प्रदीप सिंह /संपादक/ओपिनियन पोस्ट
केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के चार साल पूरे हो गए। देश की राजनीति वहीं है जहां आज से चार साल पहले थी। मोदी से प्रेम करने और नफरत (विरोध नहीं) करने वालों की संख्या में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। जो सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं वे तो मोदी के साथ हैं ही, जो थोड़ा असंतुष्ट हैं वे भी साथ हैं। अब वे मोदी प्रेम के कारण हैं या विकल्प के डर के कारण, इस पर बहस हो सकती है। चार सालों में दोनों पक्षों ने अपनी राय नहीं बदली। दोनों ही पक्षों में से कोई तथ्यों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं है। जो मोदी के साथ हैं उनकी नजर में सब कुछ अच्छा चल रहा है और जो नफरत करते हैं उनकी नजर में सब कुछ बुरा। एक की मानें तो देश में खुशहाली और अमन चैन है। दूसरे की मानें तो देश रसातल के मुहाने पर खड़ा है। जाहिर है कि सच्चाई दोनों के बीच है। पर सच्चाई जानना कौन चाहता है।
सच कहें तो चार साल में देश का मिजाज और माहौल दोनों बदला है। यूपीए के दस साल के शासन के बाद देश में एक मायूसी का माहौल था। लोगों को लगने लगा था कि कुछ बदल नहीं सकता। मोदी सरकार की चार साल की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि लोगों का भरोसा बहाल हुआ है। इसी व्यवस्था में काम करके भी बदलाव लाया जा सकता है। नोटबंदी जैसा कदम साहसिक और जोखिम भरा था। वह सही था या गलत इस पर अभी तक बहस जारी है। लेकिन देश के मतदाता ने जता दिया है कि अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और विपक्षी राजनीतिक दल कुछ भी कहें उसे मोदी के उठाए कदम पर भरोसा है। चार साल में एक बात नहीं बदली है तो मोदी पर भरोसा। मोदी सही करें या गलत पर किसी बदनीयती से कुछ नहीं करते यह विश्वास कायम है। यही मोदी की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है। किसी जनतांत्रिक व्यवस्था में नेता पर भरोसा उस पार्टी की सबसे बड़ी पूंजी होती है। इसी भरोसे के कारण दुनिया के तमाम बड़े छोटे देशों में मोदी की सराहना हुई है। विश्व समुदाय के भरोसे का सबसे बड़ा उदाहरण फिलिस्तीन के राष्ट्रपति का यह कहना है कि नरेंद्र मोदी चाहें तो इजरायल फिलिस्तीन का विवाद सुलझा सकते हैं। महज चार साल पहले विश्व राजनय के पटल पर उतरने वाले नेता के लिए इससे बड़ी प्रशंसा क्या हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय जगत में होने वाली प्रशंसा और बढ़ते कद से नेता का आभामंडल तो बढ़ता है लेकिन वोट तो गांव गरीब के जीवन में आने वाले बदलाव से ही मिलता है।
दिल्ली में बैठे किसी बुद्धिजीवी के लिए यह समझना बहुत कठिन है कि सुदूर गांव में किसी व्यक्ति का बैंक में खाता खुलना उसके लिए कितनी बड़ी बात है। इस एक काम से देश के करोड़ों लोग अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में आ गए। छाछठ साल में जितने लोगों के बैंक खाते खुले उतने ही एक साल में खुल गए। गांव में सड़क पहुंच गई और जहां नहीं पहुंची वहां भी पहुंच रही है। छह करोड़ से ज्यादा शौचालय बन गए। सरकार के स्वच्छता अभियान को लोगों ने एक सामाजिक अभियान बना दिया। करीब सत्तर साल बाद देश के हर गांव में बिजली पहुंच गई है। गांव में लोग अब अंधेरे में खाना नहीं खाते। ऐसे भी गांव हैं जहां इंटरनेट कनेक्टिविटी शहर से ज्यादा अच्छी है। मनरेगा की मजदूरी हो, खाद, रसोई गैस की सब्सिडी हो या दूसरे सरकारी लाभ, सब सीधे गरीब के बैंक खाते में पहुंच रहे हैं। उज्ज्वला योजना ने महिलाओं की बहुत बड़ी समस्या हल कर दी है। उन्हें धुएं से ही नहीं उसके कारण होने वाले तमाम रोगों से भी मुक्ति मिल गई है। महिलाओं के कल्याण के लिए शौचालय का बनना किसी वरदान से कम नहीं है। स्वस्थ महिला का परिवार पर कितना बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
