गुलाम चिश्ती
वर्ष 2018 में पूर्वोत्तर के चार राज्यों त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। त्रिपुरा और मेघालय में भाजपा विशेष रुचि ले रही है। इसी कड़ी में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 28 सितंबर को मेघालय के दौरे पर आ रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्टूबर में त्रिपुरा में जनसभा करने वाले हैं। इन राज्यों में मेघालय, नगालैंड और मिजोरम ईसाई बहुल राज्य हैं। मेघालय और मिजोरम में कांग्रेस की सरकार है तो नगालैंड में नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) की सहयोगी पार्टी नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) की सरकार है। त्रिपुरा में वाम सरकार है।
राजनीतिक जानकार देवाशीष भट्टाचार्य का कहना है, ‘पूर्वोत्तर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा ने नवनियुक्त केंद्रीय मंत्री अलफोंस कन्नथनम को मेघालय का चुनाव प्रभारी बनाया है जो ईसाई समुदाय से हैं। पूर्व नौकरशाह रहे कन्नथनम ईसाई मतदाताओं को लुभाने में कितना सफल होंगे यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन उनको मेघालय का प्रभारी बनाए जाने से स्पष्ट हो गया है कि भाजपा खुद को ईसाई समुदाय से दूर रखना नहीं चाहती।’ मेघालय के स्वतंत्र पत्रकार सी. मारक का कहना है, ‘भाजपा महज चुनाव जीतने के लिए बीफ के मामले में दोहरा मापदंड अपना रही है। वह बीफ को लेकर उत्तर भारत में काफी सख्त दिखती है तो पूर्वोत्तर में उसकी स्थिति अलग है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित कई बड़े नेता बार-बार कह चुके हैं कि पूर्वोत्तर में वे बीफ पर पाबंदी लगाने के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे में इन राज्यों के ईसाई मतदाताओं को लुभाने के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों की ओर से अपने-अपने स्तर पर प्रयास शुरू हो गए हैं।’
भाजपा की ओर से उपरोक्त तीनों राज्यों में बड़े स्तर पर ईसाई समुदाय के लोगों को शामिल किया जा रहा है ताकि इस समुदाय का मानसिक रूप से भाजपा के साथ जो दुराव है उसे दूर किया जा सके। मेघालय भाजपा की कार्यकारिणी में इस समुदाय के कई लोगों को बड़े पद दिए गए हैं। ऐसे में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भाजपा में शामिल होने का मन बना रहे हैं। राज्य में भाजपा की बेहतर संभावनाओं को देखते हुए नेडा के संयोजक डॉ. हिमंत विश्वशर्मा ने ऐलान कर दिया है कि मेघालय में भाजपा अपने बलबूते पर चुनाव लड़ेगी और चुनाव जीतकर सरकार भी बनाएगी जबकि पी. संगमा की पार्टी एनपीपी भी नेडा में शामिल है। हिमंत ने चुनाव से पहले एनपीपी या किसी भी अन्य दल से किसी भी तरह के चुनावी समझौते को नकार दिया है। दूसरी ओर कांग्रेस का नगालैंड को छोड़ मेघालय और मिजोरम के ईसाई समुदाय के मतदाताओं पर शुरू से ही असर रहा है। इन राज्यों में भाजपा की स्थिति पहले अच्छी नहीं थी मगर इसमें धीरे-धीरे सुधार देखा जा रहा है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले ईसाई मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की ओर शुरू से रहा है मगर असम और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में इस समुदाय का कांग्रेस के प्रति मोह भंग होता दिखा।
