संजय शेफर्ड।
बहुत दुखद है कि हमारी हमउम्र लड़कियां अभी भी पैंटी, बरा, सैनेटरी नैपकिन के बीच उलझी हुई हैं। देह से बाहर निकलो। यही तो वर्षों से होता रहा है, अक्सर पहले तुम्हें प्यार- दुलार, मान- मनुहार और शादी के नाम पर दैहिक रूप से गुलाम बनाया जाता है, फिर मानसिक तौर पर गुलाम। तुम्हें तुम्हारी आत्मा तक कभी पहुंचने ही नहीं दिया गया है। अभी भी तुम सब हारने के लिए लड़ाई लड़ रही हो, हार की लड़ाई जीत भी जाओगी तो भी तुम्हें क्या मिलेगा ? हार ही तो मिलेगी ! कभी तुमने इन लड़ाईयों की प्रासंगिकता के बारे में सोचा है कि कितनी सतही हैं यह ? कभी किसी पुरुष को तुम सबने चढ्ढी, बनियान के लिए लड़ते देखा है? या फिर किसी बाप को अपने बेटे के लिए यह कहते सुना है कि इस तरह से चढ्ढी बनियान में मत निकला करो, बाहर का माहौल अच्छा नहीं। उसे तो सड़क के किनारे खड़े होकर पेशाब करने तक में भी कोई असहजता नहीं महसूस होती। कभी गौर किया है ? सैकड़ों औरतों के बीच भी पुरुष चढ्ढी बनियान में कितना सहज है ! अपने ही घर में किसी बाहरी पुरुष के सामने अगर तुम्हारी थोड़ी सी जांघ या फिर कमर दिख गई तो ? सारी बात तुम्हारे शील- स्वभाव पर आ जाती है।
तुम जीतने के लिए क्यों नहीं लड़ती ? तुम सब अपने मन की क्यों नहीं करती हो ? बात पैंटी, बरा, सैनेटरी नैपकिन की है ही नहीं ! बात नियंत्रण की है। तुम्हें उलझाया जा रहा है। ताकि एक विशेष वर्ग का नियंत्रण बना रहे। और बात सिर्फ एक पुरुष की भी नहीं पूरे एक समाज की है। तुम्हारी लड़ाई सिर्फ एक पुरुष से नहीं पूरे समाज से है। और तुम हर बार अकेली निकलती हो ? और हर बार हार जाती हो ! इसके लिए तुम्हें संगठित होना होगा। जिस दिन तुम झुंड में निकलोगी ना देखना सब कुछ जीत कर लौटोगी। इसलिए पहले झुंड में निकलना शुरू करो, फिर अकेले निकलना। ऐसा कुछ दिन होगा तो हर गली, हर चाक- चौराहे पर तुम्हीं तुम नजर आयोगी। फिर अकेले और झुंड में निकलने का फर्क ख़त्म हो जायेगा। इसलिए पहले तुम सब घर से निकलना सीखो, इस बात से बेपरवाह रात है कि दिन ? अंधेरा है कि उजाला ? अच्छी जगह है या बुरी ? और संभव हो तो कुछ गालियां भी सीख लो, कुछ प्रोग्रेसिव महिलाओं को इसके लिए आगे आना चाहिए कि वह अपनी बेटियों को गाली देना सिखाएं।