प्रधानमंत्री ग्रामीण और शहरी आवास योजना के जरिये 2022 तक हर व्यक्ति को आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य है। इस योजना के तहत पिछले साल करीब एक करोड़ मकान बने हैं। अपना घर का सपना किसी भी गरीब का सबसे बड़ा सपना होता है। सरकार की ये योजनाएं ऐसी हैं जो गांव-गरीब के जीवन स्तर में सुधार ला रही हैं। मुद्रा योजना खुदरा काम करने वाले छोटे मोटे कारोबारियों के लिए बहुत बड़ी मदद है। इससे न केवल उनका धंधा बढ़ रहा है बल्कि वे वित्तीय व्यवस्था की मुख्यधारा में भी आ रहे हैं। जिसका उन्हें दूरगामी लाभ मिलेगा। इन सबके ऊपर आयुष्मान भारत योजना के लॉन्च की तैयारियां लगभग पूरी हो गई हैं। इसके तहत दस करोड़ परिवारों को साल में पांच लाख तक के इलाज का खर्च सरकार देगी। इतना ही नहीं, बीमारियों की जांच पर होने वाला खर्च भी सरकार देगी। इससे बीमारी की हालत में गरीब को अपनी जीवन भर की जमा पूंजी नहीं गंवानी पड़ेगी। इसके अलावा इस योजना से निजी और सरकारी चिकित्सा सुविधाएं ग्रामीण इलाकों तक पहुंचेंगी।
आर्थिक मोर्चे पर वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) आजादी के बाद का सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर सुधार है। शुरुआती झटकों के बाद अब यह व्यवस्था पटरी पर आ गई है। केंद्र और राज्य सरकारों की शंकाएं निर्मूल साबित हुई हैं और भरोसा बढ़ा है। सरकारी बैंकों से कर्ज लेकर डकार जाने की बीमारी देश में महामारी का रूप ले चुकी थी। देश में दिवालिया कानून बनाने की बातें पिछले बीस सालों से चल रही थीं। पर इसमें शामिल निहित स्वार्थ की लॉबी इतनी ताकतवर थी कि कोई सरकार इस संबंध में कानून बनाने का साहस नहीं जुटा पाई। मोदी सरकार ने न केवल यह कानून बनाया बल्कि इस पर अमल भी शुरू हो गया है। नतीजा यह हुआ है कि बड़े कर्जदार इस कानून से बचने के लिए कर्ज लौटाने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। वरना हालत यह थी कि सरकारी बैंकों से कर्ज लेकर न लौटाना ही जैसे कानून बन गया था। अब हाल यह है कि कंपनियों की सेल लग रही है। बड़े कर्जदारों को अपनी कंपनियों के मालिकाना हक से हाथ धोना पड़ रहा है।
सड़क निर्माण की बात किए बिना इस सरकार के कामकाज की चर्चा पूरी नहीं हो सकती। सड़क निर्माण और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बहुत तेजी से काम हुआ है। सड़क परिवहन मंत्रालय ने अकेले ही बैंकों का तीन लाख करोड़ रुपये एनपीए होने से बचाया। हाइवे निर्माण का काम पहले की तुलना में दोगुना तीन गुना गति से हो रहा है। इसी तरह रेलवे में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर बहुत तेजी से काम हो रहा है। ये काम ऐसे हैं जिनका वास्तविक असर और फायदा दिखने में समय लगेगा। पर इतना तो है ही कि काम होता हुआ दिख रहा है।
सरकार काम कर रही है इससे इनकार करना कठिन है। पर संसदीय जनतंत्र में इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि काम हो रहा है या नहीं और हो रहा है तो कितना। सबसे अहम सवाल है कि मतदाता इस काम के बारे में क्या सोचता है। क्या वह महसूस कर रहा है कि सरकार उसकी अपेक्षा के अनुरूप काम कर रही है। इसी बात से तय होता है कि वह सत्तारूढ़ दल को एक और मौका देना चाहता है या फिर विकल्प की तलाश कर रहा है। अभी तक जो दिख रहा है उससे तो नहीं लगता कि देश का मतदाता विकल्प की तलाश कर रहा है। क्योंकि विकल्प आश्वस्त करने की बजाय डरा ज्यादा रहा है।