जसविंदर सिद्धू
कल्पना कीजिए एक ऐसी खेल संस्था की जिसके बैंक में करीब पांच हजार करोड़ रुपये के फिक्स्ड डिपॉजिट्स हों और वह हर साल करीब हजारों करोड़ रुपये कमा रही हो। लेकिन फिर भी वह कहे कि उसे और पैसा चाहिए, नहीं तो भारतीय टीम अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में नहीं खेलेगी। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) से पैसे के बंटवारे को लेकर विवाद में जून में इंग्लैंड में होने वाली चैंपियंस ट्रॉफी में न खेलने की धमकी देकर देश में जो माहौल बनाया उससे कई सवाल उठते हैं। पहला यह कि उसकी नजर में अदालत के क्या मायने हैं?
2013 के स्पॉट फिक्सिंग और सट्टेबाजी के कारण लंबी कानूनी लड़ाई के बाद पहले सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी को बीसीसीआई में प्रशासनिक सुधार और उसे भ्रष्टाचार मुक्त करने के उपाय सुझाने को कहा। फिर पिछले साल लोढ़ा कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद इस साल जनवरी में पूर्व महालेखा परीक्षकविनोद रॉय की अध्यक्षता में चार सदस्यीय प्रशासक कमेटी की नियुक्ति की। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि जब तक बीसीसीआई और उसकी सदस्य इकाइयां लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों को लागू नहीं करतीं, प्रशासक कमेटी बोर्ड का काम देखेगी। कोई भी फैसला उसकी रजामंदी के बिना न लिया जाए। इसके बावजूद बोर्ड के अंतरिम अधिकारियों ने न केवल धमकी दी कि भारतीय टीम चैंपियंस ट्रॉफी में नहीं खेलेगी बल्कि आईसीसी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की प्रक्रिया शुरू करने की भी बात कही। यह सब प्रशासक कमेटी की राय के बिना हुआ। मामले का रोचक पहलू यह है कि बोर्ड के कुछ अधिकारी जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने बेदखल किया है, वे पर्दे के पीछे से मीडिया के एक धड़े में बोर्ड की कागजी कार्यवाही लीक करप्रशासक कमेटी और सर्वोच्च न्यायालय को चुनौती दे रहे थे।
अब सवाल उठता है कि यह सारी लड़ाई पैसे के लिए है या आईसीसी की अप्रैल में हुई दुबई बैठक में बीसीसीआई के खिलाफ बगावत का बदला लेने के लिए या फिर अपनी खोई हुई साख को फिर से बहाल करने की! इस बात से पूरी दुनिया वाकिफ है कि बीसीसीआई के पास पैसे की कोई कमी नहीं है। यह दुनिया की सबसे अमीर खेल संस्था है। फिर उसे और पैसा क्यों चाहिए? यह एक यक्ष प्रश्न है। कभी विश्व क्रिकेट का माई-बाप रहा बीसीसीआई इसी लालच के चलते अब किसी यतीम की तरह हताश अकेला खड़ा है। दुबई बैठक में हमेशा साथ खड़े रहने वाले पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के क्रिकेट बोर्ड ने भी बीसीसीआई का साथ छोड़ दिया। जबकि आॅस्ट्रेलिया और इंग्लैंड ने कमाई के बंटवारे को लेकर बने ड्रॉफ्ट पर बीसीसीआई के खिलाफ वोट दिया।
जानकारी के लिए यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि 2014 के जिस ‘बिग थ्री’ फार्मूले को लेकर विवाद था उसके अनुसार आईसीसी की कमाई का बड़ा हिस्सा भारत, आॅस्ट्रेलिया और इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड को जाना था। बीसीसीआई का तर्क था कि आईसीसी की कमाई में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसकी है क्योंकि आईसीसी के टूर्नामेंटों में भारतीय टीम कीहिस्सेदारी के कारण ही स्पॉन्सरशिप ज्यादा मिलती है और मोटा राजस्व आता है। इसके बाद आॅस्ट्रेलिया और इंग्लैंड हैं। 2014 के इस प्रस्ताव का व्यापक विरोध हुआ और अंत में पिछले माह आईसीसी की बैठक में भारत को छोड़ सभी देशों ने इसे खारिज कर दिया।
बीसीसीआई की अधिक पैसे की मांग किसी भी लहजे से तर्कसंगत नहीं लगती। इस स्थिति को समझने के लिए बीसीसीआई की पिछले वित्त वर्ष की बैंलेस शीट पर निगाह डालना काफी है। वित्त वर्ष 2015-16 में घरेलू सीरीज में बोर्ड ने सिर्फ मीडिया राइट्स बेचकर 648 करोड़ रुपये कमाए थे जबकि आईपीएल से 738 करोड़ रुपये की कमाई की। यही नहीं बीसीसीआई एफडी के ब्याज के पैसे से भी चल सकता है। इसके बावजूद वह आईसीसी से और ज्यादा पैसे की मांग कर रहा है। खजाना भरा होने के बावजूद लालच में चूर भारतीय बोर्ड ने इंग्लैंड में होने वाली चैंपियंस ट्रॉफी से हटने की धमकी दी। जाहिर है बोर्ड के लिए खेल का कोई मायने नहीं है। भारतीय खिलाड़ी बीसीसीआई के अधिकारियों के लिए महज पैसा कमाने का जरिया हैं। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस लोढ़ा कमेटी की बीसीसीआई में प्रशासनिक सुधारों की सिफारिशों वाली रिपोर्ट को लागू करने के लिए प्रशासकों की एक कमेटी बिठा रखी है।
आईसीसी के नए राजस्व मॉडल के हिसाब से सभी सदस्य बीसीसीआई को आठ साल के दौरान आईसीसी के टूर्नामेंटों से होने वाली कमाई में से 29.3 करोड़ डॉलर देने को सहमत हैं। इसके अलावा आईसीसी 10 करोड़ डॉलर और देने को राजी है। जबकि इंग्लैंड को 14.3 करोड़ डॉलर मिलेंगे। इसके अलावा आॅस्ट्रेलिया, वेस्टइंडीज, साउथ अफ्रीका, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और न्यूजीलैंड के हिस्से 13.2 करोड़ डॉलर (प्रत्येक) आएंगे। आईसीसी का मुख्य मकसद पूरी दुनिया में क्रिकेट को फैलाना है। एसोसिएट मेंबर आयरलैंड और अफगानिस्तान की क्रिकेट के नक्शे पर सशक्त मौजूदगी आईसीसी की बड़ी कामयाबी है। जब आईसीसी का गठन हुआ था उस समय मकसद इस खेल को बड़ा करने का था न कि धंधा बढ़ाने का। आईसीसी के 39 एसोसिएट सदस्यों को मात्र 28 करोड़ डॉलर मिलने हैं। यानी पहले से ही पैसे से लबालब बीसीसीआई को इन 39 देशों से भी ज्यादा पैसा मिल रहा है मगर यह भी उसे कम नजर आ रहा है।
बीसीसीआई के अधिकारी अपने पूर्व अध्यक्ष शशांक मनोहर को कोस रहे हैं। शशांक की ही बदौलत आईसीसी की आमदनी का बड़ा हिस्सा भारत, इंग्लैंड और आॅस्ट्रेलिया को मिलने से रुका। बतौर आईसीसी चेयरमैन शशांक मनोहर ने बाकी सदस्य देशों और खेल को अहमियत दी जो काबिले तारीफ है। शशांक मनोहर कहते हैं, ‘मौजूदा मॉडल विश्व क्रिकेट की बेहतरी के लिए बढ़ा एक और कदम है। उम्मीद है कि सालाना सम्मेलन में इसे आईसीसी की मंजूरी मिल जाएगी। मुझे पूरा भरोसा है कि हम इस मॉडल को अपना कर क्रिकेट को विश्व स्तर पर फैलाने और सुधारने के लिए एक मजबूत नींव रख सकते हैं।’ हालांकि बीसीसीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि यह मॉडल उन्हें मंजूर नहीं है। उन्हें लगता है कि आईसीसी की अगले आठ साल के अनुमानित राजस्व का करीब 21 फीसदी हिस्सा भारतीय बोर्ड को मिलना चाहिए। इस हिसाब से बीसीसीआई की मांग 60 करोड़ डॉलर से भी अधिक की बनती है।
सवाल यह भी है कि बीसीसीआई को ज्यादा पैसा किसके लिए चाहिए। अपने खिलाड़ियों के लिए या फिर अपने सदस्यों के लिए। दिल्ली, गोवा, हैदराबाद, जम्मू और कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन सहित बीसीसीआई के कई सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं। इन एसोसिएशनों के खिलाफ कई सौ करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप है जिसकी जांच अलग-अलग एजेंसियां कर रही हैं। लेकिन किसी भी मामले में बीसीसीआई की ओर से कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। जबकि ऐसा होना चाहिए था क्योंकि उसके पैसों की हेराफेरी हुई है। आंकड़े देखने के बाद यह साफ जाहिर है कि क्रिकेट खिलाड़ी पैसे के इस खेल में कहीं नहीं हैं। उनके पिछले साल के अंतरराष्ट्रीय कैलेंडर की फीस बीसीसीआई के कानूनी खर्चे के सामने चिल्लर है। कोई यह भी नहीं बता रहा कि खिलाड़ी खुद चैंपियंस ट्रॉफी में खेलना चाहते हैं या नहीं। इस बारे में उनसे कोई राय नहीं ले रहा। इस पूरे मामले का खतरनाक पहलू यह है कि बीसीसीआई क्रिकेट को आगे रख कर ब्लैकमेलिंग में जुटा है।
अब सवाल यह भी उठता है कि अगर दोनों पक्षों में पैसे को लेकर किसी प्रकार की सहमति नहीं बनी, जिसके आसार न के बराबर हैं, तो क्या आईसीसी भारतीय क्रिकेट टीम को 2019 के विश्व कप में खेलने से रोक देगा क्योंकि नया राजस्व मॉडल 2023 तक के लिए है। सवाल यह भी है कि क्या भारतीय बोर्ड विश्व बिरादरी के अलग होने का जोखिम लेने को तैयार है? यकीनी तौर पर भारत के आईसीसी के टूर्नामेंटों से हटने का आर्थिक नुकसान तो होगा लेकिन इससे आईसीसी डूब जाएगी, ऐसा नहीं है। आईसीसी को उसके सदस्य देश ही चलाते हैं। अगर वे सभी मिल कर यह तय कर लें कि वे भी भारत के खिलाफ उसकी जमीं पर नहीं खेलेंगे तो भारतीय बोर्ड के लिए मरने वाली स्थिति होगी क्योंकि बीसीसीआई की कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा उसकी घरेलू अंतरराष्ट्रीय शृंखलाओं से ही आता है।
साफ है कि अगर आईसीसी से संबंध खराब हुए तो इसका असर बीसीसीसीआई की सबसे कमाऊ सीरीज इंडियन प्रीमियर लीग पर भी बुरी तरह पड़ेगा। क्या कोई एबी डिबिलियर्स, क्रिस गेल या कोरी एंडरसन के बिना आईपीएल की कल्पना कर सकता है। अगर बीसीसीआई पैसे के लिए खुद को ऐसी स्थिति में ले जाता है तो यह फैसला खुद को डुबोने वाला होगा।