सुनील वर्मा
कर्नाटक में इस बार चुनावी मुकाबला काफी दिलचस्प होता दिख रहा है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में नए जोश और आत्मविश्वास के साथ सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनावी मैदान में है तो वहीं सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के लिए अपनी नाक बचाने की चुनौती है। 12 मई को राज्य में मतदान के बाद जब 15 मई को नतीजे आएंगे तो साफ हो जाएगा कि सत्ता किसको नसीब होगी। फिलहाल कर्नाटक के रण में सभी राजनीतिक दल पसीना बहाने में जुटे हैं। कांग्रेस पार्टी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व में अपना दुर्ग बचाने में जुटी हुई है तो पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को फिर से भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे रही है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस ने बसपा के साथ गठबंधन कर सत्ता की बाजी अपने पक्ष में करने को मजबूत दावेदारी पेश की है। अगर कांग्रेस या भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो जेडीएस किंग मेकर की भूमिका निभा सकती है।
इस बार का चुनाव इसलिए भी रोचक हो गया है कि चुनाव के ऐलान से ठीक पहले कांग्रेस ने एक ऐसा मास्टरस्ट्रोक जड़ा है जिससे भाजपा सकते में है। 224 सदस्यों वाले कर्नाटक विधानसभा की करीब 100 सीटें ऐसी हैं जहां लिंगायत समुदाय का प्रभाव है। राज्य की करीब 21 फीसदी आबादी वाले लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देकर कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने भाजपा को मुश्किल में डाल दिया है। कांग्रेस को इस राजनीतिक दांव का न सिर्फ विधानसभा चुनाव में फायदा मिल सकता है बल्कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भी पार्टी इस मुद्दे को भाजपा के खिलाफ भुना सकती है। कांग्रेस के इस कदम के बाद लिंगायत समुदाय और उसके ज्यादातर मठों ने कांग्रेस को सर्मथन का ऐलान कर दिया है। दरअसल, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावी जंग के बीच ये बयान देकर लिंगायत मठों की नाराजगी मोल ले ली कि भाजपा लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा नहीं देगी। हालांकि इससे पहले शाह ने सिद्धगंगा मठ और दलितों से जुड़े मठों में जाकर उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश भी की। हाल के दिनों में जब भाजपा के प्रति देश भर के दलितों में नाराजगी बढ़ी है और लिंगायत कांग्रेस के करीब जाते दिख रहे हैं तो भाजपा के लिए कर्नाटक की राह आसान नहीं होगी।
कांग्रेस के पास अब भाजपा के हाथों खोने के लिए सिर्फ यही राज्य बचा है। कांग्रेस की यही कोशिश है कि किसी तरह इस आखिरी किले को बचा लिया जाए। यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने हाथ में प्रचार की कमान थामी हुई है। 2013 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो कांग्रेस को 121, भाजपा को 40, जेडीएस को 40, केजेपी को 6 और अन्य को 16 सीटें मिली थीं। हर पार्टी इस बार पहले से बेहतर प्रर्दशन की तैयारी में जुटी है। बहुमत के लिए 113 सीटों का आंकड़ा जुटाने के लिए सभी दलों की तरफ से जातीय समीकरण बिठाए जा रहे है। कर्नाटक में भी जातीय वोटों का बड़ा गणित है। राज्य में लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय का ही राजनीतिक वर्चस्व रहा है। अमूमन प्रदेश के सभी मुख्यमंत्री इन्हीं जातियों से हुए हैं। इसके बावजूद जीत दिलाने में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग की भी बड़ी भूमिका रही है। इनकी कुल आबादी करीब 32 फीसदी है। राज्य में लिंगायत 17 फीसदी, वोक्कालिंगा 18 फीसदी, अल्पसंख्यक करीब 17 फीसदी हैं जिनमें मुसलमान अकेले 13 फीसदी हैं। इन पर कांग्रेस की अच्छी पकड़ है। 224 सीटों में से करीब 60 पर मुस्लिम वोटरों का प्रभाव है।
कांग्रेस ने लिंगायत के अलावा राज्य के लिए अलग झंडा की मांग कर भी एक नई सियासी चाल चली है। कन्नड़ अस्मिता का मामला उठाकर कांग्रेस ने भाजपा के राष्ट्रवाद के मुकाबले स्थानीय अस्मिता को महत्व दिया है। हालांकि कर्नाटक में किसानों की खुदकुशी और किसानों से जुड़ी समस्याएं कांग्रेस के लिए चुनौती खड़ी कर रही है। साथ ही सिद्धारमैया सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को भाजपा प्रमुख मुद्दा बना रही है।