प्रदीप सिंह और उमेश चतुर्वेदी
देश की राजनीति में एक बुनियादी बदलाव आ गया है। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति की जगह गैर भाजपावाद की राजनीति अब चुनावी राजनीति की मुख्य धारा बन गई है। लोकसभा चुनाव में अभी करीब ग्यारह महीने बाकी हैं लेकिन पूरे देश में अभी से चुनाव का माहौल बन गया है। विपक्षी दलों ने यह मान लिया है कि नरेन्द्र मोदी अब इतने ताकतवर हो गए हैं कि उन्हें हराने का प्रयास करने के लिए सबको एक होना ही पड़ेगा। विपक्षी एकता के प्रयोग की परीक्षा हाल के लोकसभा और विधानसभा उप चुनावों में हुई और कामयाबी भी मिली। विपक्ष इससे अति उत्साहित है। जिनके कभी एक साथ होने की उम्मीद नहीं की जाती थी वे भी मोदी से मुकाबले के लिए एक साथ आ रहे हैं। विपक्षी एकता की सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस और राहुल गांधी हैं। पिछले सत्तर सालों में कांग्रेस इतनी कमजोर कभी नहीं रही। विपक्षी एकता का सारा शिराजा एक बात पर टिका है कि वोटों के अंकोंं का गणित उसके पक्ष में है। उसे उम्मीद है कि अंकों का यह गणित बिहार की तरह केमिस्ट्री में बदल जाएगा। दूसरी ओर भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी है, जिसकी अंकों से ज्यादा केमिस्ट्री पर नजर है। वोटों का अंक गणित तो 2014 में भी भाजपा के पक्ष में नहीं था। पर मोदी की मतदाताओं के साथ केमिस्ट्री ने उसे अकेले दो सौ बयासी सीटें दिला दी।
विपक्ष की सारी रणनीति वोटों के अंकों पर तो टिकी ही है। पर कुछ और मुद्दे उसकी नजर में उसके लिए सकारात्मक माहौल बनाएंगे। विपक्ष मानकर चल रहा है कि मोदी सरकार लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है और लोग उससे नाराज हैं। उसे बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं, अपराध की बढ़ती घटनाओं और पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमत जैसे मुद्दे अपने पक्ष में लग रहे हैं। विपक्ष के (जो साथ आने के इच्छुक हैं) नेताओं को लग रहा है कि सारा माहौल बना हुआ है। बस भाजपा और उसके सहयोगी दलों के खिलाफ हर जगह एक उम्मीदवार उतारने की देर है। ऐसा हो गया तो उसकी जीत तय है। वोटों का गणित तो यही कहता है। विपक्ष यह भी मानकर चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता लगातार घट रही है।
कुछ उप चुनाव साथ लड़ना अलग बात है लेकिन लोकसभा चुनाव लड़ना बिल्कुल ही अलग। राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी विपक्षी गठबंधन के लिए जरूरी है कि उसकी धुरी ऐसा राजनीतिक दल बने जिसकी सार्वदेशिक उपस्थिति हो। इतना ही नहीं वह सहयोगी दलों के जनाधार में कुछ जोड़ने की हैसियत में हो। विपक्षी खेमे में कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसकी सार्वदेशिक उपस्थिति कही जा सकती है। पर उसकी ताकत इतनी छीज चुकी है कि वह ज्यादातर राज्यों में किसी और दल को कुछ देने की स्थिति में नहीं है। जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और त्रिपुरा। केरल में वाम मोर्चा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेंगे इसकी उतनी ही संभावना है जितनी भाजपा और कांग्रेस के साथ आने की। कर्नाटक में जेडीएस के साथ लोकसभा चुनाव लड़ने का समझौता हो ही चुका है। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल कांग्रेस के साथ आने की संभावना तभी बनेगी जब दोनों में से कोई एक दल अपना जनाधार खोने को तैयार हो। जम्मू-कश्मीर में उसका नेशनल कांफ्रेंस से पहले से ही समझौता है।
अब बात करते हैं जहां कांग्रेस मजबूत है। ऐसे राज्यों में कर्नाटक की बात हो चुकी है। बाकी बचते हैं- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश। इन राज्यों में भाजपा के सामने कांग्रेस ही है। कोई क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं है जिसके साथ कांग्रेस गठबंधन कर सके। दिल्ली और पंजाब ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि यह समझौता किसी एक पार्टी के लिए उस राज्य में आत्मघाती ही साबित होगा।
