विजय माथुर
कर्नाटक के रण में भले ही भाजपा का विजयी घोड़ा ठिठक गया लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षिण के इस सूबे में छा गए। कर्नाटक के चुनाव प्रभारी और भाजपा के महामंत्री पी मुरलीधर राव की मानें तो मोदी ने इक्कीस विधानसभा क्षेत्रों में रैलियां की जिनमें 18 में भाजपा को फतह मिली। उनकी लोकप्रियता का यही वास्तविक सूचक है। भाजपा की बढ़त में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की बेहतर रणनीति तो कारगर रही ही, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का साथ पार्टी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने में सफल रहा। सूत्रों की मानें तो भाजपा ने संघ के बूथ प्रबंधन प्रस्ताव पर सहमति जताते हुए यह कह कर आभार प्रकट किया कि आरएसएस हमारा सैद्धांतिक मुखिया है, वह हमेशा चुनाव लड़ने में हमारी मदद करता है। लेकिन अब जबकि राजस्थान समेत उन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं जहां भाजपा की सरकार है और उसे विपक्ष से कड़ी टक्कर मिलने की संभावना है, ऐसे में क्या राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे संघ के ऐसे प्रस्ताव पर सहज हो सकेंगी? प्रदेश अध्यक्ष की तैनाती के मुद्दे पर अमित शाह से टकराव मोल ले चुकीं वसुंधरा अब भी अशोक परनामी को बनाए हुए हैं। यह स्थिति तब है जब आलाकमान परनामी को भाजपा अध्यक्ष पद से हटने को कह चुका था।
सूत्रों का कहना है कि कर्नाटक चुनाव के चलते बेशक अमित शाह ने मामले को तूल नहीं दिया लेकिन शाह वसुंधरा के तेवरों से भौंचक थे। सूत्रों का तो यहां तक कहना था कि क्या मिशन 2019 को लक्षित कर चल रही भाजपा की चुनावी रणनीति वसुंधरा राजे तय करेंगी? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे खुद अपनी विश्वसनीयता को धता बता रही हैं। उनकी विश्वसनीयता जितनी घटेगी, उनकी मुश्किलें उतनी ही बढ़ेंगी। अगर भाजपा नेतृत्व गुजरात की तर्ज पर चेहरा बदल दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अमित शाह वसुंधरा की हठधर्मी के आगे हथियार डाल दें, ऐसा संभव नहीं दिखता। उथल-पुथल भरे मौजूदा माहौल में भाजपा आलाकमान क्या वसुंधरा राजे के चुनाव ‘मेरी ही कमान में लड़े जाएंगे’ सरीखे प्रलाप को और बर्दाश्त कर पाएगा? भाजपा राजस्थान में चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पर तैनाती को लेकर मंथन कर रही है लेकिन वसुंधरा इस पर भी पहलू बदलती नजर आ रही हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि विकास के सकारात्मक संबंधों को ध्वस्त कर चुकी वसुंधरा राजे इन दिनों सूबे में जनसंवाद यात्रा पर हैं लेकिन उनकी उपलब्धि में उनकी नीतियों की साख को लेकर तो झोली पूरी तरह खाली है। भाजपा आलाकमान के लिए सबसे बड़ी मुश्किल साख की बहाली का वादा करना है और राजे इसी में आड़े आ रही हैं। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के दौरान आरएसएस ने भाजपा की चुनावी वैतरणी पार करने की खातिर एक साथ कई मोर्चों पर काम करने की नीति बनाई थी। इसमें सौ फीसदी मतदान पर प्रतिद्वंद्वी दलों के खिलाफ माहौल तैयार करना था। मार्च 2013 में जयपुर में आयोजित संघ की बैठक में जिस समय रणनीति को अंतिम रूप देने की तैयारी चल रही थी वसुंधरा ने उस बैठक से ही किनारा कर लिया था। दरअसल, उस रणनीति में संघ प्रमुख की वह हिदायत ही आड़े आ गई कि ‘जरूरत सबको साथ लेकर चलने और एकजुटता से आगे बढ़ने की है, कोई गया है तो उससे आत्मीयता बढ़ाओ।’ वसुंधरा अगर उस रणनीति पर अमल करतीं तो उन्हें वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी से दुश्मनी भुलाकर उन्हें साथ लेना पड़ता और यह उन्हें कबूल नहीं था। बेशक वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा ने पिछले चुनाव में दो तिहाई बहुमत हासिल किया और यह अविश्वसनीय फतह मोदी लहर की बदौलत थी लेकिन राजे ने इसे हर बार यह कहते हुए नकार दिया कि, ‘यह हमारी अपने जतन से कमाई गई जीत थी, किसी और को इसका श्रेय क्यों दिया जाए।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राजे की बढ़ती दूरियों की एक बड़ी वजह यह भी थी तो संघ ने भी उनसे किनारा ही किए रखा। प्रदेश में पिछले उपचुनावों में अगर वसुंधरा सरकार औंधे मुंह गिरी तो इसकी वजह भी संघ की बेरुखी ही थी।
सियासत की संस्कृति में सेहरे के लिए चेहरा मौके पर चुना जाता है। कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रम ने जो नया अक्स खींचा है वो ढेरों चुनौतियों से अटा हुआ है। विश्लेषकों का कहना है कि यह वक्त खुन्नस से खीजने की बजाय समान सोच वाले दोस्तों को खोजने का है। ऐसे में संघ प्रमुख की यह सीख कारगर हो सकती है कि लचीलापन अपनाकर सबको साथ लो। लेकिन क्या राजे ऐसा कर पाएंगी? सूत्रों की मानें तो चुनाव के नजदीक आते ही प्रदेश भाजपा में नेताओं का रूठना और मान मनौव्वल का दौर भी शुरू हो गया है। इसमें सबसे ज्यादा चर्चा भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह विश्नोई की है जो दो बार सांसद और केंद्रीय ऊन बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं। यह चर्चा भी गर्म है कि घनश्याम तिवाड़ी को प्रदेश अध्यक्ष का मुकुट पहनाया जाएगा। हालांकि तिवाड़ी इसे कोरी अफवाह बताकर नकारते हैं लेकिन ऐसा होता है तो भाजपा के हाथ में तुरुप का पत्ता आ सकता है। लेकिन सवाल फिर वही है कि तिवाड़ी के लिए कदम-कदम पर कांटे बिछाने वाली वसुंधरा क्या ऐसा होने देंगी?
राजे अपने कार्यकाल में ऐसा क्या नहीं कर सकती थीं जो उनके बूते के बाहर था? बावजूद इसके जनता का मन जीतने वाली ‘मुफ्त दवा, मुफ्त इलाज’ योजना बंद कर दी गई। परिसीमन के बाद 40 सीटों की सुध लेना भी राजे कैसे भूल गर्इं? अब यही सीटें सरकार के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। इन 40 में से 24 सीटों पर भाजपा दो बार चुनाव हार चुकी है जबकि 16 सीटें ऐसी हैं जिनमें एक बार हार का सामना करना पड़ा। अब वसुंधरा इन 40 सीटों के लिए विशेष कार्य योजना बनाने जा रही हैं ताकि आगामी चुनाव में भाजपा को नुकसान न उठाना पड़े। लेकिन क्या अब सरकार के पास इतना वक्त है? परिसीमन के बाद नई विधानसभा सीटों पर पहली बार 2008 में चुनाव हुआ था और भाजपा केवल 78 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। साल 2013 के चुनाव में भाजपा को बंपर जीत मिली थी और वो 200 में से 163 सीटों पर काबिज हो गई लेकिन 24 सीटें ऐसी रहीं जो भाजपा दोनों चुनावों में नहीं जीत सकी। यह मामला प्रकाश में तब ज्यादा आया जब पिछले दिनों मंत्रियों और प्रदेशाध्यक्ष की कोर कमेटी में इसकी चर्चा हुई। अगर इन सीटों को कब्जाना है तो ऐसी कमेटी बने जिसमें संगठन और जाति के हिसाब से फिट बैठने वाले कार्यकर्ताओंं को शामिल किया जाए। इसके लिए जितनी मशक्कत की दरकार है उसके लिए न तो कार्यकर्ता उत्सुक हैं और न ही वक्त बचा है।