बनवारी
नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के बाद हमारे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जो कल्पनाशीलता और गतिशीलता दिखाई दी है उसका ताजा नमूना गणतंत्र दिवस की परेड में आसियान के दस देशों के शिखर नेताओं की उपस्थिति है। यह हमारी साधारण राजनयिक उपलब्धि नहीं है। आसियान हमारे दक्षिण-पूर्व में बसे दस महत्वपूर्ण देशों का संगठन है। इन सभी देशों से हमारे बहुत पुराने सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। आसियान से जुड़े छह देशों में आज भी बौद्ध धर्म को मानने वालों की ही प्रधानता है। बाकी चार देशों में फिलीपीन मुख्यत: ईसाई और इंडोनेशिया, मलेशिया व ब्रूनेई में बहुसंख्या इस्लाम को मानने वालों की है। इस धार्मिक भिन्नता के बावजूद सभी दस देशों ने आसियान को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में विकसित करने में काफी एकता और परिपक्वता दिखाई है।
चीन के एक नई और आक्रामक विश्व शक्ति के रूप में उदय ने हमारे लिए आसियान देशों का महत्व और अधिक बढ़ा दिया है। वे संसार के सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक समुद्री मार्ग के दोनों ओर बसे हुए हैं। जबसे दक्षिण चीन सागर का विवाद आरंभ हुआ है, इन व्यापारिक मार्गों को सर्वसुलभ बनाए रखने पर अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा है। आसियान के देश पहले भी चीन का दबाव अनुभव करते रहे हैं। उसका एक विश्व शक्ति के रूप में उभार भले नया हो पर वह एक पुरानी सभ्यता है और एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में वह इस पूरे क्षेत्र में अपने प्रभाव के विस्तार की कोशिश करता रहा है। उसे संतुलित करने के लिए भी आसियान देशों ने भारत की ओर देखना आरंभ किया था।
आसियान से भारत के संबंधों की औपचारिक शुरुआत 1991 में हुई थी। उसके कोई पांच वर्ष बाद 1996 में भारत को आसियान की संवाद प्रक्रिया का पूर्ण सहयोगी सदस्य बना लिया गया। उसके भी छह वर्ष बाद यह तय हुआ कि भारत और आसियान शिखर सम्मेलनों द्वारा परस्पर सहयोग की प्रगति की नियमित समीक्षा करते रहेंगे। 2012 में भारत और आसियान एक-दूसरे के रणनीतिक सहयोगी बन गए। भारत और आसियान के बीच निर्बाध व्यापार का समझौता हो चुका है। भारत और आसियान देशों के बीच संबंधों की प्रगाढ़ता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बीच प्रति वर्ष कोई तीस सांस्थानिक संवाद आयोजित होते हैं।
भारत और आसियान देशों में विश्व की कोई एक चैथाई आबादी रहती है। आसियान देशों का कुल भौगोलिक क्षेत्र अधिक नहीं है लेकिन उसकी आबादी कम नहीं है। उसके पास विश्व का केवल तीन प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र है। वह यूरोप के भौगोलिक क्षेत्र से आधे से भी कम है। लेकिन आसियान देशों की जनसंख्या यूरोपीय संघ के 28 देशों की जनसंख्या से अधिक है। यूरोपीय संघ के देशों में 51 करोड़ आबादी ही है जबकि आसियान के दस देशों में 64 करोड़ लोग रहते हैं। आसियान देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर ही है। भारत और आसियान देशों के बीच राजनयिक संबंधों की गतिशीलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार के गठन से लेकर अब तक आसियान के दस में से नौ देशों में भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री में से किसी एक की यात्रा हो चुकी है।
इस बीच चीन ने भी आसियान देशों के साथ अपने संबंध बढ़ाए हैं। आसियान देशों के साथ चीन का व्यापार तेजी से बढ़ा है। दोनों के बीच का व्यापार 2005 से 2014 के बीच के दस वर्षों में लगभग तीन गुना हो गया है। इस अवधि में आसियान का कुल व्यापार दोगुना ही बढ़ा है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आसियान के कुल व्यापार में चीन का हिस्सा बढ़ता ही जा रहा है। 2014 में ही वह 380 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था। इसमें आसियान देशों द्वारा चीन को किया गया निर्यात 163 अरब डॉलर के बराबर था। चीन से आसियान देशों को किया गया निर्यात 217 अरब डॉलर के आसपास था। चीन और आसियान देशों के इस व्यापार में व्यापार सतुुंलन चीन के ही पक्ष में है और इसे लेकर आसियान देशों में कुछ चिंता प्रकट की जाती रहती है। भारत इस मामले में चीन से बहुत पीछे है। आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार चीन से बहुत कम है। लेकिन व्यापार को लेकर भारत और चीन की तुलना इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था विदेश व्यापार पर केंद्रित नहीं है। आसियान देशों के साथ हमारे संबंधों का आधार अलग है।
चीन ऐतिहासिक रूप से एक आत्मकेंद्रित सभ्यता रहा है। उसने यह मान रखा था कि वह एक मध्यवर्ती राज्य है। देवलोक और चतुर्दिक बर्बर क्षेत्रों के बीच वह एक अकेली सभ्यता है और उसे अपने बाहर देखने और बाहरी देशों से व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है। इसका एकमात्र अपवाद वह भारत को मानता था। भगवान बुद्ध की भूमि होने के कारण उसने भारत को एक पश्चिमवर्ती दिव्य देश की संज्ञा दे रखी थी। पिछले दो हजार वर्ष में भारत और उसके बीच विद्वानों का आदान-प्रदान होता रहा है। चीन ने भारत की शास्त्रीय परंपरा को समझने के लिए अनेकों विद्वान यहां भेजे। वे बौद्ध दर्शन से संबंधित ग्रंथ तो यहां से लेकर गए ही, भारत की अन्य दार्शनिक प्रणालियों में भी उन्होंने गहरी रूचि ली और चीन में भारतीय ज्ञान का भारत के बाहर सबसे बड़ा भंडार हो गया। इस अपवाद को छोड़ दें तो चीन अपने आपको अलग-थलग ही रखे रहा। अठारहवीं शताब्दी में जब यूरोप उसे घेरने में सफल हो गया तब उसे पहली बार यह अनुभव हुआ कि दुनिया की उपेक्षा करके उसने अपने आपको कमजोर ही किया है।
इसकी प्रतिक्रिया में अब चीन निरंतर बहिर्मुखी होता रहा है। उसे लगता है कि यूरोपीय समृद्धि का आधार उसका विश्व की एक बड़ी व्यापारिक शक्ति के रूप में उभरना ही है। यूरोपीय लोगों की नकल पर चीन भी अब विश्व की एक बड़ी व्यापारिक शक्ति होने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए उसने अपनी अर्थव्यवस्था को भी वैसा ही मोड़ दे दिया है। उसने अपने यहां विशेष आर्थिक क्षेत्रों का गठन करके विदेश व्यापार के लिए वस्तुएं पैदा करना शुरू किया और अपने उत्पादन की कीमतें कम रखकर उसने अपनी वस्तुओं से दुनियाभर के बाजारों को पाटना शुरू कर दिया। इससे बाकी देशों के उद्योग धंधे चैपट हुए। आज उसकी प्रतिक्रिया चीन को झेलनी पड़ रही है। यूरोप और अमेरिका भी अपने बाजारों में चीनी माल खपाने की रणनीति से सतर्क हुए हैं। आसियान के देशों ने भी काफी पहले यह अनुभव करना आरंभ कर दिया था। लेकिन उत्पादन लागत के मामले में वे काफी प्रतिस्पर्धी साबित हुए और अपने नुकसान को बचा ले गए। भारत के साथ उनका ऐसा कोई कटु अनुभव नहीं है।
चीन विश्व की एक बड़ी व्यापारिक शक्ति के रूप में उभर जरूर आया है, उसके विशाल आर्थिक साधनों के कारण उसकी उपेक्षा करना आसान नहीं है लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों का कोई अनुभव नहीं है। इसलिए वह अपने व्यापार के अनुपात में अपनी स्वीकार्यता नहीं बढ़ा पाता। अपने तौर-तरीकों से वह आशंकाएं अधिक पैदा कर रहा है। भारत ने अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को केवल आर्थिक आधार पर विकसित करने की कोशिश नहीं की। आसियान देशों के साथ उसके संबंधों का आधार हमेशा बहुआयामी रहा है। आसियान के देशों के साथ उसके संबंधों का आधार सामरिक सुरक्षा, आर्थिक सहभागिता और सांस्कृतिक एकता है। भारत के लिए यह अच्छी बात है कि आसियान का गठन भी केवल आर्थिक सहयोग के लिए नहीं हुआ था। आसियान देशों को लगता था कि वे एक व्यस्त और महत्वपूर्ण व्यापारिक समुद्र मार्ग पर स्थित हैं। उसकी सुरक्षा की सबको चिंता होनी चाहिए। आसियान देशों में से कोई अकेले उसकी सुरक्षा नहीं कर सकता लेकिन सब मिलकर कर सकते हैं। आसियान के देश अपने आपको यूरोपीय संघ की तरह का एक संगठित आर्थिक क्षेत्र भी बनाना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि उनका आंतरिक व्यापार उनकी अपनी एशियाई मुद्रा में हो और वे एक बड़े बाजार के रूप में उभर आएं।
