एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा क्या हो गया कि दलितों को राष्ट्रव्यापी आंदोलन/बंद करने की जरूरत आन पड़ी… क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में कोई बदलाव नहीं किया है।
सुप्रीम कोर्ट को एक्ट में बदलाव करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट केवल कानून की व्याख्या कर सकता है, उसमें बदलाव नहीं कर सकता। यह संसद का काम है। दूसरी बात- बिना साक्ष्य या प्रमाणों के यह कह देना कि दलित एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है- यह कहां का न्याय है? इस एक्ट का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए होता था कि इसमें गिरफ्तार हो जाते थे लोग। दलितों के लिए बाकी सारे कानून बेकार हैं उनमें कोई एक्शन नहीं हो पाता है। सुप्रीम कोर्ट के इन जजों ने जो इस कानून की एकमात्र ताकत थी उसे बिना कोई आधार दिए ले लिया। केवल एक मामले की बिना पर कि वह ‘एक फॉल्स केस’ है। और उस व्यक्ति ने उदाहरण दिया है कि कितने लोग इस मामले में छूट जाते हैं। लेकिन कितने दलित मरते हैं वो क्या फर्जी मरते हैं। हत्या तो हत्या है न! हत्या में धारा 356 लगती है, उसमें भी गिरफ्तारी होती है, उसमें भी लोग छूट जाते हैं। डकैती, चोरी, सांप्रदायिक दंगे तमाम मामलों में लोग छूट जाते हैं। तो क्या ये सारे मामले फर्जी दर्ज करवाते हैं लोग। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़कर लगता है जैसे गुस्से से लाल कोई आदमी जजमेंट लिख रहा हो। दलितों पर अत्याचार किस तरह से होते हैं। कासगंज के निजामपुर में दलित की बारात पर एक महीने से खींचातानी चल रही है। पुलिस विटनेस है। वहां चालीस ठाकुर परिवार बारात को मुख्य मार्ग से नहीं जाने दे रहे हैं। वहां कोई कार्रवाई हुई, कोई एससी/एसटी एक्ट लगा। पुलिस वहां युद्धस्तर पर तैनात है। दलितों पर अत्याचार के कई रूप हैं। दलित अफसरों की गोपनीय रिपोर्ट खराब करते हैं लोग। ज्यादा पीछे न जाएं तो कुछ दिन पहले भावनगर में एक दलित युवक की घोड़ा रखने और उसकी सवारी करने पर हत्या कर दी गई। वडोदरा में मूंछ रखने पर एक दलित को चाकू मार दिया गया। राजस्थान में दलित दूल्हे को घोड़े से उतार दिया जाता है, उस पर पत्थरबाजी होती है। तो दलितों पर ऐसे अत्याचारों के लिए यह एक्ट बना है। और समाज के जो कट्टर और दबंग टाइप के लोग हैं वे ही दलितों को तंग करते हैं। पहले तुरंत गिरफ्तारी के नाम से थोड़ा डरते थे, अब वो भी खत्म कर दिया। पूरे देश के दलितों के लिए यह आरक्षण की बात नहीं थी, नौकरी की बात नहीं थी, यह गरिमा और सम्मान की बात थी।
दलितों का राष्यट्रीय स्तर पर कोई नेता नहीं था और यह आंदोलन सोशल मीडिया से उठा। मेन स्ट्रीम मीडिया से दलितों का एकदम ही विश्वास खत्म हो गया है। थोड़ी बहुत प्रिंट ने लाज बचा रखी है वरना टीवी न्यूज चैनलों के एंकर और सुप्रीम कोर्ट के जजों में कोई फर्क नहीं है। केवल एक टीवी चैनल पर छोटी सी लाइन आ रही थी कि आज दलितों का भारत बंद। वरना मीडिया ने कोई उसका प्रचार नहीं किया। आंख बंद कर ली सबने। एक बात और… भारत बंद इससे पहले भी हुआ- दिल्ली, मुंबई बंद होता है- कभी आंदोलनकारियों पर हमले हुए हैं? आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच में झगड़ा होता है न! पहली बार जगह जगह आंदोलनकारियों पर हमले हुए हैं और रायफल से फायरिंग हुई है। जो बारह लोग मरे हैं उनमें एक जोधपुर का सब इंस्पेक्टर मरा है जिसका हार्ट अटैक हुआ है। एक शायद किसी ब्राह्मण व्यकित की मौत हुई है। और बाकी जो दस दलित मरे हैं वो फायरिंग से मरे हैं। राजस्थान में करणी सेना ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने जा रहे दलितों की जीपों पर हमले किए। हमारे न्यूज चैनलों के कैमरे इतने डिफेक्टिव हैं कि वे दलितों का पत्थर तो कैप्चर कर लेते हैं लेकिन अपर कास्ट के लोग दलितों पर गोलियां चला रहे हैं उसको कैप्चर नहीं कर पाते हैं। ग्वालियर में जो आदमी गन चला रहा था उसे चैनल वाले चार घंटे तक आंदोलनकारी बताकर दिखाते रहे। बाद में वह वहां का ठाकुर है और तीन लोगों को मार डाला है। तो इस हिंसा पर कोई डिस्कशन, बहस नहीं मीडिया में, चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक। केवल दलित के पत्थर में ही मीडिया को हिंसा दिखाई दे रही है। मेरठ के विजुअल में साफ दिखाई दे रहा था कि बाहर के किसी व्यक्ति ने आंदोलनकारी को गोली मारी।
देश का दलित नौजवान अब जमींदारों के यहां नौकरी करने को मजबूर नहीं है। वह शहरों में आ गया है, फैक्ट्रियों में आ गया है, नए किस्म के ऐसे काम कर रहा है जिनमें जातिगत भेदभाव नहीं होता… तो अब उसे अपनी गरिमा और सम्मान का भी खयाल आया है। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से दलितों पर हमले बढ़े हैं और ये हमले, जो दलित उत्थान पर रहे हैं, उनके ऊपर हो रहे हैं। जो दलित अभी भी दबे हुए हैं उनके ऊपर हमले नहीं हो रहे हैं। जो दलित घोड़े पर चल रहा है, मूंछ रख रहा है, जिसके पास थोड़ा धन दौलत आ गई है- उन्हीं पर हमले हो रहे हैं। इसी सब को लेकर यह राष्ट्रव्यापी रोष ‘भारत बंद’ के रूप में हमें देखने को मिला।
अब तो सिस्टम से भी दलितों का भरोसा पूरी तरह से उठ गया है। सिस्टम मतलब- न्यायपालिका, मीडिया। रही संसद, तो अगर वह दलित एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खत्म कर नया कानून नहीं बनाती है तो उस पर से भी भरोसा उठ जाएगा। मीडिया और जुडिशियरी दो ऐसी चीजें हैं भारत में जो पूर्णतया ‘अपर कास्ट रिपब्लिक’ हैं। इनमें कहीं दलित दिखाई नहीं पड़ता है। दोनों दलितों के खिलाफ हैं और झूठे प्रचार में लगी हैं। कल टेलीविजन पर एक डिबेट में दो जज मेरे साथ थे। एक जज ने कहा कि ‘बीस साल के लिए आरक्षण था, उसके बाद बढ़ता गया… बढ़ता गया!’ मैंने उनसे कहा कि ‘आप जजमेंट लिखते लिखते रिटायर हुए हैं न। आपने संविधान को पढ़ा है। आपको डिग्री किसने दी है? दस साल के लिए संसद और विधानसभा के लिए था- राजनीतिक आरक्षण। नौकरी वाले आरक्षण की कोई समय सीमा नहीं है। आपको इतना नहीं मालूम है? आपने पता नहीं कितने जजमेंट लिखे होंगे और कितना लोगों को परेशान किया होगा?’ दूसरा जो जज वहां बैठा था, वो बोला, ‘देखिए लोग फर्जी काम तो करते हैं। मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तो उन्होंने सभी दलित छात्राओं को साइकिल मुफ्त में बांट दी। जिस दिन साइकिल मुफ्त में बंटती थी उसके अगले ही दिन वह दुकानों पर बिकती दिखाई पड़ती थी।’ मैंने कहा, ‘आप ये बातें क्यों कह रहे हैं? मुझे मालूम है कि मायावती ने दलित छात्राओं को साइकिल देने की कोई योजना नहीं चलाई थी। अखिलेश यादव ने लैपटॉप बांटा था उसे लोग बेच रहे थे बाजार में। आपके ऐसा कहने की मंशा क्या है। आप जज बनकर रिटायर हुए हैं, इतनी उम्र हो गई आपकी और साफ झूठ बोल रहे हैं।’ तो ऐसी बातों के कारण दलितों में मीडिया और जुडिशियरी के प्रति नफरत सी हो गई है।
साल 2007 में बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए एससी/एसटी एक्ट में इससे ज्यादा ढील दी थी, जो उत्तर प्रदेश में आज भी लागू है।
अब जिन लोगों का धर्म ही झूठ बोलना है वही ऐसी बातें फैला रहे हैं। लोगों को इतनी तो समझ होनी चाहिए कि एससी-एसटी एक्ट संसद का बनाया हुआ एक्ट है। इसमें राज्य सरकार, विधानसभा या मुख्यमंत्री कोई हस्तक्षेप या बदलाव नहीं कर सकते। हां, अगर मायावती जी ने कभी कोई बयान दिया हो तो वह सिर्फ बयान भर है। मायावती ने बयान दिया था कि इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। हजार लोग उनके पास बोलने जाते थे कि इसका मिसयूज हो रहा है, उसी संदर्भ में कहा होगा।
तो आप कह रहे हैं कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग नहीं हो रहा?
इस बात का क्या आधार है कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हुआ है। क्या इस पर कोई रिसर्च हुआ है? और अगर सिर्फ एक्विटल रेट (जिन पर आरोप लगाया जाता है वे छूट जाते हैं) हाई है इसी आधार पर यह बात कही जा रही है तो धारा 302 में भी कह दीजिए कि वहां गिरफ्तारी की जरूरत नहीं है क्योंकि हत्या के आरोपी भी छूट जाते हैं। बहुसंख्यक समाज के लोग हत्या, सांप्रदायिक दंगे, हर अपराध में छूट जाते हैं।
…और एससी-एसटी एक्ट में भी छूट जाते हैं बाद में?
हां, शेड्यूल कास्ट का कौन साथी है। जो हमला करने वाले लोग हैं उनको तो अपनी जाति का समर्थन मिलता है। दलित को अल्पसंख्यक हैं। कौन उनके साथ खड़ा होना चाहेगा।
यह आंदोलन सरकार के खिलाफ था या सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ?
यह आंदोलन पूरी व्यवस्था के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को मीडिया ने चैलेंज नहीं किया कि- यह गुस्से में मनमाने तौर पर दिया गया फैसला है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि लोग एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग कर रहे हैं। लोग जुडिशियरी से भी गुस्सा हैं और दलित पॉलिटिशियन से भी नाराज हैं- तो पूरे सिस्टम के खिलाफ है यह आवाज।
सुप्रीम कोर्ट ने बिना जांच गिरफ्तारी के मुद्दे पर पूछा कि क्या शिकायतकर्ता को वकील और जज दोनों बनाया जा सकता है?
अगर मैं वहां खड़ा होता तो जज साहब से कहता कि- ‘आप ही जज रहिए और आप ही वकील भी रहिए… और फैसला सुना दीजिए।’ आखिर कैसी बेवकूफी की बात वह जज कर रहा था। एक व्यक्ति अपनी शिकायत दे रहा है तो उसके बाद ट्रायल करिए आप। यह जुडिशियरी का काम है। शिकायत गलत है तो छोड़ दीजिए। ट्रायल तो कीजिए। जाति व्यवस्था में कौन ऐसा दलित है कि झूठे किसी को फंसाएगा। मैंने तो आज तक ऐसा उदाहरण नहीं देखा कि बिना किसी वजह के कोई दलित किसी को फंसाएगा।
क्या दलितों का आंदोलन अन्य दलों से हाईजैक कर लिया था। क्योंकि शांतिपूर्ण आंदोलन को हिंसक व अराजक बना दिया गया। जिन कथित आंदोलनकारियों या उपद्रवियों की गिरफ्तारी हुई है उनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम और अन्य जातियों के लोग शामिल पाए गए।
भारत बंद के दौरान सबसे बड़ा प्रदर्शन दिल्ली में हुआ है और पंजाब के जालंधर में हुआ है। सवाल यही है कि दिल्ली, पंजाब में आंदोलन शांतिपूर्ण रहा तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में हिंसक कैसे हो गया। इन तीनों राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं। उत्तर प्रदेश के एडीशनल डीजी ने कहा कि मेरठ में गैर दलित क्रिमिनल घुस गए थे आंदोलन में। और फिर एक दिन बाद अपनी बात बदल दी। इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी इतनी बड़ी रिपोर्ट। इस बात की जांच होनी चाहिए कि क्यों हिंसा की घटनाएं उन्हीं राज्यों में हुर्इं जहां बीजेपी की सरकारें हैं। तो इनमें कहीं न कहीं तो सरकारों का इन्वाल्वमेंट है। आंदोलन में बाहरी गुंडे घुसे। तो इसकी जांच हो। पहले वो क्यों नहीं पकड़े जाते।
दलित अस्मिता या गौरव आवश्यक है। लेकिन यह समाज में समावेशी प्रक्रिया के जरिए आएगा, या अराजकता फैलाकर।
