आनंद प्रधान।
देश के 14वें राष्ट्रपति का चुनाव अब सिर्फ औपचारिकता भर है। भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का जीतना तय है। हालांकि एनडीए को राष्ट्रपति चुनाव के लिए निर्वाचक मंडल में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था लेकिन वह बहुमत से कुछ ही पीछे था। केंद्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ बैठी पार्टी/गठबंधन के लिए इतने मतों का इंतजाम करना मुश्किल नहीं था। इसलिए एनडीए उम्मीदवार की जीत शुरू से तय थी। इसके बावजूद पिछले कुछ सप्ताहों से विपक्षी दलों के बीच राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जिस तरह की सक्रियता और एकजुटता दिखाई दे रही थी और एनडीए के अंदर शिव सेना दांव-पेंच कर रही थी, उसके कारण ऐसा लगने लगा था कि राष्ट्रपति चुनाव एकतरफा नहीं होगा।
लेकिन यह सिर्फ खामख्याली साबित हुई। भाजपा ने जिस आत्मविश्वास के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की राजनीतिक-वैचारिक पृष्ठभूमि से आए दलित नेता और बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम का एलान किया और उसके बाद जिस तरह से एनडीए के अंदर ना-नुकुर कर रही शिव सेना से लेकर विपक्ष में बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस, एआईएडीएमके के दोनों धड़ों और यहां तक कि विपक्षी एकता के चैम्पियन बनकर उभर रहे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी-जनता दल (यू) ने भी कोविंद की उम्मीदवारी का समर्थन किया है, उसके बहुत गहरे और दूरगामी राजनीतिक-वैचारिक निहितार्थ हैं। पहली बात जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए, वह यह है कि रामनाथ कोविंद ऐसे पहले राष्ट्रपति होंगे जो न सिर्फ लंबे समय से भाजपा से जुड़े रहे हैं और उसकी ओर से राजनीति की है बल्कि वे संघ के निष्ठावान सदस्य के बतौर उसकी वैचारिकी और राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे अम्बेडकरवादी वैचारिकी/राजनीति से नहीं बल्कि संघ की वैचारिकी के साथ आगे बढ़े दलित नेता हैं। वे 1991 में भाजपा की सक्रिय राजनीति में आए जब भाजपा रामजन्मभूमि आंदोलन की अगुवाई कर रही थी और राजनीतिक रूप से अछूत मानी जाती थी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में उन्हें भाजपा/संघ की सामाजिक इंजीनियरिंग के तहत आगे बढ़ाया गया। इसी अर्थ में यह पहली बार हो रहा है कि देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर संघ सदस्य बैठने जा रहा है। यह सामान्य राजनीतिक घटना नहीं है।
इसका राजनीतिक महत्व इससे समझा जा सकता है कि संघ के साथ गहरे संबंधों के कारण जो भाजपा आज से दो दशक पहले तक राष्ट्रीय राजनीति में अछूत की तरह थी, जिसे केंद्र की सत्ता में आने के लिए कई राजनीतिक समझौते करने पड़े और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली पिछली एनडीए सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रपति पद के लिए एक राजनीति निरपेक्ष प्रत्याशी एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर समझौता करना पड़ा था, वह इस बार राष्ट्रपति पद के लिए एकतरफा संघ/भाजपा के एक निष्ठावान कार्यकर्ता/नेता का नाम प्रस्तावित कर रही है और गैर भाजपा क्षेत्रीय और कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में उसे समर्थन देने की होड़ लगी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के साथ-साथ संघ के निर्णायक उभार, बढ़ती मान्यता और वर्चस्व पर एक और मुहर है। इससे यह एक बार फिर साबित हुआ कि आजादी के 70 वर्षों बाद राष्ट्रीय राजनीति की केंद्रीय धुरी के बतौर भाजपा-संघ ने न सिर्फ कांग्रेस को बेदखल कर दिया है बल्कि 2014 के आम चुनावों में मिली ऐतिहासिक जीत को और मजबूत व संगठित (कंसॉलिडेट) किया है। आज राजनीतिक रूप से भाजपा लगभग उसी वर्चस्व की स्थिति में पहुंच गई है जिसमें लम्बे दौर तक कांग्रेस थी। आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस तरह से कांग्रेस के राजनीतिक वर्चस्व के दौर में गैर कांग्रेसवाद के इर्द-गिर्द विपक्षी राजनीति घूमती थी। उसी तरह आज राष्ट्रीय राजनीति में गैर भाजपावाद को धुरी बनाने की कोशिशें हो रही हैं।
