उमेश चतुर्वेदी
एक राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष शब्द से एक ही बिम्ब उभरता रहा है, गांवों का देश। आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी साहित्य के छायावादी कवियों ने गांवों के दर्द और उनकी महिमा, दोनों का बखूबी चित्रण किया है। जयशंकर प्रसाद जब- अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा- कहते हैं तो उसका मतलब भारतीय ग्राम्य संस्कृति में बिखरे सुकून और गौरव के पलों की महिमा का गान ही होता है। जयशंकर प्रसाद चूंकि अतीत राग के गवैये थे, लिहाजा उन्होंने अतीत के जरिये ग्राम संस्कृति का गुणगान किया है। वहीं उनके ही समकालीन सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि होने के बावजूद ग्राम्य धारा में फैले दर्द को ही उजागर करते हैं। पंत लिखते हैं-
भारत माता/ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल,
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा/उदासिनी।
यह सवाल आया ही क्यों कि गुप्त काल तक ग्राम्य संस्कृति के जिस देश को पूरी दुनिया सोने की चिड़िया के तौर पर जानती थी वह उदासिनी हो गई, उसके आंचल धूल से भर गए।
जाहिर है यह सवाल महात्मा गांधी के भी मन में था। इसलिए 1909 में दक्षिण अफ्रीका से लौटते वक्त उन्होंने हिंद स्वराज नामक जो पुस्तिका लिखी उसमें इस बात पर गहराई से विचार किया। फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि हिंदुस्तान का मतलब वहां के ग्रामवासी करोड़ों लोग हैं। हिंद स्वराज में गांधी जी ने लिखा है, ‘मेरे मन में तो हिंदुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।’ लेकिन गांधी जी के मन में गांवों को लेकर वैसी कल्पना नहीं थी जैसा हम देखते-सुनते और सोचते हैं। अर्थ प्रधान इस दौर में इस बात से कौन इनकार करेगा कि गांवों को भी खुशहाल होना चाहिए, वहां भी आर्थिक धारा तेजी से बहनी चाहिए। लेकिन गांधी जी एक हद तक मौजूदा आर्थिक धारा के विरोधी थे। इसलिए हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है, ‘जैसे ब्रह्मचर्य की जरूरत है वैसे ही गरीबी को अपनाने की जरूरत है। …पैसे के बारे में लापरवाह रहने की जरूरत है।’
आजादी के वक्त तक भारतीय जनसांख्यिकी आंकड़े के मुताबिक शहरों में जहां करीब बीस फीसद आबादी रहती थी वहीं गांवों में करीब अस्सी फीसदी लोग रहते थे। लेकिन हमने विकास का जो मॉडल अख्तियार किया उसमें इस अनुपात में बदलाव आने लगा। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक गांवों में जहां 68 फीसदी जनसंख्या निवास कर रही है वहीं शहरी इलाकों में 32 फीसदी लोग रहने लगे हैं। विकास की मौजूदा अवधारणा में शहरीकरण ही विकास का पर्याय मान लिया गया है। इसकी वजह से अब गांव के लोगों को भी चमक-दमक प्रभावित करती है। अब गांव में कोई रहना नहीं चाहता।
तो क्या इस बदलते हालात के पीछे ग्राम स्वराज की मौजूदा अवधारणा का भी कोई हाथ है? निश्चित तौर पर इसका जवाब हां में है। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के वक्त ही तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कह दिया था कि हम गांधी के सपनों के मुताबिक ग्राम स्वराज को लागू नहीं कर सकते। यहां यह बता देना जरूरी है कि इन्हीं संशोधनों के जरिये स्थानीय निकायों और गांवों के लिए पंचायती राज की अवधारणा स्वीकार की गई है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर गांधी जी कैसा ग्राम स्वराज चाहते थे। इसे समझने के लिए उनके एक लेख को देखना होगा। हरिजन सेवक पत्रिका के 2 अगस्त, 1942 के अंक में उन्होंने लिखा, ‘ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा संपूर्ण लोकतंत्र होगा जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं होगा और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों को लिए जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए जिसमें ढोर चर सकें और गांव के बड़ों व बच्चों के मनबहलाव के साधन और खेलकूद के मैदान वगैरह का बंदोबस्त हो सके।’
आज गांवों में शहरी सुविधाएं तो पहुंच गई हैं लेकिन क्या वे गांव गांधी जी के सपनों के मुताबिक बन पाए हैं। गांधी के ग्राम स्वराज में गांव की व्यवस्था गुप्तकाल की व्यवस्था जैसी थी जिसके मुताबिक शिल्पी और कलाकार तक गांवों रहते थे। गांधी जी इसी लेख में लिखते हैं, ‘हर एक गांव में गांव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा, वाटर वर्क्स होंगे जिससे गांव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गांवों का पूरा नियंत्रण रख कर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दरजे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहां तक हो सकेगा गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। जात-पांत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम समाज में बिलकुल नहीं रहेंगे।’
सवाल यह है कि क्या पंचायती राज संशोधन के बावजूद गांवों में वैसा सुशासन और सुराज आ पाया जिसकी कल्पना आजादी के आंदोलन के दौरान हमारे नायकों ने की थी। गांधी जी के इसी लेख में गांवों के सुराज की कल्पना को देखा और समझा जा सकता है। गांधी जी लिखते हैं, ‘सत्याग्रह और असहयोग के शस्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन बल होगी। गांव का शासन चलाने के लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यता वाले बालिग स्त्री-पुरुषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूंकि इस ग्राम स्वराज में आज के प्रचलित अर्थों में सजा और दंड का कोई अधिकार नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारा सभा, न्याय सभा और कार्यकारिणी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी। इस ग्राम शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला संपूर्ण लोकतंत्र काम करेगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के वश में होकर चलेंगे। अपने गांव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा।’
यह लेख लिखने के बरसों पहले गांधी जी ने स्वतंत्र भारत के सुराज की कल्पना भी की थी। यंग इंडिया के 10 फरवरी, 1927 के अंक में उन्होंने लिखा है, ‘सच्चा स्वराज मुट्ठी भर लोगों द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में, उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामर्थ्य विकसित होने से आएगा।’ आज तो व्यवस्था का हस्तक्षेप व्यक्ति के दैनंदिन जीवन में इतना बढ़ गया है कि हर कदम पर एक तरह से यह व्यवस्था अनुशासन कम, प्रतिबंध ज्यादा लगती है। गांधी जी ने यंग इंडिया के 10 मार्च, 1927 के अंक में लिखा है, ‘मेरे लिए स्वराज का अर्थ है सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयास, यह सरकार विदेशी हो अथवा राष्ट्रीय।’
जाहिर है कि गांधी जी का ग्राम्य स्वराज उनकी सुराज की अवधारणा का ही विस्तार था। ग्राम स्वराज और व्यवस्था को लेकर हरिजन सेवक के 10 नवंबर, 1946 के अंक में गांधी जी लिखते हैं, ‘देहात वालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत हासिल की जा सके। जब गांवों का पूरा-पूरा विकास हो जाएगा तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला-कारीगरी के धनी स्त्री-पुरुषों की गांवों में कमी नहीं रहेगी। गांवों में कवि होंगे, चित्रकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित होंगे, शोध करने वाले लोग भी होंगे। थोड़े में, जिंदगी में कोई ऐसी चीज नहीं होगी, जो गांव में न मिले। आज हमारे गांव उजड़े हुए और कूड़े-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल वहीं सुंदर बगीचे होंगे और ग्राम वासियों को ठगना या उनका शोषण करना बंद हो जाएगा।’
आज के दौर में यह सवाल उठ सकता है कि गांधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा से केंद्र कमजोर होगा और केंद्रीय या राज्य स्तर की सत्ता को चुनौती मिलेगी जिससे देश के विघटन की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। यह सवाल उन दिनों भी उठा था जिसका जवाब गांधी जी के अनन्य शिष्य ठाकुर दास बंग ने अपनी पुस्तक लोक-स्वराज में दिया है। बंग ने लिखा है, ‘परिणाम ऐसा नहीं होगा क्योंकि लोगों को अपनी शासन व्यवस्था स्वयं करने को आधिकाधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे राष्ट्र के रूप में कहीं अधिक एकताबद्ध और शक्तिशाली होंगे। भारत में रहने वाले भिन्न-भिन्न समुदाय अधिक प्रेम से एक साथ रह सकेंगे। …ऐसे केंद्र को अंदर से अनेक तरह के दबावों और तनावों के बीच काम करना होता है। उसे विघटित होकर बिखर जाने का खतरा बना रहता है। इस तरह का बलवान केंद्र लोकतंत्र से धीरे-धीरे दूर और अधिकाधिक सर्व सत्तावादी होता जा रहा है। विकेंद्रीकरण से केंद्र निर्बल हो जाएगा, यह तर्क गलत है। निर्वाचित सत्ता हर स्तर पर कार्य करती है जिसके लिए वह सक्षम है। जो विषय उसकी क्षमता से बाहर हैं उन्हें ही ऊपर के स्तर पर सौंपे जाते हैं। इसलिए यह क्षमता का प्रश्न बन जाता है। विषयों की संख्या किसी इकाई के पास ज्यादा हो तो वह बलवान होती है, ऐसा नहीं है। ऊपरी स्तर पर भारी-भरकम और फैला हुआ केंद्र, जो हर विषय पर अपनी टांग अड़ाता हो, देखने में भले ही मजबूत मालूम पड़े लेकिन वास्तव में होगा कमजोर, खोखला, मंदगति और निकम्मा। राष्ट्रीय एकता और शक्ति इस बात पर निर्भर नहीं है कि केंद्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र के विषयों की सूची कितनी बड़ी है, बल्कि भावनात्मक एकता, जनता के समान अनुभव, आकांक्षाएं, सहिष्णु और सबसे अधिक राष्ट्रीय नेताओं की विशाल हृदयता आदि स्थायी तत्वों में निहित है।’
गांधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा पर यह सवाल भी उठता रहा है कि पिछड़े गांवों के नागरिकों को सत्ता देना गलत होगा क्योंकि उनमें स्वशासन की योग्यता नहीं है। ठाकुर दास बंग ने अपनी पुस्तक में इसका भी जवाब लिखा है, ‘ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सदियों तक ग्रामीण जनता को कुछ विषयों में मजबूरन पिछड़ी हालत में रखा गया है। तथापि शहर के चुने हुए तबके के लोगों से किसी भी अर्थ में नैतिकता या बुद्धि की दृष्टि से वे पिछड़े हुए नहीं हैं। यदि इसे मान भी लिया जाए तो भी इस कारण उन्हें स्वशासन के अधिकार से वंचित रखना गलत, अलोकतांत्रिक और धृष्टतापूर्ण होगा। गुलाम भारत को अधिकार देने के बारे में अंग्रेज यही तर्क देते थे। आखिर सुराज, स्वराज का विकल्प नहीं हो सकता। कथित पिछड़ी देहाती जनता पलटकर आगे बढ़े हुए शहरी शिक्षितों से यह सवाल नहीं पूछ सकती कि क्या वे राष्ट्र का शासन सफलतापूर्वक कर सके हैं? अवश्य ही विकेंद्रीकरण द्वारा सत्ता मिलने पर गलतियां होंगी। लेकिन पहले तो उत्तरदायित्व को निभाने के लिए स्वशासन की योग्यता और आवश्यक क्षमता प्राप्त की जा सकती है। फिर पिछड़ेपन का इलाज जनता को उसके सार्वभौम अधिकारों से वंचित रखना नहीं, बल्कि जितना शीघ्र हो सके उसे शिक्षित और जाग्रत करना है।’
दरअसल, गांधी जी की संकल्पना वास्तव में आदर्श राज्य की स्थापना के साथ ही नैतिक मूल्यों की प्राप्ति एवं समाज में खड़े अंतिम व्यक्ति के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए थी। उनकी कल्पना में विकास उर्ध्वमुखी यानी नीचे से ऊपर की ओर था। उन्होंने गांव की कल्पना राष्ट्र की इकाई के तौर पर की थी। दुर्भाग्यवश आज की व्यवस्था ऊपर से नीचे की तरफ विकास की बात करती है जो पश्चिमी संस्कृति की नकल है जिसे आज नेहरू मॉडल के तौर पर स्वीकार किया जाता है।