रमेश कुमार ‘रिपु’
लाल गलियारे में सक्रिय पांच हजार महिला माओवादियों में दो हजार खूंखार हैं। वे न सिर्फ किसी भी बड़े हमले की अगुआई करती हैं बल्कि हमले के दौरान क्रूरता दिखाने में भी वे आगे रहती हैं। कई महिला माओवादियों पर पुलिस ने लाखों का इनाम रखा है। लेकिन अब अपना घर परिवार बसाने की चाह में छापामार महिलाएं हथियार डालकर चूल्हा चौका संभालने लगी हैं।
छत्तीसगढ़ के लाल गलियारे में अपने आतंक से सरकार की चूलें हिला देने वाली खूंखार छापामार महिलाओं के सीने में मुहब्बत की दस्तक ने घर परिवार बसाने की चाहत जगा दी है। उनके इस बदलाव से माओवादी लीडरों में खलबली मच गई है। यह अलग बात है कि पिछले दिनों सुकमा में हुई वारदात को महिला माओवादियों ने ही अंजाम दिया था। नक्सली नेताओं ने महिला माओवादियों से ऐसा इसलिए कराया ताकि घर बसाने की चाहत रखने वाली उनके महिला कैडरों का ध्यान बंट सके। फिर भी जिस तेजी से महिलाएं लाल गलियारा छोड़ कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो रही हैं उससे नक्सली नेताओं की पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं।
नक्सली नेताओं के फरमान को दरकिनार कर महिला कैडर अब हिंसा के रास्ते से खुद को अलग करने लगी हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2000 में नक्सली नेताओं ने नक्सल दंपत्तियों को नसबंदी कराने का फरमान जारी किया था। इसके चलते कई नक्सली साथियों को उनकी महिला मित्रों ने नसबंदी की वजह से छोड़ दिया। कईयों का तो जबरिया नसबंदी किया गया। महिलाओं की नसंबदी के पीछे तर्क था कि इससे पुरुष नक्सली परिवार के मोह में नहीं फंसेंगे। साथ ही महिलाओं का शारीरिक शोषण करने के लिए भी उनकी नसंबदी की जाने लगी। लेकिन घर परिवार बसाने और गृहणी का जीवन जीने की चाहत ने माओवादी महिलाओं को बदल दिया है। लाल गलियारे में इस समय इनामी महिला नक्सलियों के सरेंडर करने की संख्या में तेजी आई है। इसकी वजह बताते हुए पुलिस कहती है कि आंध्र के माओवादी नेता छत्तीसगढ़ की महिला नक्सलियों के साथ बदसूलकी से पेश आते हैं और उनका दैहिक शोषण करते हैं। इससे तंग आकर महिलाएं अब समाज की मुख्यधारा से जुड़ने सामने आ रही हैं।
बदल गई बसंती
कांकेर जिले के लोहारी गांव की रहने वाली नक्सली कमांडर संध्या उर्फ बसंती उर्फ जुरी गावड़े को पुलिस आज तक नहीं भूली है और न ही माओवादी नेता। वर्ष 2010 में ताड़मेटला में हुए नक्सली हमले में 76 जवान शहीद हुए थे। इस वारदात को अंजाम देने में बसंती का हाथ था। बसंती 2001 में नक्सलियों के बाल संगठन में शामिल हुई थी। इसके बाद अलग-अलग जगहों पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाने के बाद अपने गांव में जन मिलिशिया कमांडर के तौर पर काम कर रही थी। नक्सल नेताओं के शोषण से तंग आ कर बसंती ने आत्मसमर्पण कर दिया। उसका प्रमुख काम पुलिस पार्टी पर हमला कर हथियार लूटना, वरिष्ठ नक्सली नेताओं की सुरक्षा करना, संगठन के विस्तार में सहयोग करना और संगठन के खिलाफ काम करने वालों को सजा देना था। उसने जिन गंभीर वारदातों को अंजाम दिया उनमें दुगूर्कान्दल, आमाबेड़ा, कोयलीबेड़ा और पखांजूर थाना क्षेत्र में कई जगह विस्फोट, आगजनी और घात लगाकर हमला करने की घटनाएं शामिल हैं। इनके अलावा 13 सितंबर, 2003 को दंतेवाड़ा जिले के गीदम थाने पर हमला और लूट, 2007 में बीजापुर जिले के रानीबोदली कैंप पर हमला, 2013 में मन्हाकाल निवासी जग्गु धुर्वा की हत्या प्रमुख है।
सुकाय ने ली 27 जवानों की जान
नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के गीदम थाना क्षेत्र से पुलिस ने 8 लाख रुपये के इनामी नक्सली धनसिंह के साथ उसकी पत्नी सुकाय वेट्टी को भी पुलिस ने गिरफ्तार किया। करीब एक साल तक अलग-अलग नक्सल नेताओं के गार्ड के रूप में काम करने के बाद धनसिंह ने सितंबर 2010 से जनवरी 2011 तक डीके सप्लाई प्लाटून में डिप्टी कमांडर के रूप में काम किया। वह पूर्वी बस्तर डिविजन में कंपनी नंबर 6 का कमांडर भी था। उसकी पत्नी सुकाय वेट्टी पिछले पांच सालों से नक्सलियों से जुड़ी थी। 2011 में एलजीएस सदस्य के रूप में वह संगठन से जुड़ी। वर्ष 2010 में मुडपाल के जंगल में पुलिस पर घात लगाकर हमला, नारायणपुर के धौड़ाई इलाके में सीआरपीएफ के जवानों पर हमला जिसमें 27 जवान शहीद हुए थे। 2013 में कोंडागांव के केशकाल थाना क्षेत्र में पुलिस से मुठभेड़ में भी वेट्टी शामिल थी।
झीरम कांड को महिलाओं ने ही दिया था अंजाम
छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमलों को देखें तो उनमें सबसे अधिक दहशत पैदा करने वाले हमलों को महिलाओं ने ही अंजाम दिया। बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को झीरम घाटी में बेरहमी से मारा गया था। उन्हें मारने वालों में ज्यादातर महिलाएं ही शामिल थीं। महिला नक्सली कर्मा को पीटते हुए सड़क से लगभग आधा किलोमीटर अंदर ले गई थीं और इस दौरान उनके चेहरे पर चाकुओं से वार भी करती रहीं। कर्मा की हत्या के बाद उनके शव पर डांस करने वाली भी महिला नक्सली ही थीं। ये क्रोध का चरम था। आखिर महिलाएं कैसे इतनी क्रूर हो गर्इं? समाजशास्त्री डॉ. विनोद मिश्रा कहते हैं, ‘आदिवासी समाजिक व्यवस्था बेहद उदार है। आदिवासी समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है। माओवादियों ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए महिलाओं को शुरू से ही संगठन में शामिल किया। लेकिन धीरे-धीरे संगठन में महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार होने लगा। शुरू में चाहकर भी महिलाएं विरोध नहीं कर सकीं। माओवादी नेता उनके साथ अमानवीय व्यवहार इसीलिए करते हैं ताकि वे हमले के वक्त पुलिस वालों के खिलाफ हिंसक रहें।’
महिलाएं क्यों बन रहीं माओवादी
पिछले कुछ वर्षों से माओवादियों की टुकड़ियों में महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। बस्तर की आदिवासी महिलाएं बस्तरिया संस्कृति को ही ओढ़ती और बिछाती आई हैं। हाड़तोड़ मेहनत करना और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेती किसानी से लेकर वनोपज एकत्र करना, हाट बाजारों में सामान बेचने के अलावा घर गृहस्थी और बाल बच्चे संभालना उनका स्थायी गुण है। विषम परिस्थितियों में नहीं घबराना आदिवासी महिलाओं की विशेषता है। आदिवासी महिलाओं की यही विशेषता लाल गलियारे की जरूरत बन गया। आदिवासी औरतों में अनुशासन और किसी भी काम को मन लगाकर करने की इच्छाशक्ति बहुत तेज होती है। उनकी इसी खूबी का इस्तेमाल माओवादी नेताओं ने उन्हें खूंखार, छापामार और क्रूर बनाकर किया और उन्हें माओवादी बना दिया।
किए पर पछतावा
आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई कई बड़ी नक्सली वारदातों में शामिल फूल सिंह और रमोली ने कोंडागांव पुलिस के आगे हथियार डाल दिए। आत्मसमर्पण करने वाली महिला नक्सली रमोली गांव में रहकर ग्रामीणों को नक्सली बनने के लिए प्रेरित करती थी। उसने बताया कि बड़े नेता नाबालिग युवतियों को संगठन में शामिल करने का दबाव बनाते हैं। पहले युवतियों में जोश भरा जाता है कि यह अपने लोगों के लिए हमारी लड़ाई है। लेकिन संगठन में शामिल होने के बाद उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। 22 साल लाल गलियारे की चौकसी करते गुजार देने वाले आठ लाख के इनामी नक्सली सुभाष उर्फ भास्कर उर्फ रामदयाल कहते हैं, ‘नक्सल नेताओं ने मेरे काम को देख कर एरिया कमेटी मिलिट्री दलम और पूर्वी डिवीजन कमेटी का मुझे सक्रिय सदस्य बना दिया। आज इस बात का पछतावा है कि जीवन के हसीन पल खून खराबे में चले गए।’ सुभाष की पत्नी जुगरी निवासी छिनारी नारायणपुर मदार्पाल एलओएस सदस्य के रूप में वर्ष 2008 में संगठन में भर्ती हुई थी। बाद में उसे भानपुरी एरिया कमेटी सदस्य की जिम्मेदारी दी गई थी। दोनों युगल ने पुलिस से संपर्क किया और आत्मसमर्पण कर दिया।
माओवाद से तौबा
माओवादियों को प्रेम और संतान पैदा करने की इजाजत नहीं होती। प्रेम पर पहरे ने ही संपत और आसमती को सरेंडर करने पर मजबूर किया। 10 लाख रुपये के इनामी नक्सली 38 वर्षीय संपत और 8 लाख रुपये की इनामी नक्सली 20 वर्ष की आसमती की प्रेम कहानी बड़ी दिलचस्प है। दोनों की मुहब्बत परवान चढ़ ही रही थी कि इसकी भनक कमेटी के सचिव राजू उर्फ रामचंद्र रेड्डी को लग गई। दोनों प्रेमियों को जबरन अलग कर दिया गया। दोनों को यह नागवार गुजरा। दोनों ने घर बसाने की चाहत में हथियारों से नाता तोड़ लिया। लाल गलियारे से तौबा करने के पीछे एक कारण यह भी है कि छत्तीसगढ़ में आंध्र प्रदेश के माओवादी उच्च पदों पर हैं। संगठन में अब महिला नक्सलियों की संख्या घट रही है। नक्सल डीजी डीएम अवस्थी इसकी वजह बताते हैं, ‘दलम में महिलाओं के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है। इतना ही नहीं महिलाओं की दैनिक मुश्किलों की तरफ भी ध्यान ही नहीं दिया जाता। जब उन्हें पीरियड्स आते हैं तो सैनिटरी नैपकिन भी उपलब्ध नहीं होती। एक ही वर्दी में उन्हें कई-कई दिन गुजारने पड़ते हैं। बंदूकों के अलावा वजनी सामान भी महिला नक्सलियों के सिर पर रख दिया जाता है। इससे अब महिलाओं को भी लगने लगा है कि केवल उनका शोषण करने के लिए ही नक्सली नेताओं ने उन्हें नक्सली बनाया है।’
पुलिस के बढ़ते दबाव के अलावा कई बार नक्सलियों को अपने शीर्ष नेताओं के रवैये से भी माओवादी जीवन से घृणा हो जाती है और वे हथियार डाल देते हैं। जैसा कि दलम में सक्रिय नक्सली दपंती महेंद्र केरामे और शीला उर्फ लता गोटा के साथ हुआ। उन्होंने 2011 में शादी तो कर ली लेकिन उन पर दबाव बढ़ने लगा नसबंदी कराने का। संदीप राजनांदगांव जिले का है और उसकी नक्सली पत्नी शीला महाराष्ट्र की है। नसबंदी के अलावा शीला पर शारीरिक शोषण का हमेशा दबाव बना रहता था। अंत में समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए दोनों ने पुलिस के समक्ष सरेंडर कर दिया। दोनों इनामी नक्सली थे।
माओावादी गढ़ में धीरे धीरे ही सही लेकिन महिलाओं में लाल लावे से मोह भंग होने लगा है। माओवादियों की वैचारिक घुट्टी का भी अब असर खत्म होने लगा है। ग्रमीणों को भी यह सोचना होगा कि उनके घर की बहू, बेटियां माओवादी बनकर आदिवासी समाज को ही कलंकित कर रही हैं। साथ ही एक अभिशप्त जिंदगी जीती हैं। सरकार को भी माओवाद से महिलाओं का मोह भंग करने की दिशा में और उदार रवैया अपनाना होगा। साथ ही जो महिलाएं सरेंडर कर चुकी हैं, उनकी भी मदद करना हितकर होगा। पिछले वर्ष पुलिस ने कुछ ऐसे नक्सली महिला-पुरुषों की शादी करवाई जो सरेंडर कर चुके हैं।
लाल गलियारे से तौबा करने के पीछे एक कारण यह भी है कि माओवादियों में आपसी फूट बढ़ती जा रही है। छत्तीसगढ़ में आंध्र प्रदेश के माओवादी उच्च पदों पर हैं। वे स्थानीय माओवादियों के साथ भेदभाव करते हैं। स्थानीय महिला माओवादियों का शारीरिक शोषण अधिक होता है। इस वजह से स्थानीय माओवादियों में उनके प्रति गुस्सा है और वे सरेंडर करने की दिशा में अधिक सोचने लगे हैं। पुलिस का दबाव भी काम कर रहा है। बस्तर के आईजी विनोद सिंह कहते हैं, ‘स्थानीय आदिवासियों का माओवाद से मोह भंग हो रहा है। इतना ही नहीं माओवादियों के लिए हालात दिन-ब-दिन मुश्किल होते जा रहे हैं। पुलिस के दबाव की वजह से वे अपने लिब्रेटेड जोन के अलावा अन्य जगहों पर दो घंटे से ज्यादा नहीं ठहर पाते हैं। नई जगहों पर तो आधा घंटा भी नहीं क्योंकि अंदरूनी इलाकों में लगातार थाने-चैकियां खुल रही हैं।’