संध्या द्विवेदी
चुनाव आते ही नेताओं का बुंदेलखंड प्रेम उमड़ने लगता है तो गर्मी शुरू होते ही दरार पड़ी जमीन और जल संकट की खबरों के महाकवरेज के लिए पत्रकार यहां डेरा जमा लेते हैं। इन सबसे भी चार कदम आगे हैं यहां के अफसर जो यहां से कहीं और जाना नहीं चाहते।’ सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर का यह व्यंग्य भरा बयान सूखे से बेहाल बुंदेलखंड के कच्चे चिट्ठे का मुखड़ा भर है। सागर पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से बुंदेलखंड की समस्याओं को लेकर आवाज उठा रहे हैं। कमोबेश इसी तरह का कड़वा बयान किसानों की आवाज उठाने वाले शिवनारायण सिंह परिहार का भी है। शिवनारायण कहते हैं, ‘पिछले बीस महीनों में पूरे बुंदेलखंड में 850 किसानों ने जान दी है। हर दूसरे तीसरे दिन कोई न कोई किसान मर रहा है। घरों में लगे ताले खुद अपनी कहानी बयां कर रहे हैैं। सच तो यह है कि बुंदेलखंड को सूखे ने नहीं, नेताओं और अफसरों की सांठगांठ ने मारा है।’ यह कड़वाहट समाजसेवियों या किसान नेताओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि यहां के हरेक आम आदमी की बातों और चेहरे पर ठगे जाने की खीझ साफ झलकती है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली प्रचंड जीत के बाद अब जरूरत है उन वादों को याद करने की जो पार्टी नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान किए थे क्योंकि गर्मी ने दस्तक दे दी है और इस दौरान बुंदेलखंड अपनी बदहाली पर जार-जार रोता है। यह इसलिए भी जरूरी है कि बुंदेलखंड की जनता ने भाजपा पर पूरा भरोसा जताया है और यहां की सभी 19 सीटें पार्टी की झोली में डाल दी है। वैसे अब तक प्रदेश में जितनी भी सरकारें आर्इं किसी ने बुंदेलखंड को बदहाली से निजात दिलाने की ठोस पहल नहीं की। उन सरकारों में भाजपा की सरकार भी शामिल है जो चौदह साल पहले थी। मगर तब हालात अलग थे और विकास चुनावी मुद्दा नहीं हुआ करता था। बुंदेलखंड ने जितना भारी जनादेश भाजपा को दिया है उससे यह सवाल तो जरूर उठता है कि क्या अब भाजपा सरकार भी बुंदेलखंड की झोली भरेगी? क्या यहां की तस्वीर बदलेगी और यहां की बदहाल जनता को विकास के जो सपने दिखाए गए हैं, वे पूरे होंगे? तिलोमपुर के सुखलाल इस सवाल पर बेहद मायूस होकर जवाब देते हैं, ‘सच्ची कहैं तो हम ओरन को कउनौ उम्मीद नइयां। सरकारें तो हर चुनाव में बदल जाती हैं पर बदकिस्मती की गठरिया ढोवत-ढोवत दसियों साल बीत गए।’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने बस इतना कहा, ‘दुनिया के सबसे बदकिस्मत लोग बुंदेलखंड में रहते हैं।’ उनका यह जवाब छोटा तो था मगर प्रतीकात्मक भी। उनके संवाद में गुस्से से ज्यादा नाउम्मीदी की झलक थी।
बांदा की कांशीराम कॉलोनी के जगतराम वाल्मीकि की बातों में भी कुछ इसी तरह की झलक थी। इस जनादेश के बारे में वे कहते हैं, ‘जनता ओट दैबें के इलावा कर भी का सकत हैं। कुछ गांवन ने बहिष्कार भी करौ हतो पर का फायदा! बहिष्कार करके बस अपैं मन मा तसल्ली के सिवाय कछु नहीं होत। हमउ ने सोचो हतो कि ओट न दें। पर फिर मन नहीं मानों तो चले गए, दबाये आए बटन। कमल को बटन दबाओ है। अब देखौं मोदी जी हमाये लाने का देत हैं।’ सच तो यह है कि हर बार के चुनावी वादों से तंग आ चुके यहां के लोग समझ चुके हैं कि राजनीतिक वादे पूरे होने के लिए नहीं होते। बुंदेलखंड इतनी बार छला और ठगा गया है कि अब उम्मीद के हर शब्द यहां के लोगों को धोखे का अहसास कराते हैं।