उत्तर प्रदेश विपक्षी एकता की प्रयोगशाला बन गया है। यहां समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल ने मिलकर कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीट का उप चुनाव लड़ा और जीता। इससे पहले सपा बसपा ने अपनी तेइस साल की दुश्मनी भुलाकर गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र का उप चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इन चार उप चुनावों की जीत से विपक्षी दलों में जबरदस्त उत्साह है। उप चुनाव के बाद मायावती ने कहा कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही वे गठबंधन में शामिल होंगी। उस पर अखिलेश यादव ने कहा कि मोदी को हराने के लिए वे सीटों की कुर्बानी देने को तैयार हैं। उप चुनावों की जीत से उत्साहित दल इस बात को नजर अंदाज कर रहे हैं कि एक दो सीटों पर सारी ताकत लगा देना एक बात है और पूरे प्रदेश में उतनी ही ताकत लगा पाना दूसरी।
विपक्षी एकता के सामने दो यक्ष प्रश्न हैं। एक, उनका नेता कौन होगा? इस मामले में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। विपक्षी नेतृत्व के सबसे बड़े दावेदार राहुल गांधी हैं। सबसे बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते उनका दावा स्वाभाविक है। पर पेंच यह है कि राष्ट्रीय जनता दल के अलावा कोई विपक्षी पार्टी इस मुद्दे पर अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं है। राहुल के नेतृत्व के मुद्दे पर विपक्षी दल असहज हैं। वे सार्वजनिक रूप से कांग्रेस का दावा खारिज नहीं करना चाहते लेकिन निजी बातचीत में राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखते। राहुल गांधी के नेतृत्व की सबसे बड़ी विरोधी हैं ममता बनर्जी। पिछले दिनों वे दिल्ली आर्इं। तीन दिन रुकीं और सारे विपक्षी नेताओं यहां तक कि यशवंत सिन्हा से भी मिलीं लेकिन राहुल गांधी से नहीं मिलीं। अब नेतृत्व के यक्ष प्रश्न के अंदर से ही एक और प्रश्न उठ रहा है कि क्या कांग्रेस विपक्षी एकता की खातिर गठबंधन का नेतृत्व छोड़ने के लिए तैयार है? इस सवाल के जवाब को टालने के लिए ही कांग्रेस कह रही है कि यह मुद्दा चुनाव बाद हल हो जाएगा।
प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में दूसरा बड़ा नाम है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का। वे सीधे तो अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर नहीं करतीं। बल्कि दूसरों का नाम आगे बढ़ाती रहती हैं। एक समय वे नीतीश कुमार के नाम का समर्थन कर रही थीं। नीतीश के एनडीए में वापस जाने के बाद उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का नाम आगे बढ़ाया। बसपा प्रमुख मायावती किसी से कमजोर दावेदार नहीं हैं। 2008-09 में वामदल उन्हें प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश कर चुके हैं। मायावती महिला हैं, अनुसूचित वर्ग से आती हैं और चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। बंगलुरु में एच डी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में सोनिया गांधी और मायावती की हजार वाट की हंसी सबने देखी।
विपक्ष के सामने दूसरा यक्ष प्रश्न है- क्या गठबंधन के दलों में एक दूसरे को अपना वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता है। इस मामले में केवल मायावती और ममता बनर्जी का ही नाम लिया जा सकता है। ममता अपने राज्य की निर्विवाद रूप से सबसे लोकप्रिय और सबसे बड़े जनाधार वाली नेता हैं। मायावती के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। 2017 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ उन्नीस सीटें लेकर वे तीसरे नंबर रहीं। 2007 में पूर्ण बहुमत से सरकार बाने के बाद से मायावती का ग्राफ लगातार गिरता ही रहा है। हालत यह है कि आज वे सिर्फ जाटवों की नेता रह गई हैं।
विपक्ष की इस तैयारी के सामने नरेन्द्र मोदी का विशाल व्यक्तित्व है। उनकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता का मुकाबला करने वाला कोई नेता विपक्षी खेमे में नहीं है। उप चुनाव में गठबंधन के साथी दल बिना किसी नेता के जा सकते हैं। पर लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने बिना किसी नेता के जाना घाटे का सौदा होगा। 2014 में मोदी राष्ट्रीय राजनीति के लिए नए थे। लोग सवाल करते थे कि एक राज्य चलाने वाला क्या देश चला पाएगा। इसका जवाब 2014 से देश का मतदाता लगातार दे रहा है। देश के बीस राज्यों में भाजपा अकेले या गठबंधन में सत्ता में है। कर्नाटक जैसे दक्षिण के अहम राज्य में सबसे बड़ी पार्टी है। सरकार की विभिन्न योजनाएं लोगों तक पहुंची हैं। उनकी सूची बड़ी लंबी है। उज्ज्वला, उदया, सौभाग्य, जनधन, बीमा योजना, स्वच्छता अभियान के तहत करोड़ों शौचालय, मुद्रा योजना के जरिये छोटे व्यवसायियों को सस्ता कर्ज और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी कुछ योजनाएं सरकार की बड़ी उपलब्धि हैं। इसमें सड़क रेल और दूसरी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं का जाल अलग है।
अगले लोकसभा चुनाव दरअसल अब दो बातों पर टिके हैं। भाजपा की सारी कोशिश है कि यह चुनाव मोदी बनाम अन्य हो। विपक्ष यदि भाजपा व उसके सहयोगियों के सामने एक उम्मीदवार खड़ा करने में सफल हो जाता है तो भाजपा के लिए इसे राष्ट्रपति प्रणाली जैसा चुनाव बनाना आसान हो जाएगा। विपक्ष की सारी कोशिश है कि यह मुद्दा न बनने पाए। वह चाहता है कि भाजपा गठबंधन को इकत्तीस राज्यों में इकत्तीस चुनाव लड़ने पड़ें। दोनों खेमों को 1971 याद है। जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सारे विपक्षी दलों ने मिलकर ग्रैंड एलायंस बनाया था। तो इंदिरा गांधी ने नारा दिया था कि ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ।’
उत्तर भारत
सबसे पहले बात करते हैं उत्तर भारत की। अगर देखें तो यहीं विपक्ष सबसे ज्यादा ताकतवर नजर आता है। उत्तर प्रदेश में तो बीजेपी विरोधी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी ने साथ आने की हिम्मत दिखाई। जून 1995 का लखनऊ गेस्ट हाउस कांड भुलाकर मायावती ने भतीजे अखिलेश यादव को सहयोग दिया। इसका असर यह हुआ कि कैराना में बीजेपी के करीब 44 प्रतिशत मतों के बरक्स विपक्ष को 50 फीसद से ज्यादा मत मिले। सपा-बसपा के साथ ही इस गठबंधन को राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस का भी साथ मिल गया है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के अलावा किसी विपक्षी दल की कोई पैठ या ताकत नहीं है। इसलिए यहां विपक्षी गठबंधन के कोई मायने नहीं हैं। रही बात पंजाब और हरियाणा की तो पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की ताकत ज्यादा है। बहुजन समाज पार्टी की उपस्थिति भी नहीं है। इसी तरह हरियाणा में विपक्ष में इंडियन नेशनल लोकदल और कांग्रेस बड़ी ताकत हैं। बहुजन समाज पार्टी और हरियाणा जनहित कांग्रेस भी हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की विरोधी रही इंडियन नेशनल लोकदल शामिल होगी। इसी तरह पंजाब में क्या कांग्रेस और आम आदमी पार्टी साथ आएंगे। हालांकि दिल्ली में ऐसी चर्चा है। अगर ऐसा संभव हुआ तो दिल्ली और पंजाब में बीजेपी विरोधी मोर्चा ताकतवर बन सकता है। रही बात जम्मू और कश्मीर की तो वहां अभी महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जहां बीजेपी के साथ है, वहीं नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस विपक्ष में हैं। जम्मू-कश्मीर में मौका लगा तो बीजेपी के विरोध में पीडीपी भी जा सकती है। हालांकि इन तीनों का ज्यादा असर जहां कश्मीर घाटी में है, वहीं भारतीय जनता पार्टी की पकड़ लद्दाख और जम्मू संभाग में है। इसलिए यहां मुकाबला बराबरी पर ही रहने के आसार हैं।
पश्चिम भारत
अब बात करते हैं पश्चिम भारत की। पश्चिम भारत में छह राज्य प्रमुखता से आते हैं- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र और गोवा। राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी और इंडियन नेशनल लोकदल की हल्की मौजूदगी के अलावा विपक्ष में कांग्रेस ही बड़ा दल है। कुछ ऐसी ही हालत मध्य प्रदेश और गुजरात की भी है, जहां कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा दल विपक्ष में नहीं है। इसलिए इन तीनों राज्यों में विपक्षी एकता सिर्फ नाम लेने के लिए बन सकती है। वैसे गुजरात के बनवासी इलाकों में जनता दल यू की थोड़ी पहुंच है। यहां का जनता दल यू का धड़ा शरद यादव को अपना नेता मानता रहा है, इसलिए हो सकता है कि प्रतीकात्मक एकता के लिए वह भी इस गठबंधन में शामिल हो। चूंकि गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर दी है और राजस्थान विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही होने के आसार हैं। इसलिए विपक्षी गठबंधन यहां बनेगा तो उसमें इन छिटफुट दलों की भागीदारी भी होगी। गुजरात में मोदी विरोधी दलित राजनीति के पोस्टर ब्वॉय जिग्नेश मेवाणी भी हैं। हालांकि उन्हें अंदरखाने कांग्रेस सहयोग करती है। लेकिन वे अपना अलहदा अस्तित्व रखते हैं। इसलिए वे भी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे। छत्तीसगढ़ में त्रिकोणीय राजनीति है। कांग्रेस से अलग होकर पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी अलग से अपनी पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बना चुके हैं। लेकिन कम ही संभावना है कि वे विपक्षी गठबंधन में शामिल हों। क्योंकि उनकी नाराजगी की वजह कांग्रेस में उनकी उपेक्षा है और इस उपेक्षा को वे शायद ही भुला पाएं। इसलिए छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन शायद ही बन पाए। वहीं महाराष्ट्र में मुख्यत: चार पार्टियां हैं, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी रही शिवसेना। इस गठबंधन में रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया भी शामिल है। 2014 से पहले तक शिवसेना जहां विधानसभा चुनावों में बड़े भाई की भूमिका निभाती थी, वहीं लोकसभा चुनावों में यह भूमिका भारतीय जनता पार्टी के पास होती थी। लेकिन मोदी और शाह की भाजपा ने इस परिपाटी को तोड़ दिया। इससे शिवसेना को खासा नुकसान हुआ। इससे शिवसेना चिढ़ी रहती है। हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सहयोगियों को मनाने और उनके प्रति भरोसा कायम रखने की कवायद के तहत शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मुलाकात की है। उद्धव की मांग है कि विधानसभा में भाजपा उसे एक सौ सत्तर सीटें और मुख्यमंत्री पद का वादा करे तभी गठबंधन चल सकता है।
अमित शाह का कहना था कि विधानसभा में दोनों दल जो सीटें जीते हैं वे उनकी और बाकी पर बात कर लेते हैं। भाजपा उद्धव की बात मानेगी यह संभव नहीं लगता। पर बातचीत की संभावना बनी हुई है। विपक्ष में कांग्रेस और शरद पवार की अगुआई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और प्रकाश आंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया हैं। शरद पवार के बारे में मान्यता है कि वे सत्ता के लिए कहीं भी जा सकते हैं। महाराष्ट्र में ऐसा माना जाता है कि अगर शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़ दिया