अभी इस लक्ष्य को पाने में अनेक बाधाएं हैं। आसियान देशों के विकास का स्तर एक जैसा नहीं है। उनके बीच का व्यापार भी धीमी गति से ही बढ़ पा रहा है। आसियान देशों के कुल व्यापार का अस्सी प्रतिशत आसियान के बाहर के देशों से होता है। उनका आपसी व्यापार उनके कुल व्यापार का बीस प्रतिशत ही है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने क्षेत्र को एक राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान देना चाहते हैं। इस लक्ष्य को पाने की दिशा में वे भारत से ही बेहतर सहयोग की अपेक्षा कर सकते हैं, चीन से नहीं।
भारत में देर से ही सही लेकिन अब एक बड़ी सामरिक शक्ति बनने की आकांक्षा पैदा हुई है। भारत अपना एक बड़ा रक्षा उद्योग खड़ा करना चाहता है। शरुआती दौर में उसे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है लेकिन अगले कुछ वर्षों में उन पर काबू पा लिया जाएगा। अगले एक दशक में भारत को एक विश्वसनीय रक्षा उद्योग विकसित करने में सफलता मिलनी चाहिए। किसी भी देश का रक्षा उद्योग केवल अपनी आंतरिक मांग पर टिका नहीं रह सकता। उसे टिके रहने के लिए बाहरी बाजार की भी आवश्यकता होती है। भारत आसियान देशों को अपने रक्षा उद्योग के एक उपयोगी बाजार के रूप में देख सकता है। भारत आसियान देशों की जरूरतों को समझकर उनके लिए अधिक सस्ती और अधिक उपयोगी युद्ध सामग्री बना सकता है।
नौवहन के क्षेत्र में हमारे और आसियान देशों के बीच अधिक सहयोग की अपेक्षा है। इस क्षेत्र में हमें अपने आपको चीन का अधिक बेहतर प्रतियोगी बन कर दिखाना होगा। अभी बंदरगाहों और हवाई अड्डों आदि के निर्माण में चीनी कंपनियों की दक्षता हमसे अधिक है। आधारभूत संरचना के इस क्षेत्र में हमें अपनी कुशलता और पहुंच बढ़ानी होगी। हमने जिस तरह खनिज तेल के क्षेत्र में अपनी दक्षता सिद्ध की है, उसी तरह हमें ढांचागत निर्माण के क्षेत्र में अपनी कुशलता बढ़ानी होगी। चाबहार बंदरगाह का विकास करके हमने इस दिशा में कुछ प्रतिष्ठा अर्जित की है। इस दिशा में हमें अपने उन प्रवासी भारतीयों की भी मदद लेनी चाहिए जो उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में नाम कमा पाए हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भारत के दक्षिण भारतीय व्यापारिक घरानों ने काफी धन और प्रतिष्ठा अर्जित की है। उन्हें इस दिशा में प्रेरित किया जाना चाहिए।
भारत और आसियान के बीच औपचारिक संबंधों की शुरुआत हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। इस अवसर को रेखांकित करने के लिए हमने दिल्ली में 25 जनवरी से एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया। इस तरह के औपचारिक आयोजनों के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं। हमें इस पूरे क्षेत्र में अपनी उपस्थिति भी बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। अभी तक आम भारतीय पश्चिम की ओर ही गतिशील रहे हैं। भारत के पूर्व में भी लगभग चार अरब लोग रहते हैं। इस क्षेत्र में भी हमें अपनी गतिशीलता बढ़ानी चाहिए। हमारे पूर्व का यह संसार हमारा अधिक आत्मीय संसार है।
आसियान के देशों में वियतनाम से हम अपने संबंध आगे बढ़ाने में काफी सफल हुए हैं। हमारे रणनीतिक क्षेत्रों में यह कहा जाने लगा है कि वियतनाम का हमारे लिए वही महत्व है जो चीन के लिए पाकिस्तान का है। वियतनाम की सीमाएं चीन से मिलती हैं और पिछले काफी समय से दोनों के बीच संबंधों में उतार-चढ़ाव होता रहा है। दक्षिण चीन सागर को लेकर दोनों के बीच काफी तनातनी रही है। वियतनाम ने भारत को अपने सामुद्रिक क्षेत्रों में खनिज तेल की खोज के जो अधिकार दिए हैं उन्हें लेकर चीन आपत्ति करता रहा है। यह सही है कि वियतनाम हमारा उतनी दूर तक साथ नहीं दे सकता जितनी दूर तक पाकिस्तान चीन का साथ दे सकता है। फिर भी वियतनाम की हमारे लिए रणनीतिक उपयोगिता है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में तो उनके प्रधानमंत्री आमंत्रित थे ही, उसके ठीक बाद उनके राष्ट्रपति की अगवानी करके हमने यह स्पष्ट कर दिया कि वियतनाम से हमारे संबंध अब तेज रफ्तार पकड़ने लगे हैं।