाएं। नरेंद्र मोदी ने यह कहकर इस दलों की मुश्किल और बढ़ा दी है कि इन दलों को काले धन को ठिकाने लगाने का मौका नहीं मिला इसलिए विरोध कर रहे हैं यदि इनको 72 घंटे मिल गए होते तो यही दल मेरा समर्थन कर रहे होते। अब विपक्ष नोट बंदी का निर्णय वापस लेने की मूल मांग को भूलकर प्रधानमंत्री से अपने बयान पर माफी मांगने की मांग कर रहा है।
राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी ने नोट बंदी करके उत्तर प्रदेश के राजनीति नाम के बाड़े में कबूतरों के बीच बिल्ली कूदा दी है। प्रदेश के प्रमुख दल सपा और बसपा किसान गरीब के कन्धों पर सवार हो कर नोट बंदी के निर्णय में मीन मेख निकाल उसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं। जातीय राजनीति पर आधारित दोनों दलों के समीकरण को इस निर्णय ने बिगाड़ दिया है। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को तो समझ ही नहीं आ रहा है वो इस भूचाल से कैसे निपटें। हालत यह है कि दोनों दलों का राजनीतिक संघर्ष अब नोट बंदी के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। मायावती एक तरफ तो नोट बंदी का डट कर विरोध कर रही हैं और दूसरी और इसी मुद्दे को अखिलेश यादव के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं कि उत्तर प्रदेश में लॉ एंड आर्डर बहुत खराब है और पुलिस बैंकों की लाइन में खड़े लोगों पर लाठी चला रही है।
जाहिर है नोट बंदी से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था या नकद लेन देन पर आधरित व्यापार से जुड़े लोगों को बहुत परेशानी हो रही है। बैंकों के सामने पैसा निकालने और पुराने नोट बदलवाने के लिए लम्बी लम्बी कतारें लग रही हैं, पुलिस को भीड़ संभालना मुश्किल हो रहा है। कई जिलों में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज भी करना पड़ा। फतेहपुर जिले के पुलिस अधीक्षक को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को निलंबित करना पड़ा। मायावती को तो सपा के खिलाफ मुद्दा मिल गया और उन्होंने अखिलेश को बबुवा कह डाला जो उत्तर प्रदेश की कानून व्यस्था को संभलाने के बजाय दिल्ली में मारा मारा फिर रहा है और नरेंद्र मोदी को खुश करने के लिए गरीब किसानों पर लाठी चलवा रहा है। पलटवार करते हुए अखिलेश ने मायावती को बीबीसी याने बुआ ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन की संज्ञा दे डाली।
राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि कुछ राजनीतिक दलों द्वारा नोटबंदी के तीखे विरोध के कारण यह मामला जनमत संग्रह में बदलता जा रहा है जिसका लाभ अंतत: नरेंद्र मोदी को ही मिलेगा। कानपुर विश्वविद्यालय के डॉ अनिल कुमार वर्मा कहते हैं, ‘यह मामला इंटेंट (नीयत) और कंटेंट (सामग्री) का है। आबादी का विशाल बहुमत नोट बंदी के निर्णय के कंटेंट से परेशान होने के बावजूद सरकार के इंटेंट पर विश्वास करता है। इनफॉर्मल अर्थव्यस्था को जबरदस्त झटके के अलावा जिन परिवारों में विवाह है या कोई अस्वस्थ है और किसी की मृत्यु हो गई या जो लोग यात्रा कर रहे थे या जाने वाले थे सबको ही परेशानी का सामना करना पड़ा है लेकिन कष्ट सहने के बाद भी लोग नोट बंदी के फैसले से सहमत दीखते हैं।’
समाजवादी पार्टी
‘कम्युनल मोदी का सेकुलर वार’
मोहन अग्रवाल लखनऊ में चुनाव सामग्री के सबसे बड़े व्यापारी हैं उनकी दूकान भी समाजवादी पार्टी के प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने है। उनकी दूकान समाजवादी पार्टी के झंडों, टोपी, बैनर और पार्टी नेताओं के फोटो अदि से भरी हुई है। ‘चुनाव नजदीक है उस पर नोट बंदी’ मोहन अग्रवाल के चेहरे पर चिंता की लकीर साफ देखी जा सकती है, ‘मुझे लगता है कि मेरी बिक्री पचहत्तर प्रतिशत तक कम हो सकती है क्योंकि जब नेताओं के पास गाड़ी और डीजल के लिए पैसा नहीं है तो वो प्रचार सामग्री क्या खरीदेंगे।’ मोहन अग्रवाल की मांग है कि चुनाव आयोग को चुनाव खर्च की सीमा बढ़ानी चाहिए ताकि उम्मीदवार वैध तरीके से चुनाव में अधिक खर्च कर सकें। फैजाबाद-अयोध्या विधानसभा सीट से विधायक और राज्यमंत्री तेज नारायण पांडे स्पष्ट तो नहीं कहते कि नोट बंदी से उनकी पार्टी पर कुछ असर पड़ेगा लेकिन मानते है कि ‘अगला चुनाव बहुत हल्का रहने वाला है।’