बुंदेलखंड को लेकर राजनीति करने का आरोप केवल यहां के लोग ही नहीं बल्कि यहां के नेता भी लगाते हैं। झांसी की गरौठा विधानसभा सीट से पहली बार भाजपा विधायक बने जवाहर लाल राजपूत कहते हैं, ‘बुंदेलखंड पर जितनी चर्चा हुई है अगर उसका एक प्रतिशत भी काम होता तो यहां के किसान मरने को मजबूर नहीं होते। लोग पलायन नहीं करते। पढ़ने और खेलने कूदने की उम्र में लड़कियां दिन-रात पानी के लिए नहीं भटकतीं।’ जवाहर केवल आरोप ही नहीं लगाते बल्कि अपनी विधानसभा की किस्मत बदलने का इरादा भी जताते हैं। जिस दिन चुनाव का नतीजा आया उससे ठीक एक दिन पहले वे किसानों के साथ धरना दे रहे थे। वे किसान नेता से विधायक बने हैं। इसलिए उनसे वहां के लोगों को उम्मीद है कि शायद जवाहर अपने लोगों के लिए कुछ करें। जवाहर राजपूत कहते हैं, ‘मैं बहीखाता खोलकर नहीं बैठना चाहता कि पहले की सरकार और विधायकों ने क्या किया? मैं बस इतना जानता हूं कि जैसे पहले मैं अपनी आवाज प्रशासन तक पहुंचाता रहा हूं वैसे ही अब भी मैं अपनी सामर्थ्य का सही इस्तेमाल करूंगा। बुंदेलखंड की सबसे बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार। अधिकारी यहां खुलेआम लूट मचाते हैं। कम से कम मैं अपनी विधानसभा सीट पर इस लूट पर लगाम लगाऊंगा।’
जवाहर राजपूत बोलें न बोलें लेकिन समाजसेवी आशीष सागर तो अधिकारियों की इस लूट और उनके बुंदेलखंड प्रेम पर सोशल मीडिया में खूब खुलकर लिखते हैं। उनकी अनुमति से उनके फेसबुक पोस्ट का एक हिस्सा जिसका शीर्षक है ‘कागजों में हरा होता बुंदेलखंड’ बानगी के तौर पर पेश है:-
‘….संरक्षक बांदा मंडल मौन है! हो भी क्यों न उनके अधीनस्थ प्रभागीय वन अधिकारी अपने उप प्रभागीय वन अधिकारी के इशारे पर कंजरवेटर के आदेश को कूड़ा मानते हैं…मसलन बांदा के वन विभाग के …..बड़े अफसर हैं, ये साहेब बांदा से जाते ही नहीं हैं, हरियाली से लेकर तार बेचने, वन कटान, सरकारी हेर-फेर में अन्य रेंजर के मुखिया जो हैं! कई साल से इनका बांदा प्रेम स्थानीय लोगों को मालूम है… ऐसे ही एक अन्य वन रेंजर हैं,यहां एक रेंजर दो से अधिक रेंज का पदभार लिए है, तैनात बांदा में हैै काम मानिकपुर रेंज में करता है… लाखों रुपया का कटीला तार बांदा, महोबा, हमीरपुर में बेचा गया है पौध सुरक्षा के नाम पे लेकिन धन की भूख शांत नहीं होती! ’
इस पोस्ट से अधिकारियों के नाम हटा दिए गए हैं। आशीष सागर की इस पोस्ट को विभागीय आंकड़े भी सपोर्ट करते हैं। सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों को देखें तो घोटाले की झलक साफ देखी जा सकती है। पिछले पांच साल में बांदा में 2,533.85 लाख रुपये से 37.84 लाख पौधे, महोबा में 2,533.85 लाख रुपये से 43.77 लाख पौधे, हमीरपुर में 2,533.85 लाख रुपये से 16.73 लाख पौधे, चित्रकूट में 2,533.85 लाख रुपये से 43.77 लाख पौधे लगे। इन आंकड़ों को देखें तो चारों जिलों की जारी धनराशि एक ही है जबकि पौधों की संख्या अलग-अलग है। अब इस कागजी हरियाली को कोई भी आम आदमी आसानी से समझ सकता है। धनराशि की बात अगर छोड़ भी दें और इन पौधों की बात करें तो अगर इतने पौधे लगे हैं तो बुंदेलखंड में कहीं तो हरियाली दिखनी चाहिए। जबकि हकीकत यह है कि चित्रकूट से लेकर ललितपुर तक नियमानुसार कहीं भी 33 फीसदी वनक्षेत्र नहीं बचा है। सबसे कम बांदा में 1.21 फीसदी, चित्रकूट में 18.14 फीसदी, महोबा में 4.58 % फीसदी वन क्षेत्र है जबकि जिले में कुल भूमि का 33 फीसदी वन क्षेत्र होना चाहिए।
आशीष सागर कहते हैं कि कई महीने पहले इस मामले में उन्होंने आरटीआई भी डाली है मगर जवाब अभी तक नहीं मिला। ऐसे न जाने कितने घोटाले यहां हो चुके हैं और अब भी हो रहे हैं। बुंदेलखंड पैकेज इन्हीं घोटालों की भेंट चढ़ गया। पर्यावरण दिवस हो, गौरैया दिवस या ऐसे अन्य मौके विभाग के अधिकारी दफ्तरों में बैठकर बजट की बंदरबांट कर लेते हैं। बुंदेलखंड का कुल पैकेज 7,266 करोड़ रुपये का था जिसमें से यूपी के सात जिलों के लिए 3,506 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे।
कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र की यूपीए सरकार में 2009 से लेकर 2014 तक ग्रामीण विकास मंत्री रहे प्रदीप जैन आदित्य तो लगातार बुंदेलखंड पैकेज की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। उन्होंने बताया, ‘मैं 2010 से ही सीबीआई जांच की मांग कर रहा हूं लेकिन राज्य की सरकारों ने कभी इस मांग को नहीं माना।’ केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने पर उनकी इस मांग की अनदेखी के सवाल पर उनका जवाब था, ‘राज्य सरकार की रजामंदी के बिना सीबीआई जांच नहीं हो सकती। मगर अब तो केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की सरकार है इसलिए मैं फिर मांग करता हूं कि बुंदेलखंड पैकेज की सीबीआई जांच होनी चाहिए। बुंदेलखंड की बर्बादी के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए।’ किसान हितों के लिए लगातार आवाज उठा रहे शिव नारायण सिंह परिहार कहते हैं, ‘दरअसल बुंदेलखंड की किस्मत को सियासत खा गई। जांच तो यह भी होनी चाहिए कि क्यों अधिकारी यहां आकर जाना नहीं चाहता। 10-15 साल से अधिकारी यहां क्यों टिके हुए हैं। जो यहां से जाते भी हैं वे दोबारा आ जाते हैं। यहां के लोग जब अपनी जन्मभूमि छोड़कर रोटी की खातिर पलायन कर रहे हैं तो अधिकारी किस लालच में बुंदेलखंड से चिपके रहते हैं? अधिकारियों का बुंदेलखंड प्रेम भी सवालों के घेरे में है।’
खेतों तक नहीं पहुंचा रसिन बांध का पानी
‘हमारे खेतों को तो आज तक बांध का पानी नसीब नहीं हुआ। हम तो इसे मछली बांध बोलते हैं। यहां तो मछलियां पलती हैं।’ रसिन गांव के ब्रजेश यादव बडेÞ मजे से यह जवाब देते हैं। खटिया पर बैठे उनके पिता कहते हैं, ‘अगर इस बांध का पानी खेतों तक पहुंचने लगे तो कम से कम पांच गांव का सुखाड़ खतम हो जाएगा। लेकिन न नौ मन तेल होइहैं न राधा नचिहैं।’ यह बातचीत इस साल की नहीं बल्कि पिछले साल मई में बुंदेलखंड की रिपोर्टिंग के दौरान सूखे के सफर में मेरी हमसफर बनी डायरी के पन्नों में दर्ज पूरे सफर की कहानी का एक छोटा सा हिस्सा है। ब्रजेश यादव की चार बेटियां हैं। बड़ी पढ़ने में होशियार थी। बारहवीं में फर्स्ट डिवीजन से पास हुई थी मगर गरीबी के कारण पढ़ाई रोकनी पड़ी। इस परिवार के पास 12 बीघा खेती थी। ब्रजेश यादव ने बताया था कि अगर इतनी खेती को पानी मिल जाए तो आठ दस लोगों का परिवार आसानी से पाला जा सकता है। मगर सूखे के कारण अब खेती तो बंजर पड़ी रहती है। बस मजदूरी करके ही घर चलाते हैं। चौधरी चरण सिंह रसिन बांध परियोजना की लागत 2,280 लाख रुपये है।
मंडियों में बंध रहे जानवर, कुएं पड़े सूखे
