सत्यदेव त्रिपाठी
नाम तो उसका सोना है, पर बनारस शहर के मशहूर डीएलडब्ल्यू इलाके में स्थित ‘गोकुल नगर’ नामक हमारी पूरी कॉलोनी अपनी भोजपुरी की भाषिक अदा में उसे सोनवां ही कहती है। और सोनवां का इस कॉलोनी में आना मौसम की तरह नहीं, अदरी-बदरी में ही गैरहाजिर होने वाले सुरुज-चनरमा की तरह होता है- बस, एक दिन का आंतर (गैप) देकर। करती तो है वह भाजी की फेरी यानी टोकरी में भाजी सिर पर लिये फिर-फिर (चल-चल) कर और फिर-फिर आ-आ कर बेचती है भाजी, पर लोग खरीदते हैं ‘अपनी सोनवां की भाजी’।
सामने वाली ठकुराइन दादी उसकी भाजी के महंगेपन पर बड़बड़ खूब करती हैं, पर लेती उसी से हैं और उसके कहे दाम पर ही। उसके जाने पर कहती हैं- लेना तो है ही भैयाजी, नहीं तो बिचारी कहां जायेगी बेचने। हमारे बगल वाले सिंह साहेब भी दिखावे के लिए खूब ठकठेना करते हैं, आदतन दो-एक रुपया कम भी कर देते हैं… पर सोनवां भी अपने हानि-लाभ के साथ सबको सबकी तरह समझ चुकी है और संभाल भी लेती है- ‘समझ हरेक राज को, मगर फरेब खाये जा’ का खांटी प्रैक्टिकल रूप।
जब आज मैं 5 नवम्बर को मुम्बई वाले घर में बैठा यह लिख रहा हूं, फेरी के धन्धे की बन्दी को लेकर नाना पाटेकर के मानवीय प्रतिकार और उन पर शिवसेना की लताड़ से अखबार पटे हैं, जिसका न सोनवां को पता होगा, न हमारी कॉलोनी पर कोई असर।
मैं तो इस कॉलोनी में आठ साल पहले ही आया, बल्कि स्थायी रूप से रहते अभी डेढ़ साल ही हुआ है, पर सोनवां को देखकर लगता है कि वह शायद अनंत काल से- जब से पैदा हुई, तभी से यहां इसी तरह आती होगी… लेकिन हकीकत यह है कि अपनी शादी के कुछ सालों बाद उसने यह धन्धा उठाया है। बुटकी भर की है यह सोनवां, पर उसका आना ऐसा नियमित है कि खांची सिर पे लिये दूर दिखती छाया से भी सोनवां का मुजाहिरा हो जाता है। नजदीक होते-होते जब गेट के अन्दर आ जाती है, तब दिखते हैं उसके बालों व भौंहों के बीच सिमटे नन्हें-से ललाट पर खिंचते मेहनत के कई-कई बल। खांची उतारते हुए ऊपर के होठों के टेढ़े होकर उठ जाने से मालूम पड़ता है भार का भारीपन। फिर वह खांची सामने रखकर बैठ जाती है। एक हाथ से ऊपर ढंका कपड़ा हटाती है, तराजू-बटखरा निकालते व भाजियां दिखाते हुए उनकी अच्छाइयों को बताने व फिर भाजी तौलने लगती है, तो दूसरा हाथ उतनी ही तत्परता से बार-बार आंचल संभालने में लगा रहता है कि कहीं सिर न खुल जाए और कहीं कानों तक मुंह दिख न जाए। ऐसी सोनवां कभी सहानुभूति या दया की पात्र रही होगी, पर आज वो हमारी जरूरत ही नहीं, स्नेह व अनिवार्यता हो गयी है।
सबकी तरह मेरी बानि का भी उसे अब पता चल गया होगा कि दाम मैं उसका कहा ही दूंगा, पर मोल-तोल की बोलौनी जरूर करूंगा, किंतु उसे यह नहीं मालूम कि इसी बोलौनी के दौरान धन्धे की बढ़ती कठिनाइयों के उसके संजीदा बयानों में ही नुमायां होती हैं उसकी मटकती नन्हीं तीखी आंखों में समायी अनंत हसरतों और अकूत पस्ती की दास्तानें।
सामाजिक प्रथा के तहत बचपन में ही शादी हुई और उसी तरह जल्दी-जल्दी दो (ही) बच्चे भी हुए। आठ-दस बिस्वे (एकड़ का लगभग चौथाई) की मामूली खेती से घर-बार न चलेगा और ऊपर से पति की पीने आदि की लतें (जिनका जिक्र वह अब एकदम करना नहीं चाहती) की समझ ने ही उसे खुद कुछ करने का आइडिया दिया और भाजी बेचने जैसा शाकाहारी धन्धा शुरू हुआ। अपने घर के आसपास फेरी का धन्धा न करने की लोक-लाज के चलते ही वह अपने गांव कछवां से लगभग बीस किलोमीटर दूर हमारे इलाके में आयी होगी। सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम निपटा कर वह ट्रेन पकड़ती है। मण्डी से भाजी खरीदती है। दिन भर घर-घर फेरी करके बेचती है। थोÞी ही दूर पर स्थित किसी पितिआउत (चचेरे) भाई-भाभी, जिनके चलते ही शायद इसने यह इलाका चुना भी हो, के घर खांची रखती है और ट्रेन से शाम सात-आठ बजे तक पहुंचकर फिर घर का सारा काम करती है।
इसी जीतोड़ मेहनत से सोनवां परिवार के गुजारे के साथ बेटी की शादी भी कर चुकी है- गोकि शादी का कर्ज अभी तक चुका रही है। अब जल्दी ही बेटे की शादी का मंसूबा भी बना रही है। बेटा अब गैरेज में दुपहिया की मरम्मत का काम सीखने लगा है, जिससे सोनवां काफी उत्साहित दिखती है। पता लगता है कि अब पति भी काफी सुधर गया है।
जीवन के बने-बनाये जिस चौखटे ने नारी को अबला की संज्ञा दी, जिसे तोड़ने की जरूरत का न सोनवां को पता है, न वह तोड़ सकती, जिसे लेकर बुद्धिजीवी समुदाय के हम लोग स्त्री-विमर्श के पन्ने रंगते व सेमिनारों में बोलते थकते नहीं, बल्कि करोड़ों के बजट लुटा देते हैं, उसी चौखटे में रहकर सोनवां ने अपना सबला होना सिद्ध कर दिया है। और यही हालात व ऐसा ही योगदान हमारे उस वर्ग के लगभग पूरे बहुजन समाज का है।
खुदा करे, सोनवां के अच्छे दिन फिरें… फेरी की यह हाड़-तोड़ मेहनत बन्द हो, तो कॉलोनी में उसके न आने से छा जाने वाली उदासी और गम को सहने के लिए हम सहर्ष तैयार हैं।