नरेंद्र मोदी के नोट बंदी के निर्णय से समाजवादी पार्टी एक नहीं अनेक कारणों से चिंता में है। अखिलेश यादव का दावा है कि किसी दल से गठबंधन की जरूरत नहीं है। समाजवादी पार्टी सरकार द्वारा कराये गए विकास के कामों के बलबूते पर जनता के बीच जायगी और उसे भरपूर समर्थन मिलेगा। लेकिन नोट बंदी से 2014 की मोदी लहर के पुनर्जीवित होने का खतरा खड़ा हो गया है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद लहर मंद तो पड़ गई थी लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। आज आम आदमी की जुबान पर एक ही चर्चा है- मोदी। समाजवादी पार्टी पचास वर्ष पूर्व के चौधरी चरण सिंह के लोक दल का ही नया अवतार है जिसकी राजनीति के केंद्र बिंदु में हमेशा गरीब, किसान और मुसलमान रहे हैं। नोट बंदी के निर्णय से यही गरीब किसान सबसे ज्यादा कष्ट झेल रहा है लेकिन उसकी नजर में नोट बंदी गरीब के हित में लिया गया निर्णय है और मोदी की गरीब किसान के नए मसीहा की छवि ग्रामीण अंचल में उभर रही है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के जिला सहकारी बैंक के बाहर कृपा शंकर वर्मा निराश खड़े हैं। पूछने पर कहते हैं, ‘मेरा आज का पूरा दिन खराब हो गया। मुझे पैसों की जरूरत है। खेतों में बुवाई करनी है। उसके लिए बीज, खाद, कीटनाशक खरीदना है। इसीलिए मैं अपने पास मौजूद पांच सौ और एक हजार के नोट बदलवाने यहां आया था। लेकिन बैंक में पैसे ही खत्म हो गए। अब कल फिर आना पड़ेगा।’ वर्मा अकबरपुर धनेती गांव में रहते हैं। बस से उनके गांव की दूरी करीब एक घंटे में तय होती है इसीलिए उनकी परेशानी और निराशा वाजिब लगती है। इसके बावजूद उनसे जब पूछा गया कि क्या सरकार को नोटबंदी का फैसला वापस ले लेना चाहिए तो उनका जवाब चौंकाने वाला था। उन्होंने तुरंत कहा, ‘अरे नहीं। काली कमाई खत्म करने के लिए सरकार का यह फैसला बहुत जरूरी है। खेतों की बुवाई तो आज के बजाय कल हो जाएगी।’
बाराबंकी में विजय कुमार की खाद की दूकान है। वे नोटबंदी को अमीर-गरीब के बीच का संघर्ष भले न मानें लेकिन एक बात जरूर मानते हैं, ‘हमें देश के लिए कुछ निजी हितों का बलिदान तो करना ही होगा। मेरी बिक्री कम हुई है लेकिन मैं जानता हूं कि मोदी जी का फैसला देश और उसके भविष्य के लिए फायदेमंद होगा।’ हालांकि फैजाबाद के राम फेर इस मामले में अलग तरह के फायदों की उम्मीद लगाए बैठे हैं। मिठाई की दूकान चलाने वाले राम फेर अपनी खाली दूकान की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘आज मेरी दुकान खाली है तो क्या हुआ? हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। सरकार के फैसले से जमीन-जायदाद की कीमतें बहुत तेजी से नीचे आएंगी। जैसे ही ये कीमतें कम होंगी, हमारे जैसे मध्यमवर्गीय लोग भी जमीन-जायदाद खरीद सकेंगे।’
समाजवादी पार्टी ने नोट बंदी के निर्णय का खुल कर विरोध करने के स्थान पर सारा जोर आम जनता को हो रही तकलीफों पर लगा रखा है। राजनीतिक क्षेत्रों में इस बात की भी चर्चा है कि 24 नवंबर को दिल्ली में प्रधान मंर्त्री से मिलने की बाद इस मुद्दे पर अखिलेश के सुर कुछ नर्म हो गए हैं और उन्होंने जनता के कष्ट को कम करने के लिए केंद्र सरकार का सहयोग मांगा है।
