…नहीं तो बदल जाएगा मतदाता

जिरह/प्रदीप सिंह

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए एक सबक हैं, अगर वह उससे कुछ सीख सके। भाजपा, संगठन, सामाजिक समीकरण बिठाने की रणनीति और चुनाव के मुद्दे तय करने  में नाकाम रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सबका साथ, सबका विकास के मुद्दे से क्यों हटे यह समझना मुश्किल है। जाति के मोर्चे पर भाजपा हमेशा कमजोर रही है और बिहार में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता नहीं। इसके बावजूद भाजपा ने ये दोनों कार्ड खेलने की कोशिश की। पच्चीस साल के कुशासन और जंगलराज का मुद्दा उठाकर पार्टी ने नीतीश कुमार और सुशील मोदी सरकार की आठ साल की सारी उपलब्धियों को नीतीश की झोली में डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि वह जाति के मोर्चे पर तो हारी ही, विकास के मुद्दे पर भी पराजित हुई।

अहंकार और शेखी किसी भीराजनीतिक दल और राजनेता के लिए हमेशा पतन का करण बनती है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार के बारे में धारणा बन गई है कि वह दंभी है। भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि इस धारणा को बनाने और पुष्ट करने में सबसे बड़ा योगदान पार्टी के कार्यकतार्ओं, समर्थकों का है। बिहार में भाजपा की हार को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। और आगे के चुनावों में रणनीति बनाने से पहले इस सवाल के जवाब के लिए उसे अंदर झांकना चाहिए। पार्टी इसे विरोधियों का आरोप या प्रचार कहकर खारिज नहीं कर सकती। यों किसी भीचुनाव में हार जीत के बहुत से कारण होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे कारण होते हैं जो प्रमुखता हासिल कर लेते हैं। यह मुद्दा इनमें से एक है। हार के कारणों के बारे में कोई कह रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान भाजपा की हार का कारण बना।

कोई गोमांस को मुद्दा बता रहा है तो कोई पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जाने के अमित शाह के बयान को जिम्मेदार ठहरा रहा है। लेकिन ध्यान से देखें तो बिहार में  अपनी हार की पटकथा भाजपा ने खुद लिखी। किसने प्रधानमंत्री को बताया कि बिहार में बिजली नहीं आती। जब उन्होंने चुनाव रैली में पूछा कि बिजली आई क्या तो जवाब में सन्नाटा मिला। इस एक वाक्य ने मतदाता को दो बातें बताईं। या तो  प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को बिहार की जमीनी हकीकत का ज्ञान नहीं है या वे बिहार के लोगों को बेवकूफ समझ रहे हैं। प्रधानमंत्री की रैलियों में आने वाली भीड़ वोट में तब्दील नहीं हुई। शायद वे हर रैली इसलिए आ रहे थे कि वे प्रधानमंत्री से कुछ और सुनना चाहते थे। उन्हें प्रधानमंत्री के वायदों की तुलना में नीतीश के काम का दावा ज्यादा विश्वसनीय लगा। इसलिए राज्य के मतदाताओं ने नीतीश कुमार की आलोचना को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया।

भाजपा के अंदर और बाहर भीएक बात पर लगभग आमराय है कि अमित शाह की कार्यशैली में दंभ नजर आता है। उनकी आक्रामक शैली के कारण पार्र्टी के लोग भीउनके सामने सही बात बोलने से कतराते हैं। लोकसभाचुनाव और खासतौर से उत्तर प्रदेश की कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी रणनीति को जीत का शर्तिया फार्मूला मान लिया है। वे इस तथ्य को नजर अंदाज कर रहे हैं कि लोकसभाचुनाव  में लोग पार्टी, उम्मीदवार, रणनीति, कार्यकर्ता या कुछ और नहीं देख रहे थे। उनपर नरेन्द्र मोदी को दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाने का जुनून सा सवार था। वरना उत्तर प्रदेश में जिस तरह के लोग लोकसभाचुनाव जीते हैं उनमें से कइयों की राजनीतिक हैसियत अपनी जमानत बचाने की भीनहीं थी। इसलिए लोकसभाचुनाव से किसी और चुनाव की तुलना नहीं की जा सकती।

बिहार में भाजपा ने सांगठनिक स्तर पर दूसरी गलती यह की कि राज्य के बाहर के नेताओं कार्यकतार्ओं का मजमा लगा दिया। स्थानीय नेताओं कार्यकतार्ओं की उपेक्षा पार्टी को भारी पड़ी। नीतीश कुमार ने जब बिहारी और बाहरी का नारा दिया तो उसकी प्रतिध्वनि भाजपा के स्थानीय नेताओं और कार्यकतार्ओं से भीआई।

नीतिगत स्तर पर पार्टी की भूल यह रही है कि वह जातीय अस्मिता की राजनीति का जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री की जाति तक आ गई।

भाजपा का जो समर्थक वर्ग है (लोकसभाचुनाव के समय से) वह बहुत चंचल और अधीर है। वह अब वायदे नहीं नतीजे चाहता है। इसके लिए वह अपनी राजनीतिक पसंद बदलने के लिए तैयार है। बिहार में भाजपा को मिले वोट बताते हैं कि लोगों का मोदी और उनकी सरकार से पूरी तरह मोहभंग नहीं हुआ है। लेकिन बिहार के संदर्भ में उन्हें नीतीश कुमार को एक और मौका देना बेहतर विकल्प नजर आया। चुनाव की जीत हो या और किसी क्षेत्र में, वह वर्तमान में अवसर देती है। लेकिन हार भविष्य के अवसर का रास्ता खोल सकती है। बशर्ते उससे सबक लिया जाय।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *