शंभूनाथ शुक्ल ।
हिमालय की तलहटी में तराई के जंगलों से लेकर गंगा और यमुना के दोआबे में बसा सहारनपुर जिला यूपी का नंबर वन जिला है। अपनी प्राचीनता में भी और अपनी खूबसूरती तथा प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से भी। यहां अथाह पानी है, जंगल है और शिवालिक की पहाड़िय़ों की ऊंचाई है। इसके एक तरफ उत्तर में बेहट है जो शिवालिक पहाड़िय़ों के नीचे है और जहां की शाकुंबरी देवी इस जिले की ईष्ट हैं। दूसरी तरफ पूरब और दक्षिण के कोने पर है देवबंद जहां का दारुल उलूम इस्लामी शिक्षा का विश्वविख्यात केंद्र है। यह वह वही दारुल उलूम है जहां के मौलवी दुनिया भर में मुसलमानों की शरीयत संबंधी शंकाओं का समाधान करते हैं। इस जिले में हिंदू मुस्लिम आबादी के बीच साठ और चालीस का अनुपात है पर यहां से किसी तरह के उन्माद या तनाव अथवा सांप्रदायिक हिंसा की खबरें कभी नहीं मिलीं। लेकिन पिछले एक महीने से सहारनपुर शांत नहीं रहा है। पहले बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जयंती पर शोभा जुलूस पर पथराव फिर नौ मई को राणा प्रताप जयंती पर निकल रहे जुलूस पर पथराव एक ऐसी अशांति का संकेत है जिससे लगता है कि आने वाले दिन इस शांत और खूबसूरत शहर के लिए ठीक नहीं रहेंगे। किसी भी शोभायात्रा अथवा जुलूस पर पथराव एक तरह से हिंसा को उकसाना है और यह काम आजकल सहारनपुर में हो रहा है। पांच मई को शब्बीरपुर कांड के बाद प्रशासन ने हालात संभाले तो मगर नौ मई को भीम सेना के आक्रामक तेवर और अनियंत्रित भीड़ ने यहां के शांत माहौल में जहर घोल दिया। पूरा शहर उस दिन कांप उठा। अनियंत्रित भीम सेना द्वारा उकसाई गई भीड़ ने जबर्दस्त पथराव कर दिया। निर्माणाधीन राणाप्रताप भवन की इमारत को तोड़ दिया गया और राम नगर चौकी को फूंक डाला गया। यही नहीं भीमसेना के तेवर देखकर पूरा शहर भयभीत हो गया और कोर्ट रोड जैसे भीड़भाड़ वाले इलाके में भी सन्नाटा छा गया। सबने एक सुर से माना कि यह खतरनाक संकेत है और इस पर लगाम तत्काल नहीं लगाई गई तो आने वाले दिनों में कुछ भी अघट हो सकता है।
ताजा घटनाक्रम की शुरुआत पांच मई को शब्बीरपुर से हुई जब राणा प्रताप जयंती पर शोभायात्रा निकाल रहे कुछ लोगों पर पथराव हुआ। दरअसल शब्बीरपुर गांव के कुछ युवक शिमलाना में राणाप्रताप जयंती पर हुए एक कार्यक्रम के बाद अपने गांव शब्बीरपुर लौट रहे थे। ये सारे युवक राजपूत जाति के थे और ये सब धूमधड़ाके के साथ अपने गांव आ रहे थे। उनके साथ कुछ बैंड-बाजे वाले लोग भी थे। पर गांव के अपने घर जाने के लिए इन युवकों को शब्बीरपुर की ही दलित बस्ती को पार कर जाना था। यूं भी आमतौर पर गांव के किनारे पर ही दलित मोहल्ले होते हैं। और वहां से गुजरे बिना कोई भी अपने घर नहीं जा सकता। जाहिर है ये युवक राणा प्रताप जयंती पर हुए कार्यक्रम से लौट रहे थे इसलिए हर एक के पास छोटी-छोटी तलवार नुमा धारदार दिखावटी हथियार और एकाध के पास देसी कट्टे वगैरह भी थे। उधर दलित जाति के युवकों को लगा कि ये ठाकुर लोग अपनी बहबूदी जताने के लिए हमारे मोहल्ले से इस तामझाम के साथ निकल रहे हैं। उन लोगों ने इन्हें वहां से निकलने को मना किया तो बात बढ़ गई। आपस में गर्मागर्मी शुरू हो गई। अपने बच्चों को घिरा देख दलित मोहल्ले की औरतों को लगा कि उनके बच्चे अकेले पड़ गए हैं और ठाकुर युवक उन्हें पीट देंगे। इस डर से उन्होंने गुम्मे-पत्थर उठाए और अपनी छतों पर डट गर्इं। जब मामला नहीं शांत हुआ तो उन औरतों ने पथराव शुरू कर दिया। एकाध को गुम्मे लगे तो वे भागे और तितर-बितर हो गए। कोई महेशपुरा की तरफ भागा तो कोई शिमलाना की तरफ। महेशपुरा में ठाकुर युवकों को लगा कि उनके सारे साथी नहीं आ पाए और कुछ लगता है कि वहीं दलित बस्ती में छूट गए। चूंकि वहां पर झगड़ा शांत कराने जो बड़गांव का थानेदार आया था वह दलित जाति का था इसलिए वे संशय में पड़ गए और उनका शक पुख्ता होने लगा कि बाकी के साथी संकट में हैं। उन्होंने कुछ राजपूत युवक महेशपुरा से इकट्ठे किए और कुछ शिमलाना से बुलाए। फिर सबकी राय बनी कि अब शब्बीरपुर चला जाए अपने अपमान का बदला लेने। वहां आने पर पता चला कि उनका एक साथी मर चुका है और फिर क्या था वे टूट पड़े शब्बीरपुर की दलित बस्ती पर। थानेदार के पास फोर्स कम थी इसलिए वह चला गया। तमाम बिटौले फूंक डाले गए और कुछ घरों को भी आग लगा दी गई। जब तक जिला पुलिस पहुंचती-पहुंचती तब तक वे काफी सत्यानाश कर चुके थे। यह भी सहारनपुर का दुर्भाग्य है कि सहारनपुर देहात के एसपी भी शहर में ही बैठते हैं। सहारनपुर को शांत जिला समझकर एसपी देहात का आफिस देहात के किसी कस्बे में खोलने पर विचार ही नहीं किया गया।
सहारनपुर पर किसी तरह पुलिस व प्रशासन ने काबू पा लिया। चूंकि राजपूत युवक मरा था इसलिए राजपूत युवकों के अंदर उबाल स्वाभाविक था। मगर उस युवक की रात को ही अंत्येष्टि कर दी गई। हालांकि हिंदू समाज में रात को अंत्येष्टि नहीं की जाती पर पुलिस ने किसी तरह उसके परिजनों को समझा लिया। एसएसपी सुभाष दुबे ने बताया कि हमें डर था कि अगर अंत्येष्टि दिन को हुई तो आसपास के गांवों के लोग आ जाएंगे और तब उन्हें रोकना संभव नहीं होगा। उसके परिजनों को मनाया गया और वे मान भी गए। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में आया कि उस युवक की मौत गुम्मा-पत्थर से नहीं बल्कि दम घुटने से हुई। इसलिए परिजनों ने भी उबाल शांत करने में पुलिस की मदद की। अब राजपूत तो मान गए मगर दलित युवकों में मेसेज यह गया कि राजपूत बदला जरूर लेंगे। आज नहीं तो कल। इसलिए उनमें भी एकजुटता बनाने के लिए कुछ बेरोजगार युवक लग गए। दलित समाज में काम कर रही भीम सेना ने युवकों को एकत्र किया और आह्वान किया कि राजपूत बदला जरूर लेंगे इसलिए वे नौ मई को एक महापंचायत करेंगे। चूंकि भीमसेना आसपास सक्रिय है इसलिए इस महापंचायत के लिए पूरे जिले के युवक तो आए ही साथ में हरियाणा के करनाल, अंबाला और यमुनानगर तथा उत्तराखंड के देहरादून जिले से भी कुछ लोग आए। अब महापंचायत के लिए प्रशासन से अनुमति नहीं ली गई थी तथा शब्बीरपुर कांड के चलते प्रशासन सतर्क था इसलिए वे सभा तो नहीं कर पाए मगर इस खुंदक में उन्होंने ऊधम जरूर काटा। इसके अलावा भीमसेना नेतृत्त्वविहीन हो गई। उसका माध्यम सोशल मीडिया थी पर यह नहीं पता था कि सहारनपुर में कौन इसे कर रहा है। जब ये भीमसेना के लोग शहर के गांधी पार्क में महापंचायत के लिए पहुंचे तो पहले से सतर्क पुलिस ने उन्हें लाठीचार्ज कर खदेड़ दिया। बिना किसी नेता के यह भीड़ अनियंत्रित हो गई और इधर-उधर भागने लगी। शहर के जिन कोनों पर दलित बस्तियां थीं वहां भीड़ एकत्र हुई और अराजकता फैलाने लगी। खासकर मोल्हूपुर रोड पर रामनगर में दलित बस्तियों में जमे बैठे लोगों ने पथराव कर दिया। वहां पर बन रहे राणा प्रताप भवन को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। वहां पर पुलिस थी तो पर पथराव का सामना पुलिस नहीं कर सकी। उनकी दरअसल वैसी तैयारी भी नहीं थी। पथराव से एडीएम प्रशासन और एसपी सिटी घायल हो गए। तब उन्होंने भागकर जान बचाई। इसके बाद भीड़ ने रामनगर पुलिस चौकी का रुख किया। पुलिस चौकी में तब पुलिस के एकाध जवान थे वे भी भीड़ के डर से भाग निकले। नतीजा यह हुआ कि भीड़ के हौसले बढ़ गए और उन लोगों ने पुलिस चौकी घेर ली। वहां पर मौजूद कुछ अखबार के फोटोग्राफरों ने इस अराजक भीड़ की अगुआई कर रहे युवकों की तस्वीरें खींचनी शुरू कर दीं तो पहचाने जाने के डर से उन लोगों ने मीडिया वालों को घेर लिया और उनकी बाइकें फूंक दीं। इस चपेट में रामनगर पुलिस चौकी और वहां पर खड़ी कई और मोटर साइकिलें भी आ गर्इं। इसके बाद वे लोग तितर-बितर हो गए।
गांधी पार्क से भागी भीड़ शहर के हर कोने में फैल गई और अराजकता फैलाने लगी। शहर से बाहर जाने वाली हर सड़क बेहट रोड, चिलकाना रोड व मोल्हूपुर रोड तक वह पहुंच गई। वहां पर आबाद दलित बस्तियों में भीम सेना के इन युवकों को पनाह भी मिली। मगर इस सबके पीछे डर था कि अगर वे इधर-उधर अनजाने स्थानों की तरफ भागे तो राजपूत उन्हें नहीं छोड़ेंगे इसलिए वे न सिर्फ दलित बस्तियों में जम गए वरन डर की वजह से उनमें एका भी आ गया। नतीजा यह रहा कि पुलिस और प्रशासन लाचार हो गया। गोली चला नहीं सकते थे क्योंकि उससे किसी आम नागरिक की जान जाने का भी खतरा था और गोली चलाने के असर बड़े दूरगामी होते। यही कारण रहा कि डीएम एनपी सिंह और एसएसपी सुभाष दुबे ने कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। और अनियंत्रित भीड़ ऊधम काटती रही। इसके बाद डीएम और एसएसपी ने स्वयं बिना किसी फोर्स के जाकर भीड़ को समझाने का जोखिम भरा कदम उठाया और भीम सेना के एक नेता चंद्रशेखर को कहा कि देखो अगर पुलिस ने गोली चला दी तो कई लोग मरेंगे और निर्दोष भी तथा इसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारे सिर आएगी। इससे चंद्रशेखर में तो भय आया ही और लोग भी डरे और पथराव बंद कर दिया गया। धीरे-धीरे हालात काबू में आ गए। ऊपरी तौर पर सहारनपुर अब शांत तो है मगर इन दोनों समुदायों के अंदर आंच अभी सुलग रही है। इसीलिए दस मई बुद्ध जयंती के दिन डीएम और एसएसपी ने सर्किट हाउस में एक पीस मीटिंग बुलाई। इसमें राजपूत समाज और दलित समाज के नेताओं को तो बुलाया गया, साथ में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता भी बुलाए गए। इसका असर पड़ा और हालात सुधरने के संकेत मिलने लगे। पर डीएम और एसएसी दोनों का ही मानना है कि अभी सब कुछ सामान्य है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक भी चिंगारी दावानल बन सकती है इसलिए दोनों समुदायों में पहले जैसी अमन-चैन बहाली के काम चल रहे हैं।
ताजा घटनाक्रम को पिछले महीने की घटना से जोड़कर देखने पर स्थिति कुछ और समझ में आती है। दरअसल 14 अप्रैल को स्थानीय भाजपा सांसद राघव लखनपाल ने डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जयंती के रोज दलितों को जोड़कर एक शोभायात्रा निकाली थी। वह शोभायात्रा चूंकि मुस्लिम मोहल्लों से गुजरी और इससे नाराज मुस्लिम युवकों ने शोभायात्रा पर पथराव कर दिया था। तब दलितों ने इसका मुंहतोड़ जवाब दिया था। इससे उन मुस्लिम व दलित विचारकों को मायूसी हुई थी जो भविष्य में अपनी राजनीति मुस्लिम व दलित मतदाताओं को एकजुट कर पूरी करना चाहते हैं। क्योंकि पूरे जिले में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत है और दलित आबादी लगभग 28 प्रतिशत। पर यदि मुस्लिम दलित आपस में लड़ जाते हैं तो यह एकता धरी की धरी रह गई। इसलिए कहा जाता है कि भीम सेना के माध्यम से उन लोगों ने दलितों को यहां पर एक और ताकतवर जाति राजपूतों से भिड़ाने की सोची। यूं भी गांव में राजपूतों की जमीन दलित बटाई पर लेते हैं या उनके यहां मजदूरी करते हैं। इसलिए लाख संबंधों के बावजूद मजदूरी या बटाईदारी में वर्चस्व तो ठाकुरों का रहता ही है। अब चूंकि दलित भी संपन्न हुए हैं खासकर नौकरी आदि पा जाने के कारण इसलिए वे ठाकुरों की अब वैसी जी-हुजूरी नहीं करते जैसी कि कभी किया करते थे। इसलिए भी परस्पर तनातनी थी। दलित-मुस्लिम एकता के हामी विचारकों ने इसका लाभ उठाया और पांच मई को हिंसा करवा दी। इसके लिए कोई चेहरा सामने नहीं आया बल्कि सोशल मीडिया का सहारा लिया गया। यानी बिना चेहरे के इतना बड़ा आंदोलन। इससे पुलिस भी गफलत में रही। और यह वारदात हो गई। अब दोनों पक्षों के समझदार और बुजुर्गों ने समझाना शुरू किया है कि दलित और राजपूतों के बीच यदि संघर्ष ने जोर पकड़ा तो इसका नुकसान दोनों ही जातियों को उठाना पड़ेगा। यह लड़ाई फिलहाल राजपूत बनाम दलित बना दी गई है। बाकी की जातियां या तो उदासीन हैं अथवा चुप हैं। इसलिए बेहतर होगा कि वक्त रहते कोई रास्ता निकाल लिया जाए। अच्छी बात है कि यह बात अपील करती जा रही है।
कुछ राजनीतिक नेता और दल भी इसे हवा दे रहे हैं। इसमें एक नाम नांगल के पूर्व विधायक रवींद्र मोल्हू का भी आ रहा है। पता चला है कि मोल्हू के समर्थक इस भीम सेना को हवा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि दलितों को भाजपा के पाले में जाने से निकालना आवश्यक है। वर्ना अगर हिंदू सामाजिक एकता के साथ दलित चला गया तो उनकी राजनीति समाप्त। नौ मई के हमले में कुछ लोग मोल्हू समर्थक बताए जाते हैं। हालांकि राजपूतों ने समझदारी दिखाई और शब्बीरपुर की घटना के बाद वे बैकफुट पर आ गए। उन्हें यह डर भी रहा कि अब अगर आगे वे बढ़े तो वे दलित एक्ट में भी नप सकते हैं। इसलिए वे शांत हैं। हालांकि शांति दलितों के बीच भी है पर कुछ अराजक तत्व दलितों को उकसा रहे हैं। डीएम एनपी सिंह ने दोनों समुदायों को समझाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं और वे दलित समाज तथा राजपूत समाज के युवकों के संपर्क में निरंतर हैं। हालांकि डीएम स्वयं राजपूत समाज से हैं पर दलितों ने खुद भी कहा है कि डीएम की छवि गरीब समर्थक है इसलिए वे अवश्य उनकी बात को गंभीरतापूर्वक समझेंगे। उधर एसएसपी सुभाष दुबे ने एक नायाब नुस्खा निकाला है गांवों में अमन-चैन की बहाली का। उन्होंने गांव-गांव में शांति समितियां बनाने का प्रस्ताव रखा है। उनके अनुसार यदि गांव में सरकारी दल और स्वयंसेवी दल खुद ही अमन चैन बहाल कर लें तो न सिर्फ इस बार शांति बहाली होगी बल्कि आगे के लिए भी ऐसी हिंसा से बचा जा सकेगा।