सत्तर साल में भारत में बहुत बदलाव आया है। जाति व्यवस्था कमजोर हुई है। दलित धीरे धीरे दबंग जातियों से मुक्त हो रहे हैं। हलवाही प्रथा खत्म हो गई पूरे भारत से। दलित अब किसी का बैल या हल नहीं चलाते। दलित महिलाएं धीरे धीरे खेतों में काम करना बंद कर रही हैं। ये उनकी आजादी का वक्त है। पर इसी सत्तर साल के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि भारत बर्बाद हो गया। आज से चालीस साल यह सवाल ही नहीं उठता था कि कोई दलित घुड़सवारी करेगा। आज दलित घोड़े की सवारी कर रहा है। चालीस साल पहले राजस्थान में दलित दूल्हा पैदल जाता था या साइकिल अथवा रिक्शा पर। अब वह घोड़ी पर चढ़ रहा है तो दंगे हो रहे हैं, उसे पत्थर मारे जाते हैं। दलित समाज को कभी केरल में मूंछ रखने पर टैक्स देना पड़ता था। अब दलित मूंछ रखना शुरू कर रहा है। नए कपड़े पहनने पर पाबंदी थी। आज दलित नए कपड़े पहन रहा है। तो ये जो बदलाव आया उसी की प्रतिक्रिया में 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के जीतने के बाद शासक जातियों में बहुत निराशा है। इसी निराशा के चलते उनके नौजवान दलितों पर हमले करके अपनी कुंठा निकाल रहे हैं। दलितों पर जो हमले होते हैं वे जमीन जायजाद का विवाद नहीं हैं, व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता नहीं हैं, ये चोरी, डकैती, पॉकेटमारी की बात नहीं है- ये सारे हमले केवल सम्मान के सवाल पर हो रहे हैं। पूरा देश देख रहा है और निजामपुर में दलित की बारात के लिए पुलिस रोडमैप लेकर आई है कि तुम इतनी दूर से घूमकर आओ, मुख्य मार्ग से मत जाओ। ऐसे अपराध करने वालों को तुरंत जेल के भीतर होना चाहिए इसी के लिए यह स्पेशल (एससी-एसटी) एक्ट बना है। और जो सुप्रीम कोर्ट का फैसला है वह अपराधियों की सहानुभूति में दिया गया है। भारत में पहली बार हुआ कि अपराध करने वालों से हमदर्दी में एक्ट में बदलाव लाया जा रहा है।
लेकिन बात तो हम यह कर रहे थे कि दलित समाज का गौरव समाज में किस प्रकार बढ़ेगा?
दलित समाज को अपनी आजादी की कीमत चुकानी होगी। जब काले लोग अमेरिका में आजाद हुए और अब्राहम लिंकन ने एक जनवरी अट्ठारह सौ तिरसठ को दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया और ब्लैक मुक्त हो गए… तभी से काले लोगों पर हमले होने शुरू हुए। जब तक दास थे तब तक किसी की प्रॉपर्टी थे। आज से सत्तर साल पहले दलित भी किसी न किसी की प्रॉपर्टी था। दलित का पूरा जमींदार की सेवा में रहता था तो कुछ इनका भी जीवन चलता था। जमींदारों में उनके लिए संघर्ष हो जाते थे कि मेरे आदमी को तुमने क्यों मारा। अब दलित मुक्त हो गए हैं तो समाज को यह बर्दाश्त नहीं है। तो उन पर जगह जगह हमले होंगे। गांवों में जाकर देखें। हम तो गांवों में काफी रिसर्च करते हैं। किसी पूर्व जमींदार के यहां चले जाइए और पूछिए कि पिछले सत्तर सालों में क्या बदलाव आया? वह कहेगा- बर्बाद हो गया देश। हर जमींदार यही कहता है। चूंकि उसकी सत्ता चली गई इसलिए देश बर्बाद हो गया।
ऐसा कब तक चलेगा?
जब भारत में पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो जाएगी और देश आधुनिक, औद्योगिक और शहरी सभ्यता बन जाएगा तब जाकर दलित पर हमले खत्म होंगे और सोसाइटी में उनका एक्सेप्टेंस बढ़ेगा। जब तक भारत कृषि व्यवस्था वाला देश रहेगा तब तक दलितों को कठिनाई झेलनी पड़ेगी। और अभी तो दलित जैसे जैसे प्रगति करेगा उस पर हमले और बढ़ेंगे।