बुंदेलखंड पैकेज का एक बड़ा हिस्सा अनाज मंडियों को बनवाने की लागत के रूप में खर्च हुआ। लेकिन बांदा का मंडी भवन हो या फिर झांसी का, किसी भी जगह अनाज की बोरियां नहीं दिखेंगी। दिखेंगे तो बस रस्सी से बंधे मवेशी। पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री प्रदीप जैन आदित्य ने बुंदेलखंड पैकेज पर पूछे गए सवाल पर सबसे पहले मंडियों के नाम पर खड़े करोड़ों के भवनों का हवाला ही दिया। उन्होंने कहा, ‘मंडियों में स्टाफ नहीं है। खाली भवन में या तो लोग बैठकर चौपाल लगाते हैं या फिर जानवर बांधते हैं। झांसी में 200 करोड़ रुपये की लागत से भवन बना, बांदा में 130 करोड़ की लागत से मगर आज तक कर्मचारी नियुक्त नहीं हुए। पैकेज के नाम पर हजारों की लागत वाले खर्च को करोड़ों में दिखाया गया। उस पर भी उनका इस्तेमाल करने की पहल कभी नहीं की गई।’
चित्रकूट के विधायक चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय भी बुंदेलखंड के विकास के लिए जारी हुए आर्थिक पैकेज के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। पूर्ववर्ती सरकारों के पाले में गेंद डालते हुए चंद्रिका प्रसाद कहते हैं, ‘पैकेज मिले करीब एक दशक हो गया लेकिन क्या हुआ? आपने कुएं खुदवाए। खुदने के बाद उन कुओं का हाल किसी ने नहीं जानना चाहा। लोगों को मूर्ख बनाया गया कि इन कुओं से सिंचाई होगी। अरे कभी कुओं से सिंचाई होते किसी ने देखा है क्या? करोड़ों की लागत से अनाज के भंडारण के लिए मंडियां बनवा दीं। मगर पानी को तरसते खेत अनाज कैसे उगलेंगे यह किसी ने सोचा क्या?’ चंद्रिका प्रसाद ने भी केवल आरोप लगाकर पल्ला नहीं झाड़ा बल्कि पानी को तरसते खेतों को सिंचित करने का इरादा भी जताया। उन्होंंने कहा, ‘हमारे यहां सैकड़ों हेक्टेयर जमीन सूखी पड़ी है। प्राथमिकता के तौर पर मैं अपनी विधानसभा सीट की जमीन को सिंचित करूंगा। इतनी लागत अगर नलकूपों की खुदाई में लगती तो खेतों में अनाज दिखता।’
भूख, बेरोजगारी से पलायन करते लोग
यहां की एक स्थानीय संस्था प्रवास ने पलायन को लेकर 2014-15 में सर्वे किया था। सर्वे के लिए पल्स पोलियो के आंकड़े इस्तेमाल किए थे। इस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार एक दशक में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 13 जिलों वाले बुंदेलखंड से करीब 62 हजार लोगों ने पलायन किया है। शिवनारायण परिहार कहते हैं, ‘इसे रोकने में अब तक की सरकारें नाकाम रही हैं। नई सरकार के सामने भी इसे रोकने की चुनौती है। बुंदेलखंड की सबसे बड़ी बदकिस्मती यह रही कि पानी की कमी ने यहां के किसानों से उनकी खेती तो छीन ही ली साथ ही किसी ने यहां उद्योग लगाने की पहल भी नहीं की। मऊरानी पुर का टेरीकॉट एक समय सबसे ज्यादा मशहूर था। लेकिन आज यह उद्योग लगभग बंद पड़ा है। यहां की बंजर हो रही खेती योग्य भूमि बचाने के साथ उद्योगों को भी बढ़ावा देने की पहल सरकार को करनी चाहिए।’ 20 फरवरी, 2017 को चुनाव प्रचार के दौरान उरई की शंखनाद रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘बुंदेलखंड को गड्ढे से निकालने के लिए लखनऊ में भी बीजेपी का इंजन लगाना होगा। यहां बस एक ही उद्योग पनपा है वह है अवैध खनन। जब बीजेपी की सरकार बनेगी तब बुंदेलखंड की बात सुनने के लिए एक स्वतंत्र बुंदेलखंड विकास बोर्ड बनाया जाएगा। सैटेलाइट से निगरानी कर अवैध खनन पर रोक लगाई जाएगी।’ अब देखना है कि इंजन बदलने के बाद बुंदेलखंड विकास की पटरी पर किस रफ्तार से और कितनी दूर तक दौड़ पाता है।