समाजवादी पार्टी के एक नेता के कहा, ‘नोट बंदी के मुद्दे से हमारा बहुत नुकसान नहीं होगा। नोट बंदी के विवाद से सत्ता विरोधी रुझान कम होगा। इस बात की तसदीक करते हुए मुस्लिम पोलिटिकल कांफ्रेंस के अध्यक्ष तस्लीम रहमानी ने कहा, ‘यह राजनीतिक मामला है। नोट बंदी के आर्थिक पहलुओं की बारीक जानकारी आम आदमी को नहीं है और अखिलेश यादव को लाभ मिल सकता है। सत्ता विरोधी रुझान भी कम हो सकता है। लेकिन समाजवादी पार्टी के एक नेता ने कहा, ‘कम्युनल मोदी ने एक सेकुलर वार से पूरे देश को चित्त कर दिया।’ सपा को यह भी चिंता है कि सेकुलर और तटस्थ मुद्दे पर भाजपा का डर दिखा कर मुसलमानों को गोलबंद करना कठिन होगा।
समाजवादी पार्टी का दावा अपनी जगह और जमीनी सच्चाई अपनी जगह। 2012 के विधान सभा चुनाव में एक कीर्तिमान बनाया था। देश में अब तक हुए सभी राज्यों के विधान सभा चुनाव में सब से कम यानी केवल 29.1 प्रतिशत वोट प्राप्त कर 224 सीटें जीत कर बहुमत हासिल किया था। समाजवादी पार्टी मुस्लिम मतों की अकेली दावेदार नहीं है। बसपा और कांग्रेस के अलावा जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोक दल का नया सेकुलर गठबंधन भी ताल ठोंक रहा है। काले धन का लोहा गर्म है और चुनाव के दौरान भाजपा समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं के भ्रष्टचार और उनकी आकूत सम्पत्ति, बुंदेलखंड का खनन माफिया आदि अनेक अस्त्रों के साथ हमलावर होगी जिससे अपना बचाव करना सपा के लिए आसान नहीं होगा।
बहुजन समाज पार्टी
सारी मेहनत पर पानी फिरा
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में ८५ में ८३ सीट जीत कर रिकॉर्ड बनाया था। तब चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने मिल कर दलित मजदूर किसान पार्टी या दमकिपा के बैनर तले चुनाव लड़ा था। बागपत से चरण सिंह और एटा से जनसंघ के पूर्व नेता महादीपक सिंह। तब दमकिपा के बारे में एक पत्रकार के सवाल के जवाब में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था कि दमकिपा का तो चुनाव में दम ही निकल गया। आज बत्तीस साल बाद यह हाल बहुजन समाज पार्टी के नेताओं का है। पार्टी के दलित मुस्लिम वोट बैंक पर विशेष फर्क नहीं पड़ा है लेकिन नोट बंदी से बसपा के नेताओं का दम निकल गया है। नोट बंदी का विरोध तो सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी भी कर रही है लेकिन सबसे मुखर और बेचैनीभरा विरोध तो मायावती कर रही हैं। आठ नवंबर को नोट बंदी की घोषणा के बाद से प्रतिदिन पार्टी कार्यालय से एक बयान जारी होता जिसमें प्रधानमंत्री पर हमला और लोगों को होने वाले कष्टों का ब्योरा होता है।
समाजवादी पार्टी परिवार में कलह, भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री के लिए चेहरा प्रोजेक्ट न कर पाने के चलते बसपा 2017 के चुनाव में सत्ता की बहुत मजबूत दावेदार नजर आ रही थी। इस वर्ष अगस्त से अक्टूबर के बीच मायावती ने प्रदेश में आजमगढ़, आगरा, सहारनपुर, इलाहाबाद और लखनऊ में बड़ी जनसभाएं आयोजित कर अपनी ताकत का अहसास भी करा दिया था। हर सभा में मायावती ने अपने वोटरों को 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के हर व्यक्ति के खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा करने के वादे की याद दिलाई थी। मायावती ने बहुत हद तक अति पिछड़े वर्ग के ताकतवर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और दलित पासी जाति के आर. के. चौधरी के पार्टी छोड़ने से होने वाले नुकसान की भरपाई कर ली थी। लेकिन नोट बंदी की घोषणा से बसपा की सारी मेहनत पर पानी फिर गया लगता है। मायावती आज उन किसानों के कष्ट की दुहाई दे रही हैं जो कभी भी बसपा का वोटर नहीं रहा।
बहुजन समाज पार्टी पर धन उगाही का आरोप उतना ही पुराना है जितनी पुरानी यह पार्टी है। पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी ने इस वर्ष पार्टी से त्यागपत्र देने के बाद मायावती पर पैसा वसूली और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे।
आर. के. चौधरी ने कहा, ‘बहुजन समाज पार्टी अब सामाजिक परिवर्तन का मिशन नहीं है। अब यह मायावती की निजी मिलकियत वाली एक रियल एस्टेट कंपनी बन चुकी है।’
नोट बंदी की घोषणा के अगले दिन लखनऊ के माल ऐवेन्यू स्थित पार्टी के प्रदेश आॅफिस में दिन भर गाड़ियों के आने जाने का तांता लगा रहा। पार्टी सूत्रों के अनुसार सभी उम्मीदवारों को उनका धन वापस कर दिया गया है और कहा गया कि नए नोट में बदलकर या कार्यकर्ता के बैंक खाते में ढाई लाख जमा कर पार्टी के नाम बैंक ड्राफ्ट बनवा कर जमा करें। पश्चिम उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल के कई बसपा नेताओं ने अपना धन मिट्टी होने से बचाने के लिए अपने क्षेत्र में दस हजार से पच्चीस हजार रुपये तक नकद बांट दिया ताकि काला पैसा चुनाव के समय काम आ सके। वैसे भी लगभग दो दशकों से तमिलनाडु की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में नकद पैसा और शराब बांटने का प्रचलन आम है।
बहुजन समाज पार्टी के मिशन से जुड़े कार्यकर्ता नोट बंदी के फैसले से खुश नजर आते हैं। पार्टी के एक कोआर्डिनेटर ने कहा, ‘पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी 130 सीट सिर्फ इसलिए हार गई क्योंकि अंतिम क्षण में पैसा लेकर उम्मीदवार बदल दिया गया और हमें 2012 में केवल 80 सीटें मिलीं।’ बसपा नेता ने कहा, ‘यह भी सत्य है कि बिना काले धन के चुनाव लड़ना और जीतना बहुत कठिन है और सफेद पैसे से राजनीति नहीं की जा सकती क्योंकि दमदार चुनाव लड़ने में पचास लाख से दो करोड़ तक खर्च होता है।’ बसपा नेता यह भी कहते हैं, ‘बहनजी टिकट चाहे मुफ्त में दें या पैसे लेकर, हर उम्मीदवार को पैसा तो खर्च करना ही पड़ता है और यदि जल्दी कोई इंतजाम न हुआ तो चुनाव की नैया पार लगना मुश्किल है।’
भारतीय जनता पार्टी
सारे दुश्मन दबाव में
नोट बंदी से मचे घमासान के बीच आज उत्तर प्रदेश में सबसे चर्चित मुद्दा है की क्या काले धन पर नरेंद्र मोदी की सर्जिकल स्ट्राइक का भारतीय जनता पार्टी को 2017 के चुनाव में राजनीतिक लाभ मिलेगा। यदि हां तो क्या वह प्रदेश में सरकार भी बना सकती है। विधानसभा चुनाव में जो भी नतीजा हो भाजपा ने नोट बंदी के मुद्दे को जोर शोर से भुनाना शुरू कर दिया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सपा और बसपा पर सीधा हमला करते हैं। उनका आरोप है कि मोदी की बाढ़ से भयभीत मायावती और मुलायम दोनों एक ही झाड़ पर चढ़े हैं। पूरे प्रदेश में मुख्य स्थानों पर नोट बंदी की होर्डिंग लग गई हैं।
नोट बंदी की घोषणा होते ही सदैव साजिश की कहानी के साथ तैयार लोगों ने कहा कि यह फैसला नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए किया है ताकि विरोधी दलों की जमा नकदी बेकार हो जाए और बीजेपी तो अपना धन बचा ही लेगी। बसपा नेता मायावती ने तो स्पष्ट कह दिया, ‘बीजेपी ने तो अगले सौ वर्ष के लिए अपनी राजनीति के लिए इंतजाम कर लिया और हमें बर्बाद कर दिया।’ मुलायम सिंह ने कहा, ‘विधानसभा चुनाव की तो बधिया ही बैठ गई।’ जनता दल (यूनाइटेड) के महामंत्री और राज्यसभा सदस्य के. सी. त्यागी का कहना है, ‘यदि उत्तर प्रदेश के सभी सेकुलर दल एक महागठबंधन के झंडे तले इकट्ठा नहीं हुए तो 2017 में भाजपा को सत्ता में आने से रोकना मुश्किल होगा।’ उनके अनुसार, ‘असली लड़ाई 2017 का चुनाव नहीं बल्कि 2019 का लोकसभा चुनाव है यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा को नहीं रोका गया तो 2019 में रोकना बहुत मुश्किल होगा।’
