अयोध्या।
आज से 25 साल पहले 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे के रूप में मौजूद बाबरी मस्जिद को कुछ कारसेवकों ने गिरा दिया था। उसका मुकदमा आज भी लंबित है। इस मौके को विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने शौर्य दिवस यानी विजय दिवस के तौर पर मनाने का फैसला किया है तो मुस्लिम संगठनों ने इस दिन यौम-ए-गम यानी दुख के दिन के तौर पर मनाने का एलान किया है। ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका से बचने के लिए केंद्र सरकार की एडवाइज़री के बाद अयोध्या और फैजाबाद में कड़ी सुरक्षा की गई है।
पुलिस के साथ-साथ संवेदनशील इलाकों में सीआरपीएफ और आरएएफ की भी तैनाती की गई है। गाड़ियों, होटलों की तलाशी ली जा रही है। लेकिन समय वह मरहम है, जो बड़े से बड़े घाव को भर देता है। विवादित ढांचा ध्वंस से उपजा जख्म भी इसका अपवाद नहीं है।
ध्वंस से उपजा तकरार-तनाव भी विसर्जित हुआ है। मंदिर-मस्जिद का आग्रह अपने-अपने खेमे में लौट चुका है और विवाद की बुनियाद पर संवाद के साज सजाए जा रहे हैं। अयोध्या मुस्लिम वेलफेयर सोसायटी के अध्यक्ष सादिक अली बाबू भाई कहते हैं, पुरानी बातें भूलकर मसले का सर्वमान्य हल ढूंढना पड़ेगा।
सौभाग्य से इस दिशा में पहल भी हो रही है। हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा यहां के लोगों की आपसी समझ और भाईचारा है और इसी का परिणाम है कि अयोध्या शुरू से ही कटुता-कड़वाहट से अछूती रही है। सच्चाई यह है कि वे बाहर के लोग थे, जिन्होंने सौहार्द पर प्रहार का दुस्साहस किया।
सेवानिवृत्त चिकित्साधिकारी एवं बौद्ध दर्शन के अध्येता डॉ. रमापति भास्कर मंदिर-मस्जिद विवाद की बुनियाद को सत्संकल्प के अवसर की तरह देखते हैं। वे कहते हैं, बड़ी से बड़ी चूक इसलिए होती है कि वहां से हम बेहतरी की शुरुआत कर सकें।
निर्मोही अखाड़ा के पंच के तौर पर दशकों तक अदालत में राम मंदिर की पैरवी करते रहे नाका हनुमानगढ़ी के महंत रामदास कहते हैं-अगर बाबर ने राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़ा था, तो उसका परिमार्जन होना चाहिए, पर इसका यह मतलब नहीं कि हम विध्वंस का जवाब विध्वंस से देते रहें। ज्योतिष गुरु एवं विवादित स्थल से कुछ ही फासले पर स्थित शनिधाम के संचालक स्वामी हरिदयाल कहते हैं, दुनिया में किसी भी विवाद का अंत संवाद से ही संभव है।
भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के आदेश पर 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था। पुजारियों से हिन्दू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा था। महंत रामचंद्र दास परमहंस भगवान राम की पूजा करने की इजाजत के लिए न्यायालय पहुंचे थे। उस समय मस्जिद को ‘ढांचा’ नाम दिया गया था। बाबरी मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर करीब 50 हिंदुओं ने कथित तौर पर रामलला की मूर्ति रख दी थी, जिसके बाद यहां उनकी पूजा अर्चना शुरू हो गई और यहां मुसलमानों ने नमाज पढ़ना बंद कर दिया।