आलोक पुराणिक
बजट के बाद क्या सस्ता क्या महंगा, ऐसे सवालों के हिसाब से विश्लेषण का दौर खत्म हो गया है। गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू होने के बाद जीएसटी काउंसिल के पास अधिकांश आइटम सस्ता और महंगा करने का हक है। यह काउंसिल जब चाहे सामान सस्ता महंगा कर देती है। अब बजट से कुछ भी सस्ता महंगा तब होता है जब उस सामान का ताल्लुक आयात शुल्क से हो। आयात शुल्क जीएसटी के दायरे में नहीं है। यह केंद्रीय बजट से तय होता है। इसलिए ऐसे कई आइटम बजट के बाद पहली अप्रैल से महंगे हो जाएंगे जिन पर आयात शुल्क लगता है। इनमें टीवी, मोबाइल, लैपटॉप सहित कई दर्जन आइटम शामिल हैं।
बजट पर अगर शेयर बाजार दुखी हो, कॉरपोरेट सेक्टर के लोगों की ठंडी प्रतिक्रियाएं हों तो समझ लेना चाहिए कि बजट कॉरपोरेट मित्र नहीं है। बजट पर सरकार कम से कम इस आरोप से बच जाएगी कि यह सूटबूट वालों का बजट है। बीता साल आसान नहीं था। जीएसटी से जुड़ी अनिश्चितताएं रहीं। सरकार के पास सिर्फ ग्यारह महीने का टैक्स संग्रह है। इसी के आधार पर पूरे साल के खर्च निकालने हैं। बजट 2018-19 पर गुजरात के चुनावी परिणामों की छाप स्पष्ट है। गौरतलब है कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा को बुरी शिकस्त मिली है। शहरी इलाकों ने अगर भाजपा को न बचाया होता तो गुजरात में भाजपा सत्ता से बाहर होती। भाजपा को गुजरात चुनाव ने बहुत बड़ा सबक दिया है। हालांकि भाजपा को यह अहसास भी हो गया है कि शहरी मध्य वर्ग के पास भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए शहरी मध्यवर्ग को कुछ न दिए बगैर, शेयर बाजार से बतौर टैक्स और ज्यादा लेकर, शेयर बाजार को थोड़ा बहुत डुबोकर भी भाजपा को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होगा। पर ग्रामीण और कृषि वाले भारत की उपेक्षा के बाद राजनीतिक नुकसान होना तय है, गुजरात के चुनावी परिणामों ने यह दिखा दिया है।
दो फीसदी बनाम तीस फीसदी
बजट में घोषणा की गई कि किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ गुना देने का इंतजाम किया जाएगा समर्थन मूल्य की शक्ल में। यानी फसलों की उपज का समर्थन मूल्य उनकी लागत से पचास प्रतिशत ज्यादा होगा। इस घोषणा के लिए बजट की जरूरत नहीं थी। यह घोषणा बजट से इतर भी की जा सकती थी। पर बजट में इसकी घोषणा का अर्थ है कि सरकार अपने किसान हित चिंतक होने की घोषणा एक बड़े इवेंट में ही करना चाहती थी। पर समझने की बात यह है कि सिर्फ समर्थन मूल्य का मसला नहीं है। समर्थन मूल्य की घोषणा के बाद भी किसानों को अपनी फसलें समर्थन मूल्य से कम में बेचनी पड़ती हैं। इस स्थिति के निराकरण के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने एक और स्कीम निकाली है- भावांतर स्कीम यानी अगर बाजार मूल्य समर्थन मूल्य से कम होगा तो उस अंतर की भरपाई मध्य प्रदेश की सरकार की करेगी। समर्थन मूल्य के ज्यादा होने भर से हल नहीं निकलता, इसके लिए कई बार भावांतर जैसी स्कीम भी राज्य सरकारों को लानी होगी। इस बजट घोषणा के बाद सरकार यह बात आसानी से कह सकती है कि वह किसान प्रिय सरकार है। इस बात के राजनीतिक निहितार्थ हैं।
बजट से पहले आए आर्थिक सर्वेक्षण में साफ किया गया था कि खेती का विकास मुश्किल से साल में दो फीसदी हो पा रहा है। दूसरी तरफ शेयर बाजार में सेंसेक्स एक ही महीने में तीस फीसदी से ऊपर चला गया। यह दो फीसदी सालाना बनाम तीस फीसदी महीने का विकास अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र के हित में नहीं है। इससे यह संदेश जाता है कि कोई तो बहुत ज्यादा कमा रहा है और कोई बिलकुल भी नहीं कमा पा रहा है। चार करोड़ गरीबों को 16,000 करोड़ रुपये खर्च कर बिजली दी जाएगी। यह भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक आधार है।
राजनीतिक आधारों की चिंता बहुत जरूरी है। खास तौर पर उस राजनीतिक आधार के लिए जिसकीलगातार बातें सत्ताधारी पार्टी करती रही हो। किसानों का मसला सिर्फ आर्थिक नहीं है, संवेदनशील राजनीतिक मसला भी है। इस आशय के बयान आर्थिक सर्वेक्षण में भी थे। हालांकि खेती की हालत तो चिंताजनक है ही, इस बात को समझने के लिए आर्थिक सर्वेक्षण के ज्ञान की जरूरत नहीं थी। आए दिन धरना-प्रदर्शन, किसानों की आत्महत्याओं से साफ है कि कृषि क्षेत्र गहरी समस्याओं से जूझ रहा है। लगातार यह बात साफ हुई है कि कृषि की तमाम समस्याओं में एक बड़ी समस्या मार्केटिंग की है। किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिल पाना बहुत बड़ा मुद्दा है। इस बार आर्थिक सर्वेक्षण कृषि को लेकर कुछ फिल्मी और साहित्यिक रहा। आर्थिक सर्वेक्षण में कृषि चैप्टर की शुरुआत मनोज कुमार की हिट फिल्म उपकार के उस परम हिट गीत से होती है- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती। इसी चैप्टर में आगे तुलसीदास की उक्ति दर्ज है- का बरखा जब कृषि सुखानी यानी जब कृषि खत्म ही हो गई तो बारिश का क्या फायदा। सर्वेक्षण बताता है कि सरकार ने बाजार सुधार से संबंधित कई कदम उठाए हैं ताकि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिल सके। इस सिलसिले में अप्रैल, 2016 में कृषि के केंद्रीकृत इलेक्ट्रॉनिक बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट (ई-नाम) की शुरुआत हुई थी। इस बात को कुछ समय बाद पूरे दो साल हो जाएंगे। इसकी शुरुआत अभी भी शुरुआती चरण में ही है। बजट ने आर्थिक सर्वेक्षण में पेश की गई चिंताओं पर कुछ ठोस बात करने की कोशिश की है।
सेहत संरक्षण स्कीम
बजट में घोषणा की गई है कि विश्व की सबसे बड़ी हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम भारत में लागू की जाएगी। दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख रुपये स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए मुहैया कराए जाएंगे। यानी उन परिवारों का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा होगा और उनके इलाज पर सालाना पांच लाख रुपये तक होने वाला खर्च सरकार देगी। मोटे तौर पर इस स्कीम के लाभार्थियों की संख्या 50 करोड़ होगी। 50 करोड़ लोगों को अगर कोई योजना इस मुल्क में फायदा पहुंचा सकती है तो समझा जाना चाहिए कि वह स्कीम गेमचेंजर है। यह स्कीम बहुत विराट राजनीतिक लाभांश की संभावनाओं से युक्त है। अकेले यह स्कीम ठीक ठाक परिणाम दे दे तो इसका बहुत राजनीतिक लाभ भाजपा के लिए संभव है। मगर यह स्कीम जमीन पर कैसे उतरती है यह देखना दिलचस्प होगा। यह स्कीम इस बजट की ही नहीं, हाल के सालों के किसी भी बजट की सबसे बड़ी घोषणा मानी जा सकती है। शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे मुद्दे हैं जिनसे जनता का भरोसा और वोट जीता जा सकता है। अरविंद केजरीवाल की दिल्ली में जो स्थिति बनी है उसमें बड़ा हाथ स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार के उनके वादों का भी है। स्वास्थ्य देखभाल की व्यवस्था का हाल पूरे देश में बहुत ही खराब है।
कई मामलों में तो खालिस लूट का मामला बना हुआ है। हाल के समय में दिल्ली-एनसीआर के कई निजी अस्पतालों में तो लाखों रुपये वसूली के बाद भी मरीज के इलाज में लापरवाही बरते जाने के मामले सामने आए हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में भी चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को दस्तावेजबद्ध किया गया है। सर्वेक्षण बताता है कि कई मेडिकल टेस्ट की दरों का कोई ओर-छोर ही नहीं है। किसी जांच की न्यूनतम कीमत और अधिकतम कीमत में अतार्किक रूप से फर्क हैं। सर्वेक्षण बताता है कि लिपिड प्रोफाइल टेस्ट 90 रुपये में भी हो रहा है और 7,110 रुपये में भी। लीवर फंक्शन टेस्ट 100 रुपये में भी हो रहा है और 2,500 रुपये में भी। थायरॉयड टेस्ट 100 रुपये में भी हो रहा है और 3,100 रुपये में भी। कीमतों का कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। गरीब आदमी तो दूर अमीर आदमी की भी सुनवाई नहीं है निजी चिकित्सा व्यवस्था में। ऐसे में यह हेल्थ केयर स्कीम बहुत प्रभावी साबित हो सकती है।
मध्य वर्ग निराश
वेतनभोगी मध्य वर्ग के लिए इस बजट में लगभग कुछ भी नहीं है। उनके लिए इस बजट में तब कुछ होता जब उनके टैक्स दायित्व में कुछ कमी होती, टैक्स स्लैब बदले जाते, रियायतें दी जातीं। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में बताया कि एसेसमेंट ईयर 2016-17 में 1 करोड़ 89 लाख वेतनभोगी लोगों ने अपने टैक्स रिटर्न भरे और उनका औसत टैक्स भुगतान 76,306 रुपये प्रति करदाता था। जबकि 1 करोड़ 88 लाख कारोबारियों ने टैक्स रिटर्न भरे और उनका औसत टैक्स भुगतान 25,753 रुपये था। यानी वेतनभोगियों का औसत टैक्स योगदान बेहतर रहा है। पर बजट ने उन्हें 40,000 रुपये का स्टैंडर्ड डिडक्शन दिया है। इसका आशय यह है कि कुल आय में इस 40,000 रुपये को घटाकर टैक्स का निर्धारण किया जाएगा और नगण्य रकम करदाता के पास बच जाएगी। यह छूट नाकाफी है और खासकर तब जब सरकार यह दावे कर रही हो कि परोक्ष टैक्स आधार में पचास फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है और नोटबंदी के बाद व्यक्तिगत करदाताओं की तादाद में उछाल आया है।
राजकोषीय घाटे पर नाकामी
राजकोषीय घाटे पर सरकार साफ तौर पर नाकाम दिखती है। तय लक्ष्य को हासिल करने में अरुण जेटली विफल रहे हैं, भले ही वह विफलता बहुत बड़ी न हो। आर्थिक सर्वेक्षण ने इस बात के संकेत दे दिए थे कि इस बार राजकोषीय घाटा लक्ष्य से ऊपर जा सकता है। अरुण जेटली ने लक्ष्य तय किया था कि 2017-18 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 3.2 प्रतिशत रहेगा और 2018-19 में यह आंकड़ा 3 प्रतिशत रहेगा। पर अब 2017-18 के लिए यह आंकड़ा 3.5 प्रतिशत हो चुका है और 2018-19 के लिए यह आंकड़ा 3.3 प्रतिशत रखा गया है।
आठ करोड़ लाभार्थी उज्ज्वला
स्कीम के
विपन्न तबके की आठ करोड़ महिलाओं को उज्जवला स्कीम के दायरे में लाया जाएगा। यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। 50 करोड़ हेल्थ स्कीम के लाभार्थी और आठ करोड़ उज्ज्वला स्कीम के लाभार्थी यानी करीब 60 करोड़ सीधे लाभार्थी बजट घोषणाओं से दायरे में आएंगे। यानी कुल जनसंख्या का करीब 46 फीसदी हिस्सा इन स्कीमों का लाभार्थी हो सकता है। यह बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश है। राजनीतिक संदेश और ज्यादा मजबूत हो जाता अगर उज्ज्वला स्कीम के लाभार्थियों को साल के दो सिलेंडर मुफ्त दे दिए जाते। उज्ज्वला स्कीम के कई लाभार्थियों की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं है कि वो सिलेंडर आसानी से खरीद सकें। खास तौर पर जब यह तथ्य सामने हो कि कई मामलों में विपन्न तबके के लोग अपने र्इंधन का जुगाड़ सस्ती लकड़ी से इधर-उधर से तोड़कर कर लेते हैं।
शेयर बाजार दुखी
बजट की घोषणाओं के दौरान शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गई। पहली फरवरी को एक बारगी तो सेंसेक्स 400 अंक से ज्यादा गिर गया था। बाद में इसमें सुधार आया। शेयर बाजार की गिरावट की एक वजह यह रही कि इस बजट ने 10 फीसदी की दर से लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स लगाया। यानी एक साल तक शेयर रखने के बाद भी अगर किसी ने शेयर बेचकर एक लाख रुपये से ज्यादा का फायदा कमाया है तो उसे दस फीसदी टैक्स देना पड़ेगा। एक साल से पहले शेयर बेचकर फायदा कमाया तो शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन टैक्स यानी 15 फीसदी देना होगा। एक तरह से देखा जाए तो अब शॉर्ट टर्म में जल्दी-जल्दी खरीद-बिक्री की निवेश रणनीति और दीर्घकालीन निवेश की रणनीति में टैक्स की दृष्टि से ज्यादा फर्क नहीं रहा। अब तक निवेशकों को समझाया जाता रहा है कि दीर्घ अवधि के लिए निवेश करो, कोई टैक्स नहीं लगेगा। पर अब सरकार उस टैक्स को वसूलने के इरादे के साथ काम कर रही है। यह बात शेयर बाजार को पसंद नहीं आई। पर कुल मिलाकर यह अर्थव्यवस्था के लिए नकारात्मक नहीं है। सरकार का अनुमान था कि पिछले सालों में करीब 3.60 लाख करोड़ रुपये के रिटर्न बिना टैक्स के चले गए यानी अगर उन पर दस फीसदी का टैक्स लगाया गया होता तो 36,000 करोड़ रुपये वसूल लिए गए होते। वित्त मंत्री को अनुमान है कि इस मद से वित्त वर्ष 2018-19 में 20,000 करोड़ रुपये का टैक्स वसूला जा सकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण में भारतीय और अमेरिकी शेयर बाजारों के उछाल की तुलना की गई है। सर्वेक्षण बताता है कि दिसंबर 2015 के मुकाबले अमेरिका का प्रमुख सूचकांक स्टैंडर्ड एंड पुअर 45 फीसदी ऊपर जा चुका है और भारत का प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 46 फीसदी चढ़ चुका है। आर्थिक सर्वेक्षण चिन्हित करता है कि इस अवधि में अमेरिका की अर्थव्यवस्था की विकास दर ऊपर गई और भारत की विकास दर नीचे आई। भारत में कंपनियों की कमाई का अनुपात सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले लगातार कम हुआ है। अभी यह सिर्फ 3.5 फीसदी है यानी सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के बतौर कॉरपोरेट सेक्टर सिर्फ 3.5 फीसदी कमा रहा है। अमेरिका में यह नौ फीसदी है। अमेरिका में ब्याज की दरें भारत के ब्याज की दरों के मुकाबले कम हैं। सर्वेक्षण का आशय यह है कि इस जबरदस्त तेजी पर सतर्क रहने की जरूरत है। सेंसेक्स कुछ हफ्तों में ही हजार अंक को पार कर ले रहा है, उस पर ध्यान से निगाह रखने की जरूरत है।
दो करोड़ बनाम 128 करोड़
शेयर बाजार के निवेशकों को लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स से जरूर धक्का लगा है। पर राजनीतिक अर्थशास्त्र के छात्र जानते हैं कि सेंसेक्स की थोड़ी बहुत गिरावट से राजनीतिक उपलब्धियों पर खास फर्क नहीं पड़ता। देश में शेयर बाजार में निवेश करने वालों की तादाद दो करोड़ से ज्यादा नहीं है। इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि शेयर बाजार की कोई अहमियत नहीं है। पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि सिर्फ शेयर बाजार की ही अहमियत है। शेयर बाजार शुरुआती नाराजगी के बाद संभल गया क्योंकि शेयर बाजार को देर सबेर समझ में आना ही है कि कहीं से भी रकम लाकर देश के कृषि सेक्टर को देना अच्छा अर्थशास्त्र है और अच्छी राजनीति भी। खेती किसानी जब चमकती है तो तमाम आइटमों की मांग बढ़ती है। तमाम आइटमों की मांग बढ़ने का मतलब है कि तमाम कंपनियों की बिक्री बढ़ेगी और बिक्री बढ़ेगी तो कंपनियों के मुनाफे भी बढ़ेंगे। खेती से ही इस मुल्क में कुल रोजगाररत लोगों में से करीब पचास फीसदी लोगों को रोजगार मिलता है। खेती पर ही इस देश की करीब 65 फीसदी आबादी निर्भर है। इसलिए अंतत: खेती का भला समूची अर्थव्यवस्था का भला है। यह बात इस बजट ने समझाने की कोशिश की है।