वह सिर्फ उत्तर और पश्चिम भारत के कुछ राज्यों और एक छोटे सामाजिक आधार तक सीमित पार्टी नहीं है बल्कि उसका विस्तार उत्तर पूर्व के राज्यों से लेकर पूर्वी भारत के बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्यों और पश्चिम में महाराष्ट्र और दक्षिण में कर्नाटक के अलावा केरल, आंध्र, तेलंगाना और तमिलनाडु तक हुआ है। उसके मुकाबले कांग्रेस लगातार सिकुड़ती और कमजोर होती जा रही है। हालांकि यह एक दिन में नहीं हुआ है बल्कि लंबे समय से कांग्रेस एक राजनीतिक ढलान पर है। उसका न सिर्फ सामाजिक आधार छीजता और बिखरता जा रहा है बल्कि वह वैचारिक रूप से भी भ्रम में और रक्षात्मक दिखाई दे रही है। उसके मौजूदा और भविष्य के नेतृत्व के बारे में कुछ कहना बेकार है। ऐसा लगता है जैसे वह राजनीतिक हाराकिरी की प्रक्रिया में है।
कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा/संघ ने इस मौके का पूरा राजनीतिक फायदा उठाया है। भाजपा/संघ ने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा यूं ही नहीं दिया है। उन्हें मालूम है कि राजनीतिक रूप से कांग्रेस और वैचारिक रूप से उसके वाम और उदार आधार को राजनीतिक व वैचारिक रूप से खत्म किए बगैर राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर अपने राजनीतिक-वैचारिक वर्चस्व को टिकाऊ बनाना संभव नहीं होगा। यही कारण है कि 2014 के आम चुनावों में भारी जीत के बावजूद भाजपा/संघ और उसका नेतृत्व चैन से नहीं बैठा और लगातार चुनाव मोड में है। उसने छोटे से बड़े हर राज्य विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत झोंकी, खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक कमान संभाली और संघ ने जीतने में पूरा जोर लगाया। राष्ट्रपति चुनाव में एक दलित उम्मीदवार उतारकर भाजपा ने अपने सामाजिक आधार को फैलाने की कोशिश की है। नतीजा सामने है। कांग्रेस पस्त और दिशाहीन है, गैर कांग्रेस-गैर भाजपा पार्टियां भाजपा के राजनीतिक-प्रशासनिक हमलों से दबाव में और घिरी हुई हैं, उसके आगे घुटने टेक रही हैं और वाम पार्टियां हाशिये के भी हाशिये पर पहुंच गई हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से लगता है कि भाजपा/संघ के लिए 2019 के आम चुनाव बहुत आसान और मुट्ठी में आ गए हैं। राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी की आसान जीत इसी ओर इशारा करती है। हालांकि कहते हैं कि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है जिसमें चीजें उलट-पुलट जाती हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा/संघ ने जिस तरह से अपनी जीत को सुगठित करने और उसे स्थायित्व देने के लिए सांगठनिक-वैचारिक अभियान शुरू किया है, उसे देखते हुए उसके मौजूदा वर्चस्व को तोड़ना आसान नहीं दिखता है।
इसके लिए भाजपा/संघ ने केंद्र और कई राज्यों में सत्ता की कमान मिलने के बाद से राज्य के उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए वैचारिक वर्चस्व खासकर शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में कायम करने की कोशिश शुरू कर दी है। इसके तहत उच्च शिक्षा के केंद्रों और सांस्कृतिक संस्थाओं में संघ परिवार से जुड़े लोगों की नियुक्ति से लेकर पाठ्यक्रम में बदलाव, सेमिनारों-चर्चाओं-शोध के विषयों और वक्ताओं में संघ के एजेंडे से जुड़े मुद्दों और उनके बौद्धिकों के दबदबे के अलावा उदार और वाम को हाशिये पर डालने और उन्हें प्रताड़ित करने का अभियान जोरशोर से चल रहा है। शैक्षणिक परिसरों में विरोध की किसी भी आवाज को दबाने और वाम रुझान के बौद्धिकों और छात्र संगठनों को चुप करने के लिए एबीवीपी जैसे संगठनों के जरिये हिंसा और आतंक का सहारा लेने में भी हिचक नहीं है। इस वैचारिक वर्चस्व को कायम करने की जद्दोजहद का खतरनाक पहलू यह है कि देश में भाजपा/संघ की बहुसंख्यकवादी राजनीति और उसकी वैचारिकी को हिंदू समुदाय के एक अच्छे-खासे हिस्से का खुला और आक्रामक समर्थन मिल रहा है। यही नहीं, बहुसंख्यकवादी राजनीति/वैचारिकी के उभार के साथ देश में एक उग्र और आक्रामक हिंदू भीड़ खड़ी हो गई है जो गो-रक्षा और लव जिहाद रोकने के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम और दलितों को निशाना बना रही है। उसे भाजपा शासित राज्य सरकारों का मूक या कई मामलों में खुला समर्थन है। इसका सबसे चिंताजनक और भयावह पहलू यह है कि 2014 के बाद से और खासकर हाल के महीनों में जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के निर्दोष नागरिकों को खुलेआम पीट-पीटकर मार दिया जा रहा है, उसका भी हिंदू समुदाय का एक छोटा उग्र हिस्सा खुला समर्थन या बचाव कर रहा है और बड़े हिस्से में खामोश सहमति है।
असल में, भाजपा/संघ के राजनीतिक उभार और वर्चस्व की सबसे खास बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो जाने के बाद भी ‘अच्छे दिन’ दूर दिखाई दे रहे हैं, आर्थिकी की हालत कोई खास अच्छी नहीं है, रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं, किसानों को लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहा है और ‘मेक इन इंडिया’ से लेकर ‘स्किल इंडिया’ जैसे अनेक कार्यक्रम कागज पर ज्यादा हैं, इसके बावजूद मोदी सरकार की लोकप्रियता में कोई खास कमी नहीं आई है। मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री को और समय और मौके देने के लिए तैयार है। यहां तक कि नोटबंदी जैसे अतार्किक फैसले और उसे खराब तरीके से लागू करने को भी लोगों ने स्वीकार कर लिया।
यह एक ऐसी राजनीतिक सच्चाई है जिसे अनदेखा करना मुश्किल है। इसकी कई वजहें हैं। सबसे पहली बात यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक निर्णायक अनुदार-दक्षिणपंथी झुकाव आया है। इसने भाजपा/संघ की राजनीति को एक टिकाऊ जमीन दी है। दूसरे, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोगों से सीधे संवाद की संचार/पीआर रणनीति का फिलहाल कोई राजनीतिक जवाब नहीं है। वे 24७7 राजनेता हैं जिसके ‘नए भारत’ के कथानक (नैरेटिव) को मतदाताओं का बड़ा हिस्सा पसंद कर रहा है। तीसरे, लोगों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस को अब भी माफ करने के लिए तैयार नहीं है और वह खुद भी लोगों का भरोसा जीतने की गंभीर कोशिश करती नहीं दिख रही है। उलटे, भाजपा/संघ के वैचारिक/राजनीतिक हमले के आगे लड़खड़ाती नजर आ रही है। चौथे, विपक्ष में न सिर्फ एकजुटता नहीं है बल्कि वे एक समानांतर राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम और उसे एक आकर्षक कथानक (नैरेटिव) में पेश करने में नाकाम रहे हैं।
इससे ऐसा लगता है कि भाजपा/संघ ने राष्ट्रीय राजनीति में लगभग चुनौती-विहीन वर्चस्व कायम कर लिया है जिसकी ताजा मिसाल राष्ट्रपति चुनाव में उसके उम्मीदवार को मिला समर्थन है। लेकिन ऐसा नहीं है कि भाजपा/संघ के राजनीतिक वर्चस्व के किले में दरारें नहीं हैं। सच पूछिए तो भाजपा/संघ के ‘हिंदू ध्रुवीकरण’ के अंदर गहरे अंतर्विरोध हैं। उसके सामाजिक आधार की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह सामाजिक तौर पर ‘अतिरेकों का गठबंधन’ (कोलिशन आफ एक्सट्रीम्स) है जिसमें एक छोर पर संख्या में कम लेकिन दबदबे के लिए जानी-जानेवाली सवर्ण जातियां हैं और दूसरी ओर, संख्या में ज्यादा अति पिछड़े और अति दलित जातियां हैं। उनके बीच का टकराव भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है। आश्चर्य नहीं कि रोहित वेमुला से लेकर गुजरात के ऊना तक और अब सहारनपुर में जातिगत टकराव की खबरें भाजपा के सामाजिक आधार के भुरभुरेपन की ओर संकेत करती हैं।
क्या भाजपा/संघ राष्ट्रपति पद पर अपने प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को बैठाकर सामाजिक रूप से ‘अतिरेकों के गठबंधन’ को स्थायी और मजबूत कर पाएगा? यह आनेवाले महीनों में और साफ हो जाएगा।