सगड़ी चलाके चलता दस प्राणियों का जीवन

सत्यदेव त्रिपाठी।

नाम तो प्रभु नारायण है, पर बनारस में डीएलडब्ल्यू के जलालीपट्टी-कण्डवागेट के आसपास के मुहल्लों के लोग उसे ‘परभू सगड़ीवाले’ के नाम से जानते हैं और निरक्षर परभू दस्तखत के नाम पर जो एक शब्द लिखता है, वह टेढ़ा-मेढ़ा ही सही- भ पर बुलाने वाली मात्रा के साथ है शुद्ध ‘प्रभू’। मेरी चलती तो भरे बदन पर लुंगी-कमीज पहने, सर पर गमछे की पगडी बांधे, लदा हुआ रिक्शा चलाते, मस्त मिजाज वाले परभू सगड़ी वाले को ‘पगड़ी वाले की सगड़ी’ कहता।

परभू को देखकर ही मैं जान पाया कि सामान ढोने के लिए प्रयोग में लाये जा रहे पैडिल वाले रिक्शे को सगड़ी कहते हैं, वरना मैं बिना देखे-सुने ही सगड़ी का मतलब हाथगाड़ी समझता था। और हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार रेणुजी की अतिशय प्रसिद्ध कहानी ‘तीसरी कसम’ के हीरामन के लिए तो बैलगाड़ी ही सग्गड़ थी, जो ‘छोटी बैलगाड़ी’ के लिए कोश से समर्थित भी है।

प्रभुनारायण की उपाधि है- सरोज, जो पासी नामक पिछड़ी जाति के लिए बना हुआ परिष्कृत शब्द है, लेकिन यह उपाधि पासी कौम के जीवन का परिष्कार न कर सकी। वह ‘सरोज’ को धता बताते हुए ‘जस का तस’ ही रहा। बनारस के बावतपुर स्थित लालबहादुर शास्त्री हवाई अड्डे के आस-पास स्थित ‘अहरक’ नामक गांव में बसे सात भाइयों में एक के मर जाने के बावजूद साढ़े तीन बिस्वे जमीन ही आती है हर भाई के हिस्से। ऐसे में मां-बाप और पत्नी व छह बेटे-बेटियों का कुनबा लेकर कैसे रहा जाये गांव में- क्या खाया जाय, क्या अंचया जाये! जांगर रहते हुए गांव व आस-पास कहीं काम भी तो नहीं। ताज्जुब कि किसी पारंपरिक पेशे में नहीं रहा परिवार कभी। बस, ठाकुर-ठेकारों की दो-एक बीघा जमीन मिल जाया करती अधिया (कमा के आधा देना, आधा लेना) पर करने के लिए। सो, सभी भाइयों का कहीं बाहर जाना लाजमी ही… और परभू बनारस आ गए। फिर यहां बोझा ढोने का जो काम शुरू हुआ, वह सर और ठेले से होता हुआ सगड़ी तक पहुंचा है।

आज की तारीख में परभू दो सौ से लेकर चार-पांच सौ और कभी-कभार तुक बैठ गया तो हजार भी कमा लेता है दिन भर में- ‘महीने में पन्द्रह हजार का औसत तो बैठ ही जाता है साहब’। पर 35-40 सालों में रहने का ठिकाना नहीं हो पाया। संयोग से बाहर रहने वाले किसी आदमी का घर मिल गया है रखवाली के लिए, जिसके एक कमरे में बना-खा व रह लेता है और इसे भगवान की बड़ी नेमत समझता है परभू और अपने काम व जीवन से खूब प्रसन्न रहता है- गोया वो सगड़ी चलाने के लिए ही पैदा हुआ हो…क्योंकि ‘बहुतों को तो यह भी नहीं मिलता…’। उसे न ग्राहकों से कोई शिकायत है, न अपने धन्धे को लेकर कोई चिंता। भरपूर काम और वाजिब दाम में किसी खुदा का न कोई साझा, न कोई दखल। हमारे हिसाब से पस्ती से भरा है यह जीवन, पर ऐसे लोगों को किसी सुख-सुविधा से अनजान बनाये रखकर ‘रूखा-सूखा खाइ के राम-नाम जपिए’ और ‘जाही बिधि राखैं राम वाही बिधि रहिए’ की एक जीवन-पद्धति अता की है हमारी पारम्परिक व्यवस्था ने, जिसका हामी और अवशेष है अपना परभू। लेकिन एक जैविक ईहा के तहत सिर्फ पच्चीस किलोमीटर दूर दूर अपने घर-परिवार के साथ रहने के लिए कभी एकांत में तरस भी लेता है। बहरहाल, खूब खुल के बातें कीं प्रभुनारायण ने और फोटोज खिंचवाये। न कुछ पूछा, न विचारा। संतुष्ट है कि ‘इसी भरोसे पल गया परिवार’ पर ऐसा भी हुआ कि दो बेटियां चल बसीं। लेकिन एक की शादी की और आज से 15-20 सालों पहले दो लाख रुपये खर्च किये। यह रकम आज दस लाख तो जरूर होगी। तब लाख-पचास हजार लगाके रहने का इंतजाम करने के बदले बेटी की शादी में दो लाख खर्चना भी इस व्यवस्था की ही देन है। बेहद विस्मयकारक है उत्तर भारत में बेटी की शादी में ऐसे खर्च करने का प्राय: अनिवार्य चलन। और इसकी जड़ों की पुख़्तगी देखिये कि परभू जैसों के तबके में भी यह खुशी व गौरव का सबब है- ‘लोग आज भी याद करते हैं साहब’। किंतु इसके बरक्स बच्चों को पढ़ाने की इनमें कोई चेतना नहीं, कोई चलन नहीं- ‘स्कूल भेजा, पर पढ़ने में उनका मन नहीं लगा, तो क्या करें!’ का संतोष भी है। अब दोनों बेटे भी कमाने निकल गए हैं परदेस। परभू भी पूरे देश की तरह अपने ‘अच्छे दिन’ आने का मुंतजिर और इसके प्रति पूरा आश्वस्त है।

उसे टीवी-फिल्म का इल्म नहीं, पर फोन है। और धन्धे का मिलना-चलना इसी फोन से परिचालित होता है। लेकिन बिना मांगे फोन नम्बर देने की सुध व गरज नहीं परभू में। यानी घोर विज्ञापनी इस युग में भी प्रचार की चेतना नहीं, जो परभू के वर्ग की ही नहीं, बनारसी जीवन की अपनी खास शैली से भी बावस्ता है। इस हाशिए को भी पूरी कायनात के मालिक भगवान की तरह ही मुख्य धारा के शीर्ष ‘देश के मालिक (नरेन्द्र) मोदी’ का पता है और भगवान की दी हुई रोजी-रोटी की खुशी की माफिक अपना परभू मोदी से भी खुश है। उन्हें वोट देने की खातिर इसलिए उतावला है क्योंकि उन्होंने उसे मुफ्त में गैस सिलिण्डर जो दे दिया है।

इस तरह निठुरे मने अपना सब बताकर ‘अब हम चलें साहब?’ के उत्तर में मेरी गरदन का इशारा पाकर उसने लदी सगड़ी के पैडिल मार दिये… कुछ गुनगुनाहट सी मुंह से सरसरायी, पर शब्द साफ न हुए। बल खाती देह से सगड़ी लहराती हुई चली, तो इस फांकेमस्ती के प्रति तन ने सज्दा तो न किया, पर मन बरबस ही सलाम किये बिना न रह सका।

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