तो शरद पवार उसके साथ आ सकते हैं। हालांकि विपक्षी एकता की कवायद के लिए वे भी प्रयासरत हैं। अरसे से प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले शरद पवार को लगता है कि उनके लिए यही आखिरी मौका है। शिवसेना अगर बीजेपी के विरोध में उतरेगी भी तो उसके आक्रामक रवैये के कारण कांग्रेस से शायद ही पटरी बैठे। इसलिए वहां गठबंधन का पारंपरिक ढांचा ही मौजूद रहने के आसार हैं। गोवा की बात करें तो वहां भारतीय जनता पार्टी अल्पमत में रहते हुए भी महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के साथ सत्ता चला रही है। इसलिए विपक्ष में कांग्रेस को ही रहना है।
पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत
इस इलाके में स्थित बिहार और झारखंड में बेशक भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, लेकिन यहां विपक्ष भी कमजोर नहीं है। बिहार में जहां राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का गठबंधन है, वहीं झारखंड में भी झारखंड मुक्ति मोर्चा, बाबूलाल मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल की विपक्षी खेमे में प्रभावी उपस्थिति है। इन राज्यों में तकरीबन विपक्षी गठबंधन की रूपरेखा तय है। बिहार में तो एनडीए के सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा भी रह-रहकर आंख दिखा रहे हैं और कई बार लालू यादव के नजदीक जाते दिखते हैं।
इसलिए उन पर भरोसा करना आसान नहीं होगा। यानी अगर उन्हें एनडीए में ठीकठाक सीटों की भागीदारी नहीं मिली तो वे लालू के साथ जा सकते हैं। वैसे भी वे नीतीश कुमार के साथ असहज महसूस करते हैं। वहीं रामविलास पासवान अपने राजनीतिक हित के लिए कहीं भी जा सकते हैं। इसलिए बिहार का भावी विपक्षी गठबंधन एनडीए की अंदरूनी राजनीति पर भी निर्भर करेगा। रही बात ओडिशा की तो यहां सत्ताधारी बीजू जनता दल लंबे अर्से से सत्ता में है। कांग्रेस निस्तेज पड़ी है और हाल के कुछ महीनों में भारतीय जनता पार्टी ने नगर निकाय और पंचायत चुनावों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। इसलिए यहां विपक्षी गठबंधन बनने के आसार नहीं हैं।
वैसे भी कर्नाटक में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनने के दौरान बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक को भी बुलावा भेजा गया था, लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। पश्चिम बंगाल में विपक्षी गठबंधन बनने के पूरे आसार हैं। हालांकि वहां की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी एक दौर में पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी रही सीपीएम और उसके सहयोगी दलों की घोर विरोधी रही हैं। उन्होंने उसके विरोध के लिए ही कांग्रेस से अलग राह चुनी थी। फिर वे खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदार भी हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि राज्य में बीजेपी विरोधी मोर्चा बने। हाल के कुछ महीनों में भारतीय जनता पार्टी ने ही उन्हें टक्कर दी है। वे अंदरखाने बीजेपी के राज्य में बढ़ते प्रभाव से भयभीत हैं। इसलिए वहां वे चाहती हैं कि गठबंधन बने। कांग्रेस भी राज्य में लस्त पड़ी है, इसलिए वह साथ में जाने को भी तैयार है। हो सकता है कि बीजेपी विरोधी गठबंधन में वामपंथी दल भी ममता के साथ आ जाएं। लेकिन उनका कोर वोटर शायद ही ममता को वोट कर सके। क्योंकि ममता को मात देने के लिए राज्य में हुए हालिया पंचायत चुनावों में उनके भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों का साथ देने की भी खबरें आर्इं। इसलिए यह गठबंधन पश्चिम बंगाल में कामयाब हो ही पाएगा, कहना मुश्किल होगा। त्रिपुरा में हो सकता है कि सीपीएम, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस साथ आ जाएं। यही हालत