हर लिहाज से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नरेंद्र मोदी ने अपना आधा कार्यकाल पूरा कर लिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की नब्बे प्रतिशत सीटें जीत कर सभी को चौंका दिया था। 2017 के विधानसभा चुनाव में यदि भाजपा जीतती है तो वह यह साबित कर देगी कि 2014 की सफलता संयोग नहीं थी बल्कि ठोस और सकारात्मक जनसमर्थन था। उत्तर प्रदेश में जीत से बीजेपी का कांग्रेस के बाद सहज स्वीकार्य पार्टी का दावा भी पुख्ता होगा।
उत्तर प्रदेश में चल रही परिवर्तन यात्रा के समापन पर चौबीस दिसंबर को लखनऊ में आयोजित रैली रद्द कर दी गई है। विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि नोट बंदी से उपजे आक्रोश और असंतोष के कारण ही रैली रद्द की गई है। भाजपा के मुख्य प्रवक्ता हृदय नारायण दीक्षित विपक्ष के आरोप का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘रैली रद्द नहीं की गई है, रैली अब अगले वर्ष जनवरी में होगी और अभी उसकी तिथि तय नहीं की गई है। यदि 24 दिसंबर को रैली होती तो वह स्थानीय रैली होकर रह जाती। अब पार्टी ने निर्णय किया है कि प्रत्येक पोलिंग बूथ से एक व्यक्ति रैली में शामिल होगा।’
भाजपा द्वारा राजनीतिक लाभ लेने के बात को सिरे से खारिज करते हुए भाजपा नेता ने कहा, ‘नोट बंदी को हमें मुद्दा बनाने की जरूरत नहीं है। जनता ने स्वयं इसे मुद्दा बना दिया है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में काले धन को खत्म करने का वादा किया था। हमने उसी वादे को पूरा किया है और आम आदमी को यह स्पष्ट सन्देश गया है कि सरकार काले धन से निपट रही है और निपटेगी। आमजन प्रसन्न है कि सरकार ने काले धन पर हमला बोला। सरकार का राजस्व बढेÞगा, विकास के लिए अधिक धन उपलब्ध होगा और टैक्स बेस बढेगा।’
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा, ‘जनता तो कम, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी नोट बंदी से ज्यादा परेशान हैं। यह आम धारणा है कि सपा और बसपा दोनों राजनीति में काले धन का इस्तेमाल करते हैं और दोनों दलों पर नोट बंदी का असर दिख भी रहा है। सरकार में होने के बाद भी सपा के नेता 23 नवंबर को अपने मुखिया मुलायम सिंह यादव की रैली में भीड़ नहीं जुटा सके।’
अब्दुल रहीम खानखाना के एक दोहे को उद्धृत करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अम्बिकानंद सहाय कहते हैं-
‘खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाए,
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाए।
यानी रहीम कहते हैं कि खीरे की कड़वाहट को हटाने के लिए उसे सिरे से काटकर नमक रगड़ना पड़ता है, ताकि खीरे का आनंद लिया जा सके। काला धन के खिलाफ हुई नोटबंदी को खीरे के तौर पर देख सकते हैं। क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था से काला धन के जहर को निकालने के लिए कमोबेश वैसा ही सर्जिकल आॅपरेशन किया जा रहा है। जाहिर है तकलीफ तो होगी। मुझे, आपको और सभी को लाइन में खड़ा तो होना ही होगा। लेकिन एक बार जब जहर निकलने की प्रक्रिया खत्म होगी तो मीठे खीरे का आनंद हम ले सकेंगे। यही उम्मीद है और उम्मीद का नाम ही तो जिंदगी है। जो दृश्य संसद के दोनों सदनों में दिखाई पड़ता है वह भ्रामक है। पक्ष-विपक्ष के नेताओं की चिल्ल-पों का मतलब ये कतई नहीं है कि सारा समाज उनके साथ है। मतलब सिर्फ इतना है कि वो समाज की मानसिकता को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। वो सफल हो पाएंगे कि नहीं यह तो वक्त ही बताएगा।’ सहाय ने कहा, ‘इसमें कोई दो मत नहीं कि नरेंद्र मोदी की मंशा राष्ट्रहित में है। लेकिन उनके फैसलों को सरकारी स्तर पर लागू करने की कोशिश नाकाफी और नाकाबिल साबित हुई है। जिसका नतीजा रहा कि गांव-शहर से लेकर खेत-खलिहानों तक हाहाकार मच गया। और शायद यही हाहाकार उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के मंसूबों पर पानी फेर सकता है।’