असम के दो पहाड़ी जिलों कार्बी आंग्लांग और डिमा हसाउ जिले के विधानसभा क्षेत्रों से भाजपा उम्मीदवारों की जीत इसके साक्षात प्रमाण हैं। कार्बी आंग्लांग स्वायत्तशासी परिषद (काक) के चुनाव में भाजपा की भारी जीत ने उपरोक्त बातों पर मुहर लगा दी है। दूसरी ओर मणिपुर के विधानसभा चुनाव में ईसाई समुदाय के लोग कांग्रेस से पूरी तरह बिदके नजर आए। उन्होंने इस बार अपना वोट एनपीएफ और एनपीपी को दिए। इसका परिणाम यह रहा कि कांग्रेस राज्य की सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी सरकार बनाने में विफल रही। मेघालय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष शिबू लिंग्दोह का मानना है कि इस बार भाजपा राज्य में अपनी सरकार बनाने में सफल होगी। राज्य की मुकुल संगमा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर चल रही है। स्थानीय गारो समुदाय का भी कांग्रेस को पूरा समर्थन नहीं मिल रहा है। बता दें कि संगमा गारो समुदाय से हैं जिनकी राज्य में बहुलता है। हाल ही में दो विधायकों ने भाजपा में शामिल होकर जता दिया कि आने वाला समय भाजपा का है। इसलिए वे पाला बदलकर भाजपा में जा रहे हैं। मेघालय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर ओपिनियन पोस्ट बताया कि सत्ताधारी कांग्रेस के कई बड़े नेता नेडा संयोजक डॉ. हिमंत विश्वशर्मा के संपर्क में हैं। वे चुनाव से कुछ महीने पहले भाजपा का दामन थाम सकते हैं। ऐसे नेताओं में पूर्व मुख्यमंत्री स्तर के नेता भी हो सकते हैं। बावजूद इसके कांग्रेस की ओर से मेघालय और मिजोरम में अपनी पार्टी को वापस सत्ता में लाने के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। पार्टी कीइस नरमी से मेघालय प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में आक्रोश है। उनका मानना है कि पार्टी आलाकमान की ओर से आपसी दांवपेंच को दूर करने के लिए किसी भी तरह का प्रयास नहीं हो रहा है। पूर्वोत्तर के चुनावों को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और इस परिवार से जुड़े संगठनों ने ईसाइयों और उनके संबंधित संगठनों के खिलाफ बयानबाजी करना लगभग बंद कर दिया है।
दूसरी ओर त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की सरकार है। पार्टी ने एक बार फिर माणिक सरकार में विश्वास व्यक्त किया है। वैसे भी, वहां पार्टी को माणिक के सिवाय और किसी के नाम पर वोट नहीं मिल सकता। उन्हें इस बार चुनाव में भाजपा से कड़ी टक्कर मिलेगी। त्रिपुरा के एक भाजपा कार्यकर्ता अनुराग सेनगुप्ता का मानना है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में माकपा की हार तय है। राज्य में भाजपा के पक्ष में हवा बह रही है जो माणिक सरकार के 24 वर्ष के शासन को उड़ाकर बाहर कर सकती है। भाजपा की रणनीति है कि त्रिपुरा चुनाव में केंद्रीय मंत्रियों को भी शामिल किया जाएगा और उनकी जिम्मेदारी राज्य के लोगों को केंद्र सरकार की ओर से चलाई जा रही योजनाओं के बारे में शिक्षित करना और राज्य सरकार द्वारा उनके क्रियान्वयन में खामियां बताना होगी।
भाजपा के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर ओपिनियन पोस्ट को बताया कि पार्टी प्रदेश संगठन में सुधार करने की भी कोशिश में है। त्रिपुरा में सत्ता विरोधी लहर और अपनी स्वीकार्यता बढ़ती देख भाजपा इसे एक बेहतर अवसर मान रही है। निकाय चुनावों में भाजपा कई स्थानों पर दूसरे स्थान पर रही थी। बांग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिकता देने संबंधी संशोधन बिल के मद्देनजर राज्य का एक तबका यहां भाजपा को मजबूत करने में लगा हुआ है। भाजपा नेता शांतनु सरकार का दावा है कि राज्य में पार्टी का जनाधार बढ़ रहा है। इस बात का अंदाजा पार्टी की सदस्यता से लगाया जा सकता है। साल 2014 के 15 हजार से बढ़कर इस साल पार्टी सदस्यों की संख्या दो लाख से अधिक हो गई है। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं को पीएम की अक्टूबर में होने वाली संभावित रैली से काफी उम्मीद है। समझा जाता है कि यह रैली त्रिपुरा में भाजपा के पक्ष में लहर बनाने में कारगर साबित होगी। फिलहाल चुनाव में छह महीने से ज्यादा का समय बाकी है। ऐसे में वास्तविकता अभी भविष्य के गर्भ में है।