असम में हो सकती है, जहां बीजेपी के विरोध में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी आॅल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट और असम गण परिषद आ जाएं। अगर कांग्रेस और अजमल की पार्टी मिल गर्इं तो बीजेपी को जोरदार टक्कर मिल सकती है। पूर्वोत्तर के दूसरे राज्य अरुणाचल में बीजेपी ताकतवर है। इसलिए वहां कांग्रेस और स्थानीय गुट साथ आ सकते हैं। बाकी राज्यों का हाल यह है कि वहां की ज्यादातर छोटी पार्टियां केंद्र में ताकतवर बनने वाले दलों के साथ आने में हिचक नहीं दिखातीं।
दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने शुरुआत में बीजेपी विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश तो की, लेकिन जब कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार बनी तो वहां नहीं गए। तेलंगाना में भारतीय जनता पार्टी इस बार मजबूत हो सकती है। हालांकि के चंद्रशेखर राव का मुकाबला जगन मोहन रेड्डी की अगुआई वाली वाईएसआर कांग्रेस और कांग्रेस से अब तक ज्यादा रहा है। जगन रेड्डी कांग्रेस से मिली बेरुखी को शायद ही भुला पाएं। इसलिए वे शायद ही कांग्रेस के साथ जाएं। पड़ोसी आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी के नेता एन चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया है और वे राज्य में बीजेपी विरोधी गठबंधन के अगुआ बन सकते हैं। हालांकि उनका साथ जगनमोहन रेड्डी दे पाएंगे, इसकी संभावना न के बराबर है।
हां, बीजेपी को मात देने के लिए कांग्रेस साथ आ सकती है। पड़ोसी कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन बन ही गया है। यह गठबंधन येन-केन प्रकारेण आम चुनावों तक चलेगा, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। हालांकि, भाजपा का पूरा प्रयास होगा कि दोनों दलों में उपजे असंतोष का फायदा उठाकर सरकार गिरा दे। वहां दोनों दलों में विद्रोह की सुगबुगाहट दिखने लगी है। इसलिए यह गठबंधन बीजेपी के मुकाबले कितना कामयाब होगा, कहना मुश्किल है। पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में बीजेपी के साथ सत्ताधारी अन्ना द्रमुक का कोई गठबंधन नहीं है। लेकिन यह तय है कि विपक्षी डीएमके और अन्ना द्रमुक दोनों साथ नहीं आ सकते। पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी साथ आएं तो दोनों को नुकसान की आशंका है। राज्य में भारतीय जनता पार्टी की अभी मजबूत उपस्थिति तक नहीं है। वह पिछला चुनाव विजयकांत की पार्टी डीएमडीके के साथ लड़ी थी। यहां पीएमके समेत कुछ और छोटी पार्टियां भी हैं। अगर डीएमके कांग्रेस के साथ आती है और विपक्षी गठबंधन की धुरी बनती है तो तय मानिए कि अन्ना द्रमुक बीजेपी के साथ जाएगी। वैसे भी अब उसके पास उसकी करिश्माई नेता जयललिता नहीं हैं, इसलिए उसकी सीमाएं भी हैं। रही बात छोटी पार्टियों की तो उनका रवैया हवा के रुख पर निर्भर करेगा।
आखिर में बात करते हैं केरल की। केरल में पारंपरिक तौर पर मुकाबला कांग्रेस की अगुआई वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और माकपा की अगुआई वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट में रहा है। लेकिन पिछले दो चुनावों से भारतीय जनता पार्टी ने यहां जोरदार दस्तक दी है। पिछले विधानसभा चुनावों में तो उसने 16 प्रतिशत तक वोट हासिल किए। इसलिए यहां बीजेपी को लेकर डर तो है, लेकिन विरोध में यूडीएफ और एलडीएफ में गठबंधन बन जाएगा, यह उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के मिलने से भी बड़ी घटना होगी। अगर दोनों गठबंधन के केंद्रीय नेतृत्व ने तय भी कर लिया तो स्थानीय नेतृत्व या कोर कार्यकर्ताओं को इसे स्वीकार करने में सांस्कृतिक-सामाजिक दिक्कत होगी। इसलिए यहां बना बीजेपी विरोधी गठबंधन अपने अंतर्विरोध में डूब सकता है।