तुम्हें भलिभांति मालूम है कि तुम्हें हर बात पर ऑब्जेक्टिफाइड किया जा रहा है। घर से लेकर बाहर के पब्लिक समारोहों तक ? रैंप से लेकर टीवी शो तक ? इससे तुम्हारा महत्व बढ़ता है, पर तुम ऑब्जेक्ट नहीं हो ! और ना ही प्रेम कोई जिद जिसके लिए किसी भी स्तर पर चला जाया जाये। तुम प्राकृतिक रूप से बहुत खूबसूरत हो ! तुम्हें तुम्हारी खूबसूरती पर पहले खुद गुमान होना चाहिए ना कि किसी और के कहे का ? तुम्हारी देह, तुम्हारा आलिंगन, तुम्हारी त्वचा, तुम्हारा स्पर्श सब कुछ पहले तुम्हारे लिए होना चाहिए फिर उसके लिए जिसे तुम चुनो, जो तुम्हें समझे, जिसे तुम्हारे प्रति सम्मान हो, जिसे तुम अधिकार देने के काबिल समझो, जो तुम्हारा सम्मान करेगा उसे तुम्हारा अर्द्धनग्न स्वरूप भी दैविक लगेगा, और अगर कभी तुम उसके सामने नग्न भी आओगी तो वह तुम्हें ढंक लेगा।
इस बात को पहले तुम खुद सुनिश्चित करो कि तुम्हारे नहीं का मतलब हर बार नहीं हो ! बात दिन के उजाले, रात के अंधेरे, भीड़ भरे स्थान या फिर किसी एकांत की नहीं। हर जगह, हर बार, नहीं का मतलब नहीं। और यह नहीं सिर्फ उस वक़्त के लिए नहीं हो जब तुम्हारा सबसे विश्वसनीय दोस्त किसी एकांत लम्हें में तुम्हारे देह के किसी हिस्से पर हाथ फेर रहा हो। यह ना उस समय भी उसी सख्त स्वर में सुनाई देना चाहिए जब तुम्हें घर से बाहर निकलने, बोर्डिंग स्कूल जाने, किसी लड़के को दोस्त बनाने, अपनी मर्जी का कैरियर चुनने, अपनी पसंद के लड़के से शादी करने से रोका जा रहा हो। यह तुम्हारा ना ‘बहुत ही स्पष्ट, बहुत ही लाऊड, बहुत सख्त ‘ होना चाहिए। पहले लोग तुम्हें कोसेंगे, फिर अड़ंगा लगाएंगे, फब्तियां कसेंगे, आवारा तक कहेंगे। फिर उनके कानों को तुम्हारे ना की आदत पड़ जाएगी।
जब हर जगह तुम नजर आओगी, हर जगह तुम्हारे हंसने की आवाज़ गूंजेगी तो छोटी- छोटी बच्चियां भी अंधेरे से अंधेरे वक़्त और स्थान पर खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी। उनमें डर की भावना नहीं आएगी तो सुरक्षा की भावना भी नहीं आएगी ? और भावना भी नहीं आएगी तो वह भी तुम्हारी तरह से बेधड़क, बेपरवाह, अर्धनग्न, बिना कपड़े के उस पूरी मानसिकता को ढंक लेंगी जो एक स्त्री को महज देह और कामुकता के आलावा ज्यादा कुछ नहीं समझ पाया है, पर इन सबके लिए तुम्हें उस प्रयोजित सच से बचना होगा जो झूठ से कहीं ज्यादा खतरनाक है। फिर वह चाहे हैप्पी टू ब्लीड जैसा कोई कैम्पेन हो ? या फिर नेचुरल सेल्फी ? या फिर पिंजड़ा तोड़ ? यह सब तो तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में है, यहां तुम्हें लड़ना नहीं है ! बस खड़ा होना है। तुम्हारा किया तभी सार्थक होगा जब तुम इस बात को सुनिश्चित कर सको कि आने वाली पीढ़ी को ऐसे किसी मोमेंट की जरुरत नहीं पड़ेगी।
इसका मतलब यह नहीं कि लड़ो नहीं, लड़ना तो जिन्दगी का दूसरा नाम है या यूं कहो सबसे जरुरी सिद्धांत है, पर तुम्हारी लड़ाईयां बड़ी और अपनी होनी चाहिए, ताकि छोटी और गैरजरूरी चीजें अनायास ही अपना महत्व खो दें।
( लेखक किताबनामा के निर्देशक